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सिलिकोन घाटी बैंगलुरु में बाढ़ की तबाही

सिलिकोन घाटी बैंगलुरु में बाढ़ की तबाही

by प्रमोद भार्गव
in पर्यावरण, राजनीति, विशेष, सामाजिक
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सिलिकान वैली के नाम से मशहूर बैंगलुरु जैसा हाईटेक शहर बारिश एवं बाढ़ की चपेट में हैं। आफत की बारिश के चलते डूब में आने वाले इस शहर ने संकेत दिया है कि तकनीकि रूप से स्मार्ट सिटी बनाने से पहले शहरों में वर्षा जल के निकासी का समुचित ढांचा खड़ा करने की जरूरत है। लेकिन हमारे नीति नियंता हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े  संकेतों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। नतीजतन बैंगलुरु की सड़कों और गलियों में कारों की जगह नावें और ट्रेक्टरों से जान बचाने की नौबत आई हुई है। इस स्थिति ने प्रशसन की अकर्मण्यता और अदुर्दार्शिता जताते हुए महानगरों के आवासीय नियोजन पर सवाल खड़े कर दिए है। जल निकासी मार्गों पर अनियोजित निर्माण की अनुमतियां शासन-प्रशासन द्वारा ही दी गई हैं। इसकी परिणति यह निकली कि 13 से 18 सेंटीमीटर की बारिश  में ही बैंगलुरु तालाब की शक्ल में आ गया। इसके पहले यह संकट हैदराबाद, चेन्नई, मुंबई, इंदौर, भोपाल और गुरुग्राम में भी देख चुके है। उत्तराखंड की तबाही और कष्मीर में आई बाढ़ इसी औद्योगिक विकास का परिणाम रही है। अब बैंगलुरु के लोग सोषल मीडिया पर लिख रहे हैं कि ओला जैसी सुविधा उपलब्ध कराने वाली कार कंपनियां नावों की सुविधा दे ंतो बहतर होगा। क्योंकि यहां की रिंग रोड पर बहते पानी में लोगों के प्राण बचाने के लिए नौकाओं और ट्रेक्टरों का उपयोग किया जा रहा है। स्कूल बंद कर दिए गए हैं और साॅफ्टवेयर कंपनियों ने कर्मचारियों को घर से आॅनलाइन काम करने की मंजूरी दे दी है।

बैंगलुरु मानसूनी बारिष की सबसे ज्यादा चपेट में है। वर्तमान मुसीबत का वजह कम समय में ज्यादा बारिष होना तो है ही,जल निकासी के इंतजाम नाकाफी होना भी है। दरअसल औद्योगिक और प्रौद्योगिक विकास के चलते षहरों के नक्षे निरंतर बढ़े हो रहे हैं। बैंगलुरु की सिलिकाॅन सिटी तो भूमंडलीकरण के दौर में ही एक ममूली गांव से महानगर के रूप में विकसित हुई है। इस विकासक्रम मेें गांव से षहर बनते सिलिकाॅन के नदी-नाले और ताल-तलैयाों को समतल कर सीमेंट-कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए। अनियोजित षहरीकरण में बरसाती पानी के निकासी के रास्तों का ख्याल ही नहीं रखा गया। यही कारण है कि बैंगलुरु में गगनचुंबी इमारतें और मोबाइल टावर तो दिखाई देते हैं, लेकिन धरती पर कहीं ताल-तलैया और नाले दिखाई नहीं देते हैं। यही वजह रही कि औसत से महज 259 मिलीमीटर बारिष ज्यादा होने से यह औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक स्मार्ट षहर 2 से लेकर 4 फीट तक पानी में डूब गया। मिलेनियम सिटी के नाम से विख्यात बैंगलुरु में वह टेक्नोलाॅजी तत्काल कोई काम नहीं आई, जिसे वाई-फाई जोन के रूप में विकसित किया गया था। साफ है, षहरों की बुनियादी समस्याओं का हल महज तकनीक से निकलने वाले नहीं हैं। इसके सामाधान षहर बसाते समय पानी निकासी के प्रबंध करने से ही निकलेंगे।

