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विज्ञान पर भारी भारतीय जुगाड़

विज्ञान पर भारी भारतीय जुगाड़

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर-२०२२, तकनीक, विशेष, सामाजिक
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भारतीय जनमानस के लिए जुगाड़ एक शब्द मात्र ही नहीं जीवन को आसान बनाने का सरलतम उपाय है परंतु सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसे मान्यता नहीं मिलती, जिस कारण यह प्रतिभा बहुत जल्दी अपना दम तोड़ देती है। आवश्यक है कि लोगों को तकनीकी तौर पर मजबूत बनाने के प्रयास किए जाएं, ताकि कम खर्चे में होने वाले ये प्रयोग व्यापक आधार पा सकें।

जुगाड़ एक हिंदी शब्द जिसका अर्थ है एक अस्थायी समाधान या एक रचनात्मक सुधार। जुगाड़ वह विज्ञान, कला और दर्शन है जो भारत को गुदगुदी करता है। जुगाड़ तकनीक भारत में बहुत ही प्रचलित है, संसाधनों की कमी के बीच से जुगाड़ तकनीक का जन्म होता है। भारत की यह जुगाड़ तकनीक पूरे विश्व में प्रचलित है।

हमारे देश में अनेक लोगों ने साधनहीनता के चलते या फिर अपने जुनून के बल पर ऐसे अनेक उपकरण तैयार किए हैं, जिनका उपयोग बड़े पैमाने पर होता है और वे किसी भी नामी कम्पनी द्वारा तैयार किए गए उपकरणों की तुलना में सस्ते पड़ते हैं। इन्हें दुनिया भर में जुगाड़ तकनीक के नाम से जाना जाता है। भारत के कुछ जुगाड़ तो वैज्ञानिकों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। सोशल मीडिया के इस जमाने में हर दूसरे दिन किसी न किसी ग्रुप में अनोखे जुगाड़ों की जानकारियां लोगों के पास आती रहती है। ये सारे जुगाड़ बेहद कम कीमत पर तैयार होते हैं और ऐसे-ऐसे कामों को आसान बना देते हैं, जिनके बारे में पहले कभी शायद सोचा तक न गया हो। महंगे यंत्रों/उपकरणों के विकल्प के तौर पर ऐसे जुगाड़ को लोग हाथों-हाथ लेने लगे हैं। हाल के वर्षों में इनमें से कुछ तो सोशल मीडिया की बदौलत पूरे देश में चर्चित भी रहे। खासकर खेती-किसानी से जुड़े कामकाज के जुगाड़ हर मौसम में वाट्सऐप पर छाए रहते हैं। इसी कड़ी में कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत है:-

  1. एक किसान जोे दलहन-तिलहन और सब्जी की खेती करता था। रात में जानवरों से फसल को बचाए रखने के लिए उन्हें रतजगा करना पड़ता था। दिक्कत ये थी कि कई बार नींद लग जाती थी और जानवर सब्जियों की फसल चट कर जाते थे।एक रात जब वह रखवाली करते हुए वह सो गया तो जानवरों ने सब्जियों को काफी नुकसान पहुंचाया। नींद खुलने के बाद वह निराश हुआ लेकिन ठान लिया कि कोई स्थायी उपाय खोजना होगा। घर पर लेटे-लेटे भी वह यही सोचता रहा कि ऐसा क्या किया जाए इस प्रॉब्लम से निजात मिले। तभी उसकी नजर सीलिंग पंखे पर गई। इसके बाद तो मानो उसके वैज्ञानिक दिमाग की बत्ती जल उठी। उसने घर का पंखा खोला। उसकी पंखुड़ियों को अलग किया। घर में रखे तेल के खाली पीपे निकाले। बाड़ी में रखा बांस उठाया और खेत पहुंच गया। पंखुड़ियों से एक छोटी सी लोहे की पतली छड़ जोड़ी। बिजली कनेक्शन से पंखे की मोटर तक वायरिंग की और दबा दिया बटन। पतला छड़ घ्ाूमते होते हुए खाली पीपे से टकराने लगा और इससे आवाज आने लगी। रात में इसे चालू कर दिया और खुद घर पहुंच चैन की नींद लेने लगा। सुबह बड़ी उत्सुकता के साथ खेतों का रूख किया। फसल को सही-सलामत देख कभी खुद पर गर्व करता तो कभी अपने आविष्कार पर खुश होता।

2़. बिजली के खम्भे पर चढ़ने के लिए जहां भारी-भरकम क्रेन बुलाने आवश्यकता होती थी, वहां एक बिजली मिस्त्री ने एक ऐसा चप्पल बना डाला जिसकी सहायता से वह पलक झपकते बिजली के खम्भे पर चढ़ सकता है।

  1. एक कॉफी बेचने वाले ने प्रेशर कुकर की मदद से काफी बनाने की मशीन बना डाली। क्योंकि उसके पास कॉफी बनाने की महंगी मशीन खरीदने की क्षमता नहीं थी। आज इस जुगाड़ तकनीक से कई लोगों को रोजगार मिल रहा है।
  2. पुरानी मोटर साईकिल को तिपहिया वाहन में परिणत करके इसका प्रयोग माल ढोने में किया जा रहा है। स्थानीय लोग इसे जुगाड़ गाड़ी कहते हैं। इस तरह की जुगाड़ गाड़ियां अब काफी प्रचलन में आ चुकी हैं।

