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किसका पलड़ा भारी?

किसका पलड़ा भारी?

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर-२०२२, राजनीति, विशेष
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गुजरात धीरे-धीरे चुनावी मोड में आ रहा है। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल पंजाब में जीत के बाद सातवें आसमान पर हैं लेकिन गुजरात की खासियत है कि वहां हमेशा से ही राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की बात को महत्व मिलता है। चाहे नेहरू-इंदिरा रहे हों या अटल-अडवाणी। इसलिए हर किसी को पता है कि अंत में किसका पलड़ा भारी रहने वाला है।

2017 में कांग्रेस के कई नेताओं को लगने लगा था कि कांग्रेस आएगी और हम भी आएंगे तो फलाना मुख्यमंत्री बनकर आएगा। मीडिया ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी को हाईलाइट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 2017 के चुनावों में भापजा को भले ही 99 सीटें मिली लेकिन जीत तो आखिर जीत होती है और 2019 के लोकसभा चुनाव में गुजरात ने 26 में से 26 सीटें भाजपा को दीं। यह तो बात हुई इतिहास की। लेकिन क्या 2022 में इसे दोहराया जाएगा?

2022 में विजय रूपाणी और नितिन पटेल सरकार के केंद्र में नहीं हैं, लेकिन उन्हें गुजरात बीजेपी संसदीय बोर्ड में जगह मिली है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से आम आदमी पार्टी ने गुजरात को हिला कर रख दिया है, उनका प्रचार अभियान बहुत अच्छा चल रहा है। राष्ट्रीय यूट्यूबर मीडिया, स्थानीय मीडिया के मुंह में एक बार फिर चर्चा है कि केजरीवाल मोदी को मोदी के प्रचार अभियान और आईटी सेल के हथियार से ही हराएंगे।

आम आदमी पार्टी के प्रचार अभियान में कई भ्रांतियां हैं। पहली भ्रांति यह है कि पहली बार त्रिस्तरीय युद्ध लड़ा जा रहा है जबकि इससे पहले कई चुनावों में तीन तरफा मुकाबला हुआ था। दूसरी बात यह है कि आप पहली बार पूरी तैयारी के साथ चुनाव लड़ रही है। यह अलग बात है कि वह इससे पहले 2014 और 2017 में चुनाव लड़ चुकी है और उनकी जमानत भी जब्त हो चुकी थी। तीसरी भ्रांति यह है कि जनता भाजपा-कांग्रेस से पीड़ित है। अगर आंकड़ों की बात करें तो गांधीनगर के नगर निकाय चुनाव में कांग्रेस को 27 फीसदी वोट मिले, जबकि सूरत के किले से छलांग लगा रही आप को मुश्किल से एक ही सीट मिली है। चौथी बात यह है कि विधायकों के मामले में तीसरी पार्टी एनसीपी और बीटीपी हैं, जिनमें से दो विधायक कई सालों से निर्वाचित हो रहे हैं।

आप का जोर कब से बढ़ा?

सूरत में मेट्रोपॉलिटन नगर पालिका में 27 उम्मीदवारों के जीतने और फिर पंजाब में उनके जीतने के बाद आप का मनोबल काफी हद तक बढ़ा। तब से अरविंद केजरीवाल-मनीष सिसोदिया आदि ने अपने गुजरात दौरे को आगे बढ़ाया। मीडिया में विज्ञापनों का अभियान चलाए। हर यात्रा पर मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, बेरोजगारी भत्ता, महिलाओं को भत्ते आदि वितरित किए जाने की रेवड़ियां बाटी जा रही हैं।

लेकिन जैसे-जैसे वह तेज होता गया, वैसे-वैसे उसके दिल्ली-पंजाब मॉडल की भी हवा निकलने लगी। सत्येंद्र जैन दिल्ली में हवाला घोटाले में पकड़े गए। उन लोगों ने कोरोना काल में शराब की छूट दी थी, उन सभी की शराब नीति योजना का खुलासा हुआ। इस बार उंगली सीधे मनीष सिसोदिया पर है। दिल्ली सरकार के पास कोरोना काल में सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नहीं थे। आप ने कोरोना काल में अधिक ऑक्सीजन की मांग कर गुजरात के साथ अन्याय किया, नर्मदा विरोधी मेघा पाटकर आप की नेता थीं और जिन्होंने 2014 में आप से लोकसभा चुनाव लड़ा। प्रशांत भूषण ने कश्मीर और नक्सली क्षेत्रों में जनमत संग्रह की मांग की जो नेता थे आप के, पंजाब में अभी कर्मचारियों का वेतन नहीं दिया गया, लेकिन पंजाब सरकार का विज्ञापन हर पंद्रह मिनट में गुजरात के टीवी चैनलों पर दिखाई दे रहा है। केजरीवाल का शासन दिल्ली के आधे पर्दे वाले राज्य में ही है, जिसके पास सिर्फ एक महापौर के समान अधिकार हैं, और एक उसे पंजाब मिला है बस। लेकिन उसकी पार्टी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा में जमीन खो चुकी है। इन सभी मुद्दों को भाजपा जोर-शोर से इस समय उठा रही है।

अब बात करते हैं कांग्रेस की। 2017 से कांग्रेस का पतन हो रहा है। वैसे तो 2012 से टूट रही हैं लेकिन अगस्त 2017 से चरम पर है। इसकी शुरुआत शंकरसिंह वाघेला, बलवंतसिंह राजपूत, तेजश्रीबेन पटेल आदि से हुई और आखिर में गुजरात युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विश्वनाथ सिंह वाघेला ने भी कांग्रेस छोड़ दी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी कई नेता जा चुके हैं लेकिन सबसे बड़ा झटका गुलाम नबी आजाद का लगा है, जिनके समर्थन में हजारों नेता-कार्यकर्ता कांग्रेस छोड़ चुके हैं।

