1991 का पूजा स्थल अधिनियम भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। यह मुस्लिमों के वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार देता है। इसके तहत यदि वक्फ बोर्ड किसी जमीन पर अनाधिकार कब्जा करता है तो उसके लिए उसे कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि पीड़ित पक्ष को साबित करना होता है कि वह सम्पत्ति उसकी है। इस तरह के एकतरफा कानून की समीक्षा होनी चाहिए।
अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की अपनी नीति के अंतर्गत अनेकों विभेद और विभाजनकारी कानून बनाए, लेकिन यह उपक्रम स्वतंत्रता के बाद भी समाप्त नहीं हुआ। 1991 में इसी प्रकार का एक कानून ‘पूजा स्थल अधिनियम’ तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा बनाया गया। इसके तहत एक समुदाय विशेष को तुष्ट करने की दिशा में हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन को अपने धर्म स्थलों को वापस पाने के विधिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इसके पश्चात 1995 में उसी कांग्रेस की सरकार ने उसी समुदाय विशेष को संतुष्ट करने के लिए ‘वक्फ एक्ट 1995’ पारित करके देश के अन्य समुदायों के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात करने का काम किया है। उपरोक्त वक्फ अधिनियम 1995 द्वारा वक्फ बोर्ड को जमीनों के अधिग्रहण के असीमित और निरंकुश अधिकार दिए गए, जिसके भयानक दुष्परिणाम अब निकलकर सामने आ रहे हैं।
हाल ही में यह कानून दो घटनाओं के कारण बड़ी चर्चा में आया। पहली घटना कर्नाटक की है, जहां गणेश चतुर्थी के समय एक सार्वजनिक मैदान को वक्फ सम्पत्ति बताकर उसपर गणेश प्रतिमा लगाने से रोक दिया गया। इसी प्रकार से दूसरा चर्चित प्रकरण तमिलनाडु का है, जहां एक हिंदू बाहुल्य गांव तिरुचेंथुरई को वक्फ बोर्ड ने अपनी सम्पत्ति घोषित कर रखा था, और यह मामला तब सामने आया जब हिंदू बाहुल्य इस गांव के एक शख्स ने अपनी जमीन बेचने की कोशिश की तो रजिस्ट्रार ऑफिस से पता चला कि तमिलनाडु वक्फ बोर्ड ने उसकी जमीन समेत पूरे गांव की जमीन पर अपना दावा किया हुआ है, जिसमें उस गांव में इस्लाम के अभ्युदय के पहले बना 1500 साल पुराना मंदिर भी है। अभी विवाद बढ़ जाने पर शायद वक्फ अपनी घोषणा से पीछे हट चुका है।
वक्फ को अल्लाह को दान की गई सम्पत्ति माना जाता है, जिसका इस्तेमाल मुस्लिम चैरिटी के लिए किया जाता है। किंतु अभी इसका अर्थ बदल चुका है। 1947 में जो मुस्लिम भारत में अपनी जमीनें छोड़कर पाकिस्तान गए थे, उनकी सम्पत्तियों का विवरण इकठ्ठा कर 1955 में वक्फ अधिनियम बनाकर वो सम्पत्तियां वक्फ को दे दी गई। 1954 का वक्फ बोर्ड एक्ट उतना कठोर नहीं था, लेकिन असली बदलाव 1995 के वक्फ अधिनियम में आया। इसके द्वारा वक्फ बोर्ड को जमीनों के अधिग्रहण के असीमित और निरंकुश अधिकार दे दिए गये।
वैसे तो वर्तमान वक्फ अधिनियम 1995 की धारा 3 (द) में वक्फ सम्पत्ति की जो परिभाषा बताई गई है उसके अनुसार अभी भी वक्फ का अर्थ किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे प्रायोजन के लिए जो मुस्लिम विधि द्वारा पवित्र, धार्मिक या पूर्त माना गया है, किसी जंगल या स्थावर सम्पत्ति का स्थाई समर्पण है, किन्तु वर्तमान अधिनियम की धारा 4 से 9 में वक्फ सम्पत्ति घोषित करने सम्बंधी जो प्रावधान बनाए गए हैं वह न केवल बड़े खतरनाक बल्कि प्राकृतिक न्याय और देश के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के एकदम विपरीत है।
धारा 4 से 6 में उल्लिखित प्रावधान वक्फ को अपनी सम्पत्ति के बारे में सर्वे करने और उन्हें घोषित करने का असीमित अधिकार प्रदान करते हैं। इन प्रावधानों के अनुसार वक्फ जब किसी जमीन पर दावा करता है, तो दावा सिद्ध करने की जिम्मेवारी बोर्ड की नहीं होती। खुद को सही सिद्ध करने की जिम्मेवारी पीड़ित की होती है। यही नहीं धारा-7 के अनुसार यदि किसी सम्पत्ति के बारे में यह विवाद होता है कि वह वक्फ सम्पत्ति है अथवा नहीं तो उसकी सुनवाई किसी सिविल कोर्ट में नहीं हो सकती। उसका विनिश्चय करने की शक्ति इस अधिनियम की धारा 83 के अंतर्गत गठित अधिकरण है। इस अधिकरण का आदेश ही अंतिम होगा, जिसे कहीं चुनौती नहीं दिया जा सकता। ये प्रावधान पक्षकारों को अपील, रिवीजन के अधिकार से भी वंचित करते हैं, जो भूमि और सम्पत्ति के अधिकारों से जुड़ी विधानों में लगभग अनिवार्य है। हालांकि इस प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट ने मई 2022 में यह कहते हुये कि कोई भी कोर्ट हमसे ऊपर नहीं है और हम किसी भी फैसले पर हस्तक्षेप कर सकते हैं, एक केस में रोक लगा दी है। वक्फ सम्पत्ति के मामलों में वक्फ ही दावाकर्ता, वक्फ ही वकील, वक्फ ही जज है, जो भी है सब कुछ वही है।
