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वानप्रस्थ की वर्तमान संकल्पना

वानप्रस्थ की वर्तमान संकल्पना

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in अक्टूबर-२०२२, विशेष, सामाजिक
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रिटायरमेंट के जीवन को लोग बोझ समझने लगते हैं, जबकि उनके अनुभव का उपयोग समाज और राष्ट्रहित में किया जा सकता है। वर्तमान में वानप्रस्थी जीवन जी रहे लोगों के पास लोकसेवा के असीम अवसर उपलब्ध हैं। वे सामाजिक कार्यों में अपने समय का सदुपयोग कर जीवन की नीरसता से भी बच सकते हैं।

भारतीय ऋषि परम्परा में मानव जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्य आश्रम सीखने और अपने कौशल, बुद्धि, विवेक, ज्ञान को बढ़ाने का समय है। गृहस्थ जीवन धनोपार्जन, वंशवृद्धि और कुल की रक्षा के लिए है। यह जीवन का सर्वोत्तम कालखंड माना जाता है। गृहस्थ जीवन के समय में ही परिवार का भरण-पोषण, माता-पिता की सेवा, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था सहित सभी दायित्वों का पालन किया जाता है। जब मनुष्य अपने सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाता है और सब कुछ अगली पीढ़ी को सौंपकर मार्गदर्शक की भूमिका में पहुंच जाता है, तो वह वानप्रस्थी हो जाता है। उस समय उसे परिवार से आगे बढ़कर अपने ज्ञान और अनुभव के माध्यम से समाज, देश और मानवता के लिए प्रत्यक्ष रूप से कुछ करने का अवसर होता है। वह धीरे-धीरे कर्तव्यपथ पर आगे बढ़कर आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होता है।

इसलिए अब वानप्रस्थी लोग भी अपनी भूमिका में बदलाव अनुभव करते हुए अपना जीवन निर्वाह करने के मार्ग तलाशने लगे हैं। एक बार एक वृद्धाश्रम का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन पूजनीय सर संघचालक सुदर्शन जी ने कहा था कि जिस समाज में अनाथालय और वृद्धाश्रम की संख्या जितनी अधिक होती है, वह समाज उतना ही रुग्ण होता है। एक तरह से उन्होंने वृद्धाश्रमों की संख्या को समाज और परिवार की व्यवस्था का मापदंड बताया था। आज की परिस्थिति में ये वृद्धाश्रम वानप्रस्थियों के लिए आश्रय स्थल तो बन ही रहे हैं, साथ ही ऐसे अनेक लोगों के लिए कर्तव्यपालन का केंद्र भी बन रहे हैं, जिन्हें कुछ रचनात्मक और सार्थक कार्य करने की अभिलाषा है।

कुछ दिन पहले लखनऊ के सरोजनीनगर स्थित एक सरकारी संसाधन से चलने वाले वृद्धाश्रम में जाने का अवसर मिला। उसका संचालन डा. सुशीलचंद्र त्रिवेदी करते हैं। भूमि और भवन उनका है, वृद्धों पर होने वाला पूरा व्यय राज्य सरकार वहन करती है। लगभग पौने दो सौ वानप्रस्थी स्त्री-पुरुष वहां पर रहते हैं। हरदोई के निवासी वानप्रस्थी श्रीवास्तव भी वहीं पर हैं। उन्हें सरकारी नौकरी की पेंशन मिलती है, किंतु बच्चे साथ में नहीं रहते। इसलिए एकाकी जीवन से बचने के लिए आश्रम में रहने लगे हैं। उन्हें बागवानी और खेती का बहुत शौक है। उन्होंने डा. त्रिवेदी से बात करके पूरे आश्रम में बागवानी की है। समय सकारात्मक और रचनात्मक सोच के साथ अच्छी तरह से बीत रहा है। अपनी पेंशन का अधिकांश भाग आश्रमवासियों के कपड़ों और सामान्य खान-पान की वस्तुओं पर खर्च कर देते हैं। उन्होंने जीवन का एक नया दृष्टिकोण बनाया है, वह उन्हें अपने परिवार से दूर होने का एहसास ही नहीं होने देता है।

मुंबई के निकट बदलापुर में सहवास वृद्धाश्रम है। संघ की प्रेरणा और समाज के सहयोग से संचालित आश्रम की व्यवस्था इस समय जयंत नारायण गोगटे देखते हैं। आश्रम का भवन दो मंजिला है और सभी आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। मुंबई और आसपास के ऐसे परिवारों के वानप्रस्थी वहां पर हैं, जिनके बच्चे विदेश चले गए हैं अथवा मुंबई के छोटे घरों में रहते हैं। माता-पिता की चिंता उन्हें है, किंतु उन्हें अपने साथ रख नहीं सकते हैं। सबके अपने अलग-अलग कारण हैं। यह तो सर्वमान्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई विशिष्ट गुण होता हैं। किसी में पाककला, तो किसी में शिल्पकला का गुण विद्यमान होता है। कोई गायन-वादन-नृत्य में तो कोई सिलाई-बुनाई में पारंगत होता है। जयंत गोगटे ने आश्रम में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के गुणों को पहचान कर उसे सामने लाने का कार्य किया है। सभी वानप्रस्थी अपनी-अपनी अभिरुचि के अनुरूप कार्य करते हुए अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। समय का सदुपयोग करते हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर रसोई में स्वादिष्ट पकवान बनाने, आध्यात्मिक चर्चा करने, कवितापाठ और कथाकथन का कार्यक्रम भी करते हैं। जिन्हें कुछ करने की सामर्थ्य नहीं है, वे सहयोगी अथवा रसिक की भूमिका में रहकर अपना योगदान देता हैं। पूरा आश्रम एक खुशहाल घर जैसा बन गया है। सारे उत्सव -सांस्कृतिक- सामाजिक-धार्मिक उत्सव पूरे उत्साह के साथ मनाये जाते हैं। वहां के वानप्रस्थी अपना जीवन अपनी तरह से बिता रहे हैं और सभी एक परिवार के सदस्य की भांति सबका सुख-दुःख बांट रहे हैं।

