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राजनीति में आदर्श स्वयंसेवक : राजेन्द्र शर्मा

राजनीति में आदर्श स्वयंसेवक : राजेन्द्र शर्मा

by हिंदी विवेक
in राजनीति, विशेष, संघ, सामाजिक
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राजनीति में रहकर स्वयं को शुद्ध बनाये रखना सरल नहीं है; पर संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री राजेन्द्र शर्मा ऐसे ही एक आदर्श स्वयंसेवक थे। वे लम्बे समय तक जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के संसदीय सचिव रहे; पर पद, प्रतिष्ठा और चुनाव की लिप्सा से वे सदा दूर ही रहे।

राजेन्द्र शर्मा का जन्म 19 सितम्बर, 1924 को हाथरस (उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता श्री ताराचंद जी का पुस्तकों का व्यापार था, अतः उनमें बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने के प्रति रुचि जाग गयी। उनकी स्मरण शक्ति गजब की थी। एक बार पढ़ा या सुना हुआ वे जस का तस दोहरा देते थे। आगे चलकर तो उन्होंने अनेक महाविद्यालयों में छात्रों के बीच इस कला का प्रदर्शन किया तथा इसकी विधि भी सिखाई।

पढ़ाई में अग्रणी रहने के कारण वे शिक्षा में तेजी से आगे बढ़ते चले गये और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मैकेनिकल एवं इलैक्ट्रिकल इंजीनियर की डिग्री ली। यदि वे चाहते तो इस डिग्री के बल पर स्वर्णिम वेतन वाली नौकरी पा सकते थे; पर उन्होंने संघ कार्य को अपने जीवन का व्रत बनाया और 1944 में प्रचारक बन गये।

प्रचारक के नाते उन्होंने बरेली, देहरादून, सहारनपुर व जम्मू में कार्य किया। इसके बाद 1964-65 में उन्हें जनसंघ में संसदीय दल के कार्यालय की जिम्मेदारी दी गयी, जिसे उन्होंने आजीवन निभाया। आपातकाल में वे कुछ समय के लिए हिमाचल भी गये; पर फिर उन्हें दिल्ली बुला लिया गया। संसद में जनसंघ के किस सदस्य को क्या प्रश्न पूछना है, उसका निर्णय कर वे सदस्य को उसकी तैयारी कराते थे। अध्ययनशील होने के कारण उनके पास तथ्यों का विशाल भंडार रहता था। नये सांसदों को वे संसदीय प्रणाली व परम्पराओं की जानकारी देते थे। इस नाते संसद में वे जनसंघ और फिर भाजपा के एक प्रमुख आधार स्तम्भ थे। यद्यपि वे सदा पर्दे के पीछे रहकर ही काम करते थे।

एक बार वे भयंकर साइटिका रोग से पीड़ित हो गये। कई प्रकार और स्थानों के इलाज से जब लाभ नहीं हुआ, तो खुर्जा (उ.प्र.) के एक आयुर्वेदज्ञ ने उन्हें ठीक किया। इस चिकित्सा में उन्हें एक वर्ष तक घोर गर्मियों में भी गरम कपड़े, रजाई आदि प्रयोग करनी थी। वर्ष भर पानी नहीं पीना था और थोड़े से दूध के साथ दवाएं लेनी थीं। राजेन्द्र जी ने इस कठिन दिनचर्या का पालन किया। स्वभाव की यह दृढ़ता उनकी कार्यशैली में भी दिखाई देती थी। उनके कार्यालय में आने-जाने को देखकर लोग अपनी घड़ी मिलाया करते थे।

सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति राजेन्द्र जी को अचानक हृदयरोग ने आ घेरा। पहले उन्हें दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल और फिर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। वहां से वे ठीक तो हुए; पर रोग पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ। दूसरी बार समस्या होने पर आयुर्विज्ञान संस्थान में उनकी बाइपास सर्जरी की गयी। इससे वे ठीक होकर फिर काम में लग गये; पर वे समझ गये कि जीवन का अब भरोसा नहीं है। अतः उन्होंने बैंक के कागज, नकद राशि आदि अपने सहयोगी श्री जना कृष्णमूर्ति को सौंप दी।

यद्यपि वे चिकित्सकों के निर्देश का कठोरता से पालन करते थे, पर आयु अपना असर दिखा रही थी। इस बार बीमार होने पर उन्हें तिरुअनंतपुरम् (केरल) में इलाज के लिए भेजा गया; पर वहां 13 नवम्बर, 1999 को उन्होंने शरीर छोड़ दिया। राजनीतिक कोलाहल के बीच संत की तरह शांत रहने वाले राजेन्द्र जी का 14 नवम्बर को वहीं अंतिम संस्कार किया गया।

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