अधिनियम के धारा 8-9 के प्रावधान एक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 समता के अधिकार का उल्लंघन है। धारा 8 में वक्फ के सर्वेक्षण के समस्त खर्चे, जोकि विशुद्ध धार्मिक कार्य है, को राज्य सरकार द्वारा वहां करने की बात कही गई है। इसी प्रकार धारा 9 में ‘मुस्लिम वक्फ परिषद’ के गठन में भारत सरकार वक्फ विभाग के मंत्री को पदेन अध्यक्ष होने और अन्य क्षेत्रों से जुड़े विभिन मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार को दी गई है। दोनों प्रावधान संविधान से असंगत हैं। भारतीय संविधान किसी भी ऐसे कार्य की अनुमति नहीं देता है, जो धार्मिक हो और अन्य धर्मों के अधिकारों का अतिक्रमण करता हो। धारा 9 के प्रावधान तो प्रकारांतर से वक्फ बोर्ड के कार्य के लिए केंद्र सरकार में एक मंत्री अनिवार्य रूप किए जाने का उपबंध है।
अधिनियम की धारा 23 में वक्फ बोर्ड के प्रयोजनों के लिए एक मुख्य कार्यपालक अधिकारी की नियुक्ति की बात कही गई है, जो मुस्लिम ही होगा। धारा 25 से 29 में इसके कार्य और अधिकार बताएं गए हैं। धारा 26 से 29 तक में बोर्ड के कार्यपालक अधिकारी के जो अधिकार बताए गए हैं उनमें किसी भी सरकारी अभिलेखों का निरीक्षण करने और जिला मजिस्ट्रेट, अपर जिला मजिस्ट्रेट या उप-खंड मजिस्ट्रेट को निदेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है।
यह देश के लिए बहुत खतरनाक कानून है। संविधान के उपरोक्त प्रावधानों के होते हुये इस प्रकार से धार्मिक विभेदकारी कानून बनाया जा सकता है? क्या हिंदू या देश के अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों को इस प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं? यदि नहीं तो केवल मुस्लिमों के लिए ही क्यों? अगर किसी हिंदू, ईसाई या जैन की सम्पत्ति पर कोई दावा कार्य करता है तो उसे पाने या उसकी रक्षा के लिए सिविल कोर्ट जाना होता है फिर यह विशेषाधिकार एक समुदाय विशेष को ही क्यों? इस प्रकार का विभेदकारी कानून बनाने वाला शायद भारत ही एकलौता देश होगा। अगर यह कानून जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब पूरा देश वक्फ सम्पत्ति हो जाएगा।
सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता व उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने एक टीवी डिबेट में कहा कि 1991 में स्पेशल पूजा स्थल अधिनियम बना। इसके तहत हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन को कोर्ट जाने से रोक दिया गया। उन्होंने कहा कि 1992 में माइनॉरिटी कमीशन एक्ट बना। इसके तहत हिंदुओं को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बांट दिया गया। हिंदू बहुसंख्यक और जैन, बौद्ध, सिखों को अल्पसंख्यक बना दिया गया। 1995 में वक्फ एक्ट बनाया गया। उन्होंने वक्फ अधिनियम, 1995 को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी, जो अब उनके निवेदन पर ही माननीय उच्चतम न्यायालय जनहित याचिका के रूप में सुनवाई हेतु स्थानांतरित हो चुकी है। इस याचिका में उनके द्वारा कहा गया है कि हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों, सिखों और अन्य समुदायों के लिए वक्फ बोर्डों द्वारा जारी वक्फ की सूची में शामिल होने से उनकी सम्पत्तियों को बचाने के लिए कोई सुरक्षा नहीं है। इसलिए उनके साथ भेदभाव किया जाता है। यह अनुच्छेद 14-15 का उल्लंघन करता है। उन्होंने धारा 4, 5, 6, 7, 8, 9, 14 के अधिकार को चुनौती दी है। उनके अनुसार ये प्रावधानों वक्फ सम्पत्तियों को ट्रस्ट, मठों, अखाड़ों, समितियों को समान दर्जा देने से वंचित करने के लिए विशेष दर्जा प्रदान करते हैं। साथ ही किसी भी सम्पत्ति को वक्फ सम्पत्ति के रूप में रजिस्टर्ड करने के लिए वक्फ बोर्डों को बेलगाम शक्तियां प्रदान करते हैं।