शंकर चित्रव रेलवे में नौकरी करते थे। सेवाभाव उनके मूल स्वाभाव में है। मुंबई से अपनी गृहस्थी उठाकर वे वलसाड चले गए और अपने मित्र के साथ वनौषधियों की खेती शुरू कर दी। उन्होंने सैकड़ों औषधीय पौधों को लाकर अपने उद्यान में लगाया। इस समय उनकी उम्र पचहत्तर वर्ष के आसपास है। लगभग बारह-तेरह वर्षों से वे इस कार्य में लगे हैं। आयु का तो उन्हें एहसास ही नहीं है। अपने काम में इस तरह से रमे हुए हैं कि कभी एकाकी जीवन का भाव मन में आया ही नहीं। बीच-बीच में मुंबई आकर अपने बच्चों से भेंट कर जाते हैं। बच्चे भी अवकाश के समय उनके पास चले जाते हैं। जीवन के ऐसे समय में, जबकि लोग अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं, शंकर चित्रव ने नए जीवन की शुरुआत की। उनका कार्य उन लोगों के लिए प्रेरणादायी है, जो यह मानकर बैठ जाते हैं कि वानप्रस्थी आयु में वे क्या कर सकते हैं? इन्हीं की भांति कल्याण के नरेंद्र पाटील ने इफको से अवकाश प्राप्त करके टिटवाला के समीप भूखंड खरीदा और जैविक खाद बनाने का काम शुरू किया। बिना हानि-लाभ के समीपवर्ती किसानों को जैविक खाद उपलब्ध कराने, उसका गुण और उपयोगिता समझाने तथा उसे स्वयं बनाने का तरीका सिखाने का काम अपनी वानप्रस्थी अवस्था में कर रहे हैं।

उमेश कुलकर्णी एक निजी कम्पनी से अवकाश लेकर हिंदू सेवा संघ, मामनोली की व्यवस्था देख रहे हैं। यह संस्था वनवासियों के स्वास्थ्य, शिक्षा के साथ उनके बीच हिंदू संस्कृति की रक्षा का कार्य करती है।

वानप्रस्थ जीवन व्यक्ति के द्वारा अर्जित अनुभव और ज्ञान के द्वारा समाज की सेवा करने के लिए होता है। गृहस्थ जीवन में अपने परिजनों के प्रति उत्तरदायित्वों को पूर्ण करके जीवन की सार्थकता को विस्तार देने का समय वानप्रस्थी जीवन होता है। कल्याण में एक वर्मा जी हैं। आध्यात्मिक प्रवृत्ति बचपन से है। नौकरी से रिटायर होने पर उन्होंने अपनी ही आयु के कुछ लोगों को साथ लेकर भजन मंडली बना ली है। हनुमान चालीसा, रामचरित मानस का पाठ, सुंदरकाण्ड, देवी गीत, आरती इत्यादि आस-पास के मंदिरों और श्रद्धालुओं के घरों में करते हैं। जिस तरह से समाज का हर अंग बदलाव का अनुभव कर रहा है, उसी प्रकार से वानप्रस्थी जीवन की भूमिका में भी बदलाव आ रहा है। परिवार में उनकी भूमिका घट रही है। जब हमारे मनीषियों ने चार आश्रम की व्यवस्था पर चिंतन किया होगा, तब उन्होंने इस जीवन को समाज और राष्ट्रकार्य के लिए ही निर्धारित किया होगा। गृहस्थ जीवन के दायित्वों को पूरा करने के उपरांत व्यक्ति के पास जो समय, ऊर्जा, कौशल और ज्ञान उपलब्ध होता है, वह राष्ट्रहित, समाजहित और मानवताहित में लगाना चाहिए। एक सुभाषित है, जिसका भावार्थ है कि कोई भी ऐसा अक्षर नहीं है जिससे किसी मंत्र की रचना न हो सकती हो, कोई ऐसी वनस्पति नहीं है जिसमें औषधीय गुण न हों, कोई ऐसा अन्न नहीं है जिसमें जीवनीशक्ति न हो, कोई ऐसा समय नहीं है जो शुभ न हो और कोई ऐसा मनुष्य नहीं है जिसमें कोई न कोई मानवीय गुण न हो। बस इन गुणों का संग्रह करके उसे सही उद्देश्य के साथ जोड़ने वाला ही दुर्लभ है। वानप्रस्थी व्यक्ति को यही जोड़ने वाला दुर्लभ व्यक्ति बनने की आवश्यकता है। जब हम ऐसा करने में जुट जायेंगे, हमारे ऋषि-मुनियों ने वानप्रस्थ जीवन की जो संकल्पना की थी, वर्तमान समय में वह नवीनताओं के साथ सार्थक सिद्ध होगी।

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