भारत की अमूल्य सम्पदाएं मूर्तियों एवं कलाकृतियों के रूप में दुनियाभर के देशों खासकर इंग्लैंड के संग्रहालयों में बिखरी पड़ी हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से पिछले कुछ वर्षों में उनकी घर वापसी में तेजी आई है लेकिन अब समय आ गया है कि कोहिनूर समेत विश्व विख्यात वस्तुओं की वापसी के प्रति भी सकारात्मक रवैया अपनाया जाए।
पिछले साल सितम्बर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका के दौरे के बाद स्वदेश लौटते समय अपने साथ 157 प्राचीन कलाकृतियां और पुरातन वस्तुएं लेकर आए। इन कलाकृतियों में सांस्कृतिक पुरावशेष, हिंदू, बौद्ध, जैन धर्मों से सम्बंधित प्रतिमाएं वगैरह शामिल थीं, जिन्हें अमेरिका ने उन्हें सौंपा। इनमें 10वीं शताब्दी की डेढ़ मीटर की पत्थर पर नक्काशी से लेकर 12वीं शताब्दी की उत्कृष्ट 8.5 सेंटीमीटर ऊंची नटराज की कांस्य-प्रतिमा शामिल थी।
एक मोटा अनुमान है कि भारत की लाखों वस्तुएं अलग-अलग देशों में मौजूद हैं। इनमें बड़ी संख्या में छोटी-मोटी चीजें हैं, पर ऐसी वस्तुओं की संख्या भी हजारों में है, जो सैकड़ों-हजारों साल पुरानी हैं। इन्हें आक्रमणकारियों ने लूटा, चोरी करके या तस्करी के सहारे बाहर ले जाया गया। अब भारत सरकार अपनी इस सम्पदा को वापस, लाने के लिए प्रयत्नशील है।
यह केवल भारत की सम्पदा से जुड़ा मामला नहीं है। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की इस लूट का प्रतिकार उन सभी देशों की पुरा-सम्पदा की वापसी से जुड़ा है, जिन्हें अतीत में लूटा गया। पर यह लूट सबसे ज्यादा भारत में हुई है। दुनिया के काफी देश अब इन्हें वापस करने को तैयार भी हैं, पर कुछ देशों में अब भी हिचक है। मसलन ब्रिटेन में एक तबके का कहना है कि हम सब लौटा देंगे, तो हमारे संग्रहालय खाली हो जाएंगे।
हमारा दायित्व
पीएम मोदी ने गत 27 फरवरी को ‘मन की बात’ में देश की प्राचीन मूर्तियों का जिक्र किया था। उन्होंने कहा कि देश में एक-से-बढ़कर एक कलाकृतियां बनती रहीं। इनके पीछे श्रद्धा थी, सामर्थ्य और कौशल भी था। इन प्रतिमाओं को वापस लाना, भारत मां के प्रति हमारा दायित्व है। मोदी सरकार आने के बाद से यह प्रक्रिया तेज हुई है। 2015 में जर्मनी की तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल भारत आईं, तो उन्होंने दसवीं सदी की मां दुर्गा के महिषासुर मर्दनी अवतार वाली प्रतिमा लौटाने की घोषणा की थी। यह प्रतिमा जम्मू-कश्मीर के पुलवामा से 1990 के दशक में गायब हो गई थी। बाद में यह जर्मनी के स्टटगार्ट के लिंडन म्यूजियम में पाई गई।
तत्कालीन संस्कृति तथा पर्यटन राज्यमंत्री प्रह्लाद पटेल ने राज्यसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में बताया था कि पिछले पांच वर्षों में 36 प्राचीन प्रतिमाएं तथा पुरावस्तुएं अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूके से प्राप्त हुई हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग इस दिशा में कार्य कर रहा है।
संस्कृति मंत्रालय के अनुसार पिछले साल अक्टूबर तक मोदी सरकार सात साल में 198 ऐसी वस्तुओं को भारत लाने में सफल हुई थी, जबकि 1976 से 2014 तक कुल 13 कलाकृतियां तथा पुरावस्तुएं भारत लाई गई थीं। अब सरकार सौ से ऊपर ऐसी पुरावस्तुओं की वापसी के लिए दुनिया के देशों के साथ बातचीत कर रही थी। इन देशों में कनाडा, स्विट्जरलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और नीदरलैंड्स शामिल हैं। कुछ महीने पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया को 29 पुरावस्तुओं की वापसी के लिए धन्यवाद दिया है।
ग्लासगो संग्रहालय
