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विजयादशमी शस्त्र पूजन की परम्परा

विजयादशमी शस्त्र पूजन की परम्परा

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर-२०२२, अध्यात्म, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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हमारे यहां शस्त्र पूजन की परम्परा सनातन काल से चली आ रही है परंतु स्वतंत्रता के बाद वामपंथियों ने इसे साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया और आम जन ने इससे दूरी बनानी शुरू कर दी, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लगातार अपनी सनातनी परम्पराओं के निर्वहन की कड़ी में इसे जोड़े रखा है। धीरे-धीरे लोगों के मन में पुनर्जागरण के तौर पर दशहरे पर शस्त्र पूजन के प्रति निष्ठा का भाव जाग्रत होता जा रहा है।

भारत महज एक भूमि का टुकड़ा भर नहीं। बल्कि यह एक जीती जागती संस्कृति है। जिसके रज में परम्पराएं और संस्कृति बसती हैं। मुगलों से लेकर फिरंगियों तक ने हमारी संस्कृति को मिटाने का अथक प्रयास किया। लेकिन किसी ने क्या खूब कहा है कि, ’कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़मां हमारा॥’ अमूमन देखने को मिलता है कि बाहरी आक्रमण से कई बार समूल देश तबाह हो जाते हैं, लेकिन एक अपना देश है जो तमाम आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी अपनी संस्कृति और संस्कार को जीवंत बनाए हुए है। इसके पीछे की वजह हमारे महान राजा-महाराजाओं की गौरव गाथाएं हैं, जिनके संघर्षों के आगे आक्रांताओं और फिरंगियों की एक न चली। इतिहास गवाह है कि कोई भी संघर्ष शस्त्र के बिना अधूरा है। यहां तक कि हम तो सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण को भी पूजते हैं, तो बंशीधर भगवान मोहन की भी पूजा करते है। कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि शस्त्रों के बिना हमारा कोई वजूद नहीं है। हमें तो आजादी भी हमारे देश के महान क्रांतिकारियों के लहू से मिली है। हमारे हिंदू धर्म में भी ऐसा कोई देवता नहीं है, जिनके हाथों में शस्त्र न हो। वही आध्यात्मिक गुरुओं और विशेषज्ञों की मानें तो यंत्रों और शस्त्रों की पूजा करने से तृप्ति की अनुभूति होती है। विशेषज्ञों के अनुसार, जब कोई व्यक्ति अपने पास मौजूद चीजों के प्रति श्रद्धा दिखाता है, तो यह उन्हें ब्रह्मांड के साथ सामंजस्य स्थापित करने में मदद करता है।

वर्तमान दौर में बढ़ते आतंकवाद और देश विरोधी गतिविधियों को देखते हुए शस्त्रों का हमारे जीवन में महत्व और आवश्यकता ज्यादा ही बढ़ गई है। ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत हैं। जिन देशों ने बड़े संघर्ष और युद्ध के बाद स्वतंत्रता प्राप्त की। वो देश कुछ सालों बाद शस्त्र को भूल गए और आज उनकी दयनीय स्थिति बनी हुई है। भारतीय परम्परा में शस्त्र पूजा का बहुत महत्व है। ये अलग बात है कि कुछ वामपंथी शिक्षाविदों ने विजयादशमी और नवरात्रि के बारे में एक अनावश्यक विवाद पैदा किया है कि दुर्गा एक आर्य देवता का प्रतिनिधित्व करती है जो द्रविड़ महिषासुर को मारती है और आयुध पूजा अर्थात शस्त्र पूजा को एक आर्यन बुराई बताते हैं।

गौरतलब हो कि सनातन परम्परा में शस्त्र और शास्त्र दोनों का बहुत महत्व है। शास्त्र की रक्षा और आत्मरक्षा के लिए धर्मसम्मत तरीके से शस्त्र का प्रयोग होता रहा है। प्राचीनकाल में क्षत्रिय शत्रुओं पर विजय की कामना लिए विजयादशमी के दिन का चुनाव युद्ध के लिए किया करते थे। हमारे देश में आज भी शस्त्र पूजन की परम्परा कायम है। देश की तमाम रियासतों और शासकीय शस्त्रागारों में आज भी शस्त्र पूजा को महत्व दिया जाता है। लेकिन वक्त के साथ यह परम्परा लुप्त होने की कगार पर है। आज देश में झूठी वामपंथी विचारधारा का बोलबाला है। जिसने हमारी परम्पराओं पर भी कुठराघात किया है। इसी का परिणाम है कि अब शस्त्र और शास्त्र पूजन को महत्व नहीं दिया जाता है। भारतीय स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने कहा था कि, “जिस देश की सीमा तलवार की नोक से और जवानों के लहू से बांधी जाती है, वो देश कभी कमजोर नहीं होता।” इसका सीधा मतलब है कि मुफ्त या बिना किसी संघर्ष के मिली हुई चीज का कोई मोल नहीं होता।