भारी बारिष के सिलसिले में मौसम विभाग का कर्त है कि समुद्र की सतह से कुछ किमी की ऊंचाई पर ऐसे सघन बादल बने जो अतिवृश्टि का कारण बन गए। यह स्थिति गर्म हवाओं के झुकाव और इन्हीं के निकट जलभराव के कारण बादलों के निर्माण की प्रक्रिया में मदद करती है। नतीजतन भारी बारिष की संभावना बढ़ जाती है। यही हश्र साइबर सिटी बैंगलुरु को पानी की उचित निकासी नहीं होने के कारण झेलना पड़ा है। नतीजतन यहां हालात इतने बद्तर हो गए कि सुरक्षा दलों को सड़कों व गलियों में नावें चलाकर लोगों के प्राण बचाने पड़े हैं। यहां बाढ़ इतनी थी कि कई लोगों ने भोजन के लिए जाल बिछाकर मछलियां तक पकड़ने का काम किया। दरअसल ऊंचाई पर बसा बैंगलुरु तीस साल पहले तक तालाबों का षहर हुआ करता था। लेकिन आज तालाबों को कूड़े-कचरे से भरकर बहुमंजिला इमारतों की बस्तियां तो बना दी गईं, लेकिन जल निकासी के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए गए। एक तरह से कहा जा सकता है कि तालाबों को आईटी पार्कों में बदलने का जो काम नौकरषाहों और बिल्डरों के गठजोड़ ने किया है, उसका बदला प्रकृति ले रही है।

आफत की यह बारिष इस बात की चेतावनी है कि हमारे नीति-नियंता, देष और समाज के जागरूक प्रतिनिधि के रूप में दूरदृश्टि से काम नहीं ले रहे हैं। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मसलों के परिप्रेक्ष्य में चिंतित नहीं हैं। 2008 में जलवायु परिवर्तन के अंतरसकारी समूह ने रिपोर्ट दी थी कि घरती पर बढ़ रहे तापमान के चलते भारत ही नहीं दुनिया में वर्शाचक्र में बदलाव आने वाले हैं। इसका सबसे ज्यादा असर महानगरों पर पड़ेगा। इस लिहाज से षहरों में जल-प्रबंधन व निकासी के असरकारी उपायों की जरूरत है। इस रिपोर्ट के मिलने के तत्काल बाद केंद्र की तत्कालीन संप्रग सरकार ने राज्य स्तर पर पर्यावरण सरंक्षण परियोजनाएं तैयार करने की हिदायत दी थी। लेकिन देष के किसी भी राज्य ने इस अहम् सलाह पर आज तक गौर नहीं किया। इसी का नतीजा है कि हम जल त्रासदियां भुगतने को विवष हो रहे हैं। यही नहीं षहरीकरण पर अंकुष लगाने की बजाय,ऐसे उपायों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे उत्तरोत्तर षहरों की आबादी बढ़ती रहे। यदि यह सिलसिला इन त्रासदियों को भुगतने के बावजूद जारी रहता है तो ध्यान रहे, 2031 तक भारत की षहरी आबादी 20 करोड़ से बढ़कर 60 करोड़ हो जाएगी। जो देष की कुल आबादी की 40 प्रतिषत होगी। ऐसे में षहरों की क्या नारकीय स्थिति बनेगी, इसकी कल्पना भी असंभव है ?

वैसे, धरती के गर्म और ठंडी होते रहने का क्रम उसकी प्रकृति का हिस्सा है। इसका प्रभाव पूरे जैवमंडल पर पड़ता है, जिससे जैविक विविधता का अस्तित्व बना रहता है। लेकिन कुछ वर्शों से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की रफ्तार बहुत तेज हुई है। इससे वायुमंडल का संतुलन बिगड़ रहा है। यह स्थिति प्रकृति में अतिरिक्त मानवीय दखल से पैदा हो रही है। इसलिए इस पर नियंत्रण संभव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चेन्नई की जल त्रासदी को ग्लोबल वार्मिंग माना था। सयुक्त राश्ट्र की जलवायु परिवर्तन समिति के वैज्ञानिकों ने तो यहां तक कहा था कि ‘तापमान में वृद्धि न केवल मौसम का मिजाज बदल रही है,बल्कि कीटनाषक दवाओं से निश्प्रभावी रहने वाले विशाणुओं-जीवाणुओं,गंभीर बीमारियों,सामाजिक संघर्शों और व्यक्तियों में मानसिक तनाव बढ़ाने का काम भी कर रही है।‘ साफ है, जो लोग बैंगलुरु की बाढ़ का संकट कई दिनों से झेल रहे हैं, वे जरूर संभावित तनाव की त्रासदी से गुजर रहे होंगे।

– प्रमोद भार्गव

 

 

 

 

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Tags: #बाढ़ #प्राकृतिकआपदा #पर्यावरण #जलवायुपरिवर्तन #शहरीकरण #तबाही #महानगर #प्रशासन #शासन #आवासीयनियोजन #बेंगलुरु #दक्षिणभारत #विकास #भारत

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