हिमाचल प्रदेश में इसके अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और पंजाब में कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी पर खालिस्तान के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया है। लेकिन बीजेपी इस मुद्दे को गुजरात में उठाएगी और बीजेपी पर गुजरात चुनाव में खालिस्तान लाने का आरोप लगाया जाएगा। वास्तव में गुजराती हमेशा राष्ट्रीय मुद्दों और राष्ट्र की सुरक्षा के बारे में चिंतित रहते हैं। एक सीमावर्ती राज्य होने के नाते, गुजरात ने हमेशा कांग्रेस या भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी को एक स्थिर सरकार देने का प्रयास किया है। इसके अलावा गांधीजी हमेशा कांग्रेस के लिए एक मुद्दा रहे हैं। और अशोक गहलोत गुजरात आए और आम आदमी पार्टी पर आरोप लगाया कि जब वह पंजाब में सरकार में आए तो गांधीजी की तस्वीर कार्यालय से हटा दी गई, जो सच है।

जहां तक बीजेपी का सवाल है, गुजरात में उसके लिए पूरी सरकार बदल देना, अच्छे काम करने वाले दो मंत्रियों राजेंद्र त्रिवेदी, पूर्णेश मोदी के महत्व के विभागों का त्यागपत्र लेना,  प्रशासन में ढिलाई, अधिकारियों का राज, तथाकथित कोरोना की दूसरी लहर में अराजकता, लठ्ठा कांड, नशीली दवाओं का भंडाफोड़ आदि नकारात्मक मुद्दे हैं। लेकिन इसके विपरीत प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की लोकप्रियता, नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल की सादगी और वाकपटुता सकारात्मक बिंदु हैं। स्वास्थ्य मंत्री ऋषिकेश पटेल, अपने पूर्ववर्ती नितिन पटेल की तरह, हमेशा आंकड़ों से लैस रहते हैं और दूसरे विभाग पर भी अच्छा जवाब दे सकते हैं।

इसके खिलाफ गुजरात के विकास में मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का योगदान तो है ही, लेकिन मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद जो कुछ भी हासिल हुआ है वह बीजेपी के लिए फायदेमंद होगा। जिसमें 17 दिनों के भीतर नर्मदा बांध के गेट बंद करने की अनुमति, प्रधान मंत्री बनने पर कच्चे तेल की रॉयल्टी का मुद्दा, मां वात्सल्य कार्ड, जेनेरिक दवा भंडार के माध्यम से सस्ती दवा, अटल फुट ब्रिज, सोमनाथ और अम्बाजी का विकास, पावागढ़ महाकाली मंदिर पर सदियों बाद शिखर ध्वज फहराना, सौनी योजना से सौराष्ट्र के ऊंचे इलाकों में नर्मदा का पानी पहुंचाना, बनासकांठा दर्शन में वाघा बॉर्डर जैसी सीमा दर्शन, दुनिया का सबसे बड़ा मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम, महात्मा मंदिर, सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा, फॉरेंसिक यूनिवर्सिटी जैसे विश्वविद्यालय, बिरसा मुंडा विश्वविद्यालय, जामनगर में आयुर्वेद आदि वैकल्पिक और पारम्परिक चिकित्सा केंद्र, बुलेट ट्रेन परियोजना, अहमदाबाद में 128 ऑक्सीजन पार्क, साबरमती रीवर फ्रंट, दाहोद में रेलवे इंजन फैक्ट्री, वडोदरा में पहला रेलवे विश्वविद्यालय, नवसारी में न्यू गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, राजकोट में एम्स और ग्रीन एयरपोर्ट, कच्छ में भूकम्प पीड़ितों की याद में बनाए गए स्मृति वन, कच्छ में नर्मदा के पानी पहुंचने के लिए नहर… जैसी कई चीजें हैं।

चूंकि गुजरात राष्ट्रीय मुद्दों से जुड़ा हुआ है, अनुच्छेद 370, राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, राजपथ का कर्तव्य पथ, इलाहाबाद का प्रयागराज, पाकिस्तान के अवैध रूप से कब्जे वाले कश्मीर में की गई सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट हवाई हमला, भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना के बावजूद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना, पेट्रोल-डीजल गुजरात में राजस्थान से सस्ता आदि मुद्दे भी गुजरातियों को छूते हैं।

गुजराती राष्ट्रीय नेताओं को देखकर वोट देते हैं। पहले नेहरू-इंदिरा, मोरारजी-अटलजी और आडवाणीजी को देखकर वोट किया करते थे। अब, अगर आपको नरेंद्र मोदी-राहुल गांधी और केजरीवाल में से किसी एक को चुनना है, तो मोदी न केवल गुजरातियों के लिए, बल्कि भारत के लिए पहली पसंद हैं।

अभी तो मोदी और अमित शाह पूरी तरह से चुनावी मुड़ आये ही नहीं, लेकिन राहुल गांधी ने साबरमती रीवर फ्रंट पर सरदार की बात छेड़कर भाजपा को मुद्दा दे दिया है, ऐसा लगता है कि मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होने वाला है। देखते हैं, आगे क्या होता है।

                                                                                                                                                                                    – इलेवन ठाकर 

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