दशहरा कहें या विजयादशमी, दोनों का अर्थ एक ही है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह पर्व भगवान राम के चौदह साल बाद वनवास से लौटने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। अपने वनवास काल के दौरान भगवान राम ने रावण का वध किया था। लेकिन, समय के साथ-साथ विजयादशमी का महत्व और मान्यताएं दोनों बदलती गई। आश्विन माह की नवमी अर्थात नवरात्रि की समाप्ति के बाद विजयादशमी का यह पर्व मनाया जाता है। यह पर्व भगवान श्री राम की लंकापति रावण पर जीत का उत्सव तो है ही दूसरी ओर यह हमारी ऐतिहासिक परम्पराओं के निर्वहन का भी त्यौहार है।

विजयादशमी का पर्व हर साल धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन शस्त्र पूजन का विधान है। यह प्रथा बहुत पुरानी है। माना जाता है कि क्षत्रिय इस दिन शस्त्र पूजन करते हैं, और ब्राह्मण खास तौर पर शास्त्रों को पूजते हैं। यह रिवाज सनातन काल से ही चल रहा है। विजयादशमी का पर्व माता भवानी की दो सखियों जया-विजया के नाम पर मनाया जाता है। यह त्यौहार देश, कानून या अन्य किसी काम में शस्त्रों का इस्तेमाल करने वालों के लिए खास है।

वाल्मीकि रामायण में श्रीराम ने किष्किंधा (महाराष्ट्र) के ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास अनुष्ठान किया था। श्रीराम का यह अनुष्ठान आषाढ़ी पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन मास में शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि तक चला था। इसके ठीक तुरंत बाद विजयादशमी को श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण, वानरपति सुग्रीव और वीर हनुमान के साथ किष्किंधा से लंका की ओर प्रस्थान किया। पद्मपुराण के अनुसार श्रीराम का राक्षस रावण से युद्ध पौष शुक्ल द्वितीया से शुरू होकर चैत्र कृष्ण तृतीया तक चला। पौराणिक मान्यतानुसार चैत्र कृष्ण तृतीया को श्रीराम ने अधर्मी रावण का संहार किया था। इसके बाद अयोध्या लौट आने पर नव संवत्सर की प्रथम तिथि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ।

शिवाजी और राजा विक्रमादित्य करते थे शस्त्र पूजा

भारत की सभ्यता और संस्कृति शांति का संदेश देने वाली रही है, लेकिन जब-जब युद्ध की नौबत आई तो वीरता और शौर्य की मिसाल से भी हमारा धर्म और इतिहास भरा पड़ा है। कहा जाता है कि कभी युद्ध अनिवार्य हो जाए तो शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा करने की बजाय उस पर हमला करना कुशल रणनीति है। इसी के तहत भगवान राम ने भी विजयादशमी के दिन रावण से युद्ध के लिए लंका की ओर कूच किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने अस्त्र-शस्त्र की पूजा कर इसी दिन औरंगजेब के खिलाफ युद्ध का ऐलान किया था। राजा विक्रमादित्य भी इस दिन शस्त्रों की पूजा किया करते थे।

देवी पूजन के साथ शस्त्र पूजन

विजयादशमी के अवसर पर देवी पूजन के साथ शस्त्र पूजा की परम्परा बहुत पुरानी है। लेकिन यह शस्त्र पूजन दशहरा के दिन ही क्यों किया जाता है, इस बारे में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के मुताबिक, भगवान राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए नवरात्रि व्रत किया था, ताकि उनमें शक्ति की देवी दुर्गा जैसी शक्ति आ जाए अथवा दुर्गा उनकी विजय में सहायक बनें। दुर्गा शक्ति की देवी हैं और शक्ति प्राप्त करने के लिए शस्त्र भी जरूरी है। श्री राम ने दुर्गा शक्ति सहित शस्त्र पूजा करके शक्ति सम्पन्न होकर दशहरे के दिन ही रावण पर विजय प्राप्त की थी। यही कारण है कि नवरात्रि में शक्ति एवं शस्त्र पूजा की परम्परा है।

यह भी मान्यता है कि भगवान इंद्र ने दशहरे के दिन ही असुरों पर विजय पाई थी। महाभारत का युद्ध भी इसी दिन प्रारम्भ हुआ था तथा पांडव अपने अज्ञातवास के बाद इसी शुभ दिन पांचाल लौटे थे। वहां पर अर्जुन ने धनुर्विद्या की निपुणता के आधार पर, द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। ये सभी मान्यताएं शस्त्र पूजन की परम्परा से जुड़ी हैं। राजा विक्रमादित्य ने दशहरा के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना, पूजा की थी। यह भी मान्यता है कि छत्रपति शिवाजी ने भी इसी दिन देवी दुर्गा को प्रसन्न करके तलवार प्राप्त की थी। तभी से मराठा अपने शत्रु पर आक्रमण की शुरुआत दशहरे से करते थे। महाराष्ट्र में शस्त्र पूजा धूमधाम से होती है।