इसी साल अगस्त की खबर है कि भारत से चोरी करके लाई ऐतिहासिक महत्व की सात कलाकृतियां लौटाने को ब्रिटेन राज़ी हो गया है। ये कलाकृतियां ग्लासगो के संग्रहालयों में रखी हुई हैं। भारतीय उच्चायोग के एक दल की ओर से केलविनग्रोव आर्ट गैलरी एंड म्यूजियम के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद इन कलाकृतियों के भारत आने का रास्ता साफ हो गया है। ब्रिटेन से कलाकृतियों के भारत आने का यह पहला मामला होगा। उम्मीद जताई जा रही है कि इसके बाद भारत से चुराकर ब्रिटेन ले जाई गई और भी कलाकृतियां भारत लाई जा सकती हैं।
सांस्कृतिक-विरासत को वापस लाने की इस मुहिम के महत्व को समझने की जरूरत है। जब हम कमजोर हुए, तब लुटेरे हमारी संस्कृति तक को लूट ले गए। आज हम उन्हें वापस लाना चाहते हैं। हालांकि इन वस्तुओं को देश में लाने की बातें सत्तर के दशक से हो रही हैं, पर पिछले कुछ वर्षों से मोदी सरकार ने कलाकृतियों को विदेशों से वापस लाने की मुहिम को महत्व दिया है।
यूनेस्को के प्रयास
सन 1970 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष सम्मेलन में 100 से ज्यादा देशों ने एक संधि की, जिसमें सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण कलाकृतियों और वस्तुओं की तस्करी पर रोक लगाने की घोषणा की गई थी। इतना ही नहीं उन वस्तुओं को उन देशों को वापस करने का समझौता भी हुआ था, जहां से उन्हें चुराया या लूटा गया था। यूनेस्को-संधि में चोरी गई वस्तुओं को जब्त करने की बात भी कही गई थी। इसके लिए पर्याप्त दस्तावेजी प्रमाणों की जरूरत भी होती है।
इसके बाद 1978 की यूनेस्को संधि में दुनिया के देशों के बीच इन वस्तुओं की वापसी तथा आदान-प्रदान की व्यवस्था की गई। 1995 की यूनिड्रॉइट संधि में अवैध रूप से हासिल की गई वस्तुओं की वापसी की व्यवस्था की गई।
ब्रिटिश कब्जे में
भारत की सांस्कृतिक-सम्पदा को लूटने का काम सैकड़ों वर्ष से होता रहा है, पर अंग्रेजी शासन में यह काम खुलकर और काफी बड़े स्तर पर हुआ। सबसे बड़ा प्रतीक है कोहिनूर हीरा। ग्लासगो के संग्रहालय से जिन वस्तुओं को भारत लाने का समझौता हुआ है, उनके अलावा भी बहुत सी वस्तुएं ब्रिटेन में हैं। इनमें एक है गौतम बुद्ध की साढ़े सात फुट ऊंची प्रतिमा जो पिछले डेढ़ सौ सालों से इंग्लैंड के बर्मिंघम म्यूजियम में रखी है। विडम्बना है कि अब इसे ‘बर्मिंघम बुद्धा’ का नाम दे दिया गया है।
क्या कोहिनूर की वापसी होगी?
क्या भारत को कभी कोहिनूर हीरा वापस मिल पाएगा? यकीनन जब हम कोहिनूर को हासिल कर लेंगे, वह दिन भारत के गौरव की पुनर्स्थापना का दिन होगा। पर उसके लिए हमें राजनयिक और सांस्कृतिक स्तर पर काफी प्रयास करने होंगे। कोहिनूर दुनिया का सबसे मशहूर हीरा है। यह आंध्र प्रदेश के गोलकुंडा की खान से निकला था। मूल रूप में यह 793 कैरेट का था। अब यह 105.6 कैरेट का रह गया है जिसका वजन 21.6 ग्राम है।
13वीं शताब्दी में खोजा गया यह कीमती रत्न अंग्रेजों ने 1850 में पंजाब के महाराजा दिलीप सिंह से हासिल किया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1953 में भारत ने कोहिनूर की वापसी की मांग की थी, जिसे इंग्लैंड ने अस्वीकार कर दिया था। अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘कोहिनूर’ हीरा वापस लाने के लिए न्यायिक दखल की मांग करने वाली सुधारात्मक याचिका खारिज कर दी थी। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय पीठ ने 21 अप्रैल, 2017 के अपने उस आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि हीरा भारत लाने या विदेशी सरकार को उसकी नीलामी रोकने का आदेश अदालत नहीं दे सकती।
उस वक्त केंद्र सरकार ने कहा था कि यूके से कोहिनूर भारत लाने के लिए सरकार प्रयासरत है। राजनयिक प्रक्रियाओं के तहत ही कोहिनूर को वापस लाया जा सकता है। जब तक यूके भारत के दावे को स्वीकार नहीं करता, हीरा वापस नहीं लाया जा सकता। केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत को यह भी बताया था कि ब्रिटिश शासकों द्वारा कोहिनूर जबरन या चुराकर नहीं ले जाया गया, बल्कि पंजाब के शासकों ने उन्हें दिया था।