विजयादशमी यानी बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार। अधर्म पर धर्म की जीत का त्यौहार। इस त्यौहार पर शस्त्र पूजा का भी खास विधान है। यहां तक कि हमारी सेना में विजयादशमी के दिन शस्त्र पूजन की परम्परा है। यह मान्यता है कि विजयादशमी के दिन जो भी नया काम शुरू किया जाता है, उसमें निश्चित सफलता मिलती है। शस्त्र पूजन की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। 9 दिनों की शक्ति उपासना के बाद 10 वें दिन जीवन के हर क्षेत्र में विजय की कामना के साथ चंद्रिका का स्मरण करते हुए शस्त्रों का पूजन किया जाता है। विजयादशमी के शुभ अवसर पर शक्तिरूपा दुर्गा, काली की आराधना के साथ-साथ शस्त्र पूजा की परम्परा सदियों से चली आ रही है। पुलिस विभाग द्वारा भी अपने शस्त्रों का पूजन किया जाता है तो दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शस्त्र पूजन करता है। इस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी शस्त्र पूजने का उत्सव मनाता है और यह परम्परा कई बरसों से चली आ रही है।

संघ की स्थापना से जुड़ा ’शस्त्र पूजन’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में विजयादशमी यानी दशहरा के दिन हुई थी। संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को डॉ केशव हेडगेवार ने की थी। हेडगेवार ने अपने घर पर कुछ लोगों के साथ बातचीत करके संघ के गठन की योजना बनाई थी। यही कारण है कि संघ के सदस्य हवन में आहुति देकर विधि-विधान से शस्त्रों का पूजन करते हैं। संघ के स्थापना दिवस के दिन ’शस्त्र पूजन’ बहुत खास होता है। संघ की तरफ से ‘शस्त्र पूजन’ हर साल पूरे विधि विधान से किया जाता है। इस दौरान शस्त्रों पर जल छिड़ककर उसे पवित्र किया जाता है। महाकाली स्तोत्र का पाठ कर शस्त्रों पर कुमकुम, हल्दी का तिलक लगाते हैं। फूल चढ़ाकर धूप-दीप और मीठे का भोग लगाया जाता है। शस्त्रों का पूजन इस विश्वास के साथ किया जाता है, कि शस्त्र प्राणों की रक्षा करते हैं। विश्वास है कि शस्त्रों में विजया देवी का वास है। इसलिए विजयादशमी के दिन पूजन का महत्व बढ़ जाता है।

अंग्रेज राज का हथियार बंदी कानून

देश में ब्रिटिश राज के समय वायसराय लॉर्ड लिटन की अन्य दमनकारी नीतियों में एक भारतीय शस्त्र अधिनियम 1878 भी था। ब्रिटिश पार्लियामेंट में सन् 1878 को पारित 11वें अधिनियम के अनुसार किसी भी भारतीय नागरिक के लिए बिना लाइसेंस शस्त्र या आग्नेय हथियार रखना या उसका व्यापार करना, एक दंडनीय अपराध बना दिया गया था। इस अधिनियम को तोड़ने पर तीन साल तक की जेल या जुर्माना या फिर इनमें से दोनों का प्रावधान था। यदि इसे छुपाने की कोशिश की गई तो सात साल तक की जेल व जुर्माना या फिर इनमें से दोनों दंड दिए जा सकते थे। इसमें भी ब्रिटिश सरकार द्वारा भेदभाव किया जाता था। यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन और सरकार के विशेष अधिकारी इस अधिनियम की सीमा से मुक्त थे। इससे स्पष्ट हो गया था कि उस समय ब्रिटिश भारत में भारतीय लोग अविश्वसनीय थे। उन्हें अपनी ही सुरक्षा का भी कोई अधिकार नहीं था। अंग्रेजों ने बड़ी ही चालाकी से भारतीयों से शस्त्र छीन लिए ताकि अन्याय के खिलाफ आवाज न उठा सके। भारतीयों को कमजोर बनाकर उन पर राज करना ब्रिटिश सरकार के लिए बहुत आसान था।

राष्ट्र के लिए क्षात्र तेज

क्षत्रियों का शस्त्रों से पुराना नाता रहा है। दशहरे पर क्षत्रिय शस्त्र पूजन करते हैं। यह परम्परा युगों-युगों से चली आ रही है। सनातन धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रिय शस्त्रों से बुराई का अंत करते रहे हैं। शस्त्र  आम जन में सुरक्षा की भावना पैदा करता है। जब भी हमारे देश में लोगों पर किसी तरह की विपत्ति आई तो क्षत्रिय समाज जनता के प्राणों की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने से कभी पीछे नहीं हटा है। शस्त्रों को बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है। कहने को तो अब शस्त्र रखने की परम्परा कम हो रही है। पश्चिमी संस्कृति के मोहपाश में हम अपनी ही पुरातन परम्परा से दूर हो रहे हैं जो कहीं न कहीं आने वाले समय में हमारे पतन की वजह बनेगा। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि अहिंसा को सनातन परम्परा में इस तरह शामिल कर दिया गया कि सनातन समाज के अस्त्र शस्त्र चलाने को भी हिंसक समझा जाने लगा है। इसी का परिणाम है कि आज हिंदू  परिवारों में एक भी अस्त्र या शस्त्र मिलना कठिन है।

                                                                                                                                                                                             सोनम लववंशी 

 

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