जुगाड़ ने निश्चित रूप से वैज्ञानिकों को भी चकित किया है। हाल के वर्षों में, इसे प्रबंधन विशेषज्ञों और शिक्षाविदों के साथ ‘मितव्ययी नवाचार’ के नए विज्ञान के रूप में उन्नत किया गया है, जो उन समस्याओं के समाधान खोजने के भारत के जुगाड़ तरीके की प्रशंसा करते हैं जिन्हें उद्यम सम्बोधित करने में असमर्थ हैं। इसके बारे में किताबें लिखी गई हैं और कुछ शिक्षाविदों ने कहा है कि, ‘जुगाड़ न केवल भारत की प्रमुख समस्याओं को हल करने का एक शक्तिशाली तरीका प्रदान करता है बल्कि दुनिया की भी। जाहिर है, इसे ‘दुनिया में भारत के अद्वितीय और स्थायी योगदान के रूप में देखा जाएगा।’ टाटा मोटर्स द्वारा विकसित कम लागत वाली नैनो कार इसका नायाब उदाहरण रहा।

जुगाड़ विशुद्ध ग्रामीण एवं भारतीय नवाचार है। यह भारत की देशी शब्दावली है जो उत्तरी भारत में बीसवीं सदी के सत्तर के दशक में डीजल पम्पसैट पर स्टीयरिंग, ब्रेक तथा चार पहिए लगाकर मोटर वाहन का रूप देने की देशी तकनीक से लोकप्रिय हुई। कालांतर में अनेक ऐसे प्रयास हुए जिनसे ‘जुगाड़ तकनीक’ चर्चा में बनी रही, जैसे – साइकिल की रिम से टेलीविजन का एंटीना बनाया गया; बांस से बने नकली दांत (असम के दोधी पाठक द्वारा); न्यूट्रल मोड में आते ही वाहन का स्वत: रुक जाना (छत्तीसगढ़ के तुकाराम वर्मा द्वारा); नि:शक्तजनों हेतु कार (पैरों से नि:शक्त मुजीब खान द्वारा)। इसके अतिरिक्त पुराने सेल, सोडा, सर्फ, यूरिया तथा गोबर से बिजली उत्पादन तथा आराम एवं व्यायाम दोनों के लिए मारुति झूला जुगाड़ प्रौद्योगिकी के सशक्त उदाहरण हैं। जयपुर के रामचन्द्र वर्मा एवं डॉ.पी.के. सेठी द्वारा सन 1968 में रबड़ तथा मेटल शीट से ईजाद किया गया जयपुर फुट भी इसी श्रेणी में रखा जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि इन वैकल्पिक चीजों का तोड़ विज्ञान भी अब तक नहीं ढूंढ पाया है।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के बिजनेस स्कूल से आए जयदीप प्रभ्ाु ने जुगाड़ पर एक किताब लिखी है। इस बारे में उनका मानना है कि विफलता ही सफलता का पहला कदम है। विफलता एक किस्म की बेचैनी पैदा करती है, जिसमें कुछ लोगों की स्वाभाविक प्रतिभा समस्या का समाधान खोजने में लग जाती है। यह समाधान कैसे होगा, कौन से ऐसे संसाधन इसके लिए जरूरी होंगे, जो आसानी से और सस्ते में मिल जाएं- यह खोजबीन ही हमें या तो किसी नए आविष्कार या फिर किसी नवाचार की तरफ ले जाती है। जुगाड़ की प्रेरणा किसी व्यक्ति के खुद के अंदर से आती है। कोई दूसरा आपको इसके लिए प्रेरित नहीं कर सकता। परिवेश में व्याप्त समस्याएं हमें नई चीजें बनाने की चुनौती देेती हैं। जुगाड़ बनाने वाले उत्साही व्यक्ति इस कोशिश में जुटे रहते हैं कि कैसे कोई नई चीज बनाएं।

जुगाड़ के सहारे कम पढ़े लिखे लोगों ने कई असम्भव से प्रतीत होनेवाले कार्यों को कर दिखाया है। जुगाड़, विज्ञान पर भारी पड़ता हुआ प्रतीत हो रहा है। हालांकि जुगाड़बाजों की भरमार देखकर हमारा देश जुगाड़-नेशन कहलाने का हकदार हो सकता है, पर यह देखना तकलीफदेह है कि अब भी नया खोजने वालों की देश में ज्यादा कद्र नहीं है। भारत में करीब 90 फीसदी स्टार्टअप कामकाज शुरू होने के पांच वर्षों के दौरान ही असफल हो जाते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि वे नवाचार की अहमियत को नकारते रहे हैं। अत: यह आवश्यक है कि स्टार्टअप नवाचार के महत्त्व को पहचानें और अपने काम-काज में इनका प्रमुखता से उपयोग करें। वैसे तो ऐसे नवाचारी प्रयासों को मंच प्रदान करने के लिए स्टार्टअप और स्किल इंडिया जैसी योजनाएं देश में चल रही हैं और कुछ गैर-सरकारी संगठन ऐसे कामों में मददगार साबित होते हैं, पर कोई ऐसा पुख्ता मंच दिखाई नहीं देता, जहां पहुंच कर किसान, धोबी, स्कूटर-साइकिल में पंचर लगाने वाला, इलेक्ट्रिशियन जैसे कम पढ़े लिखे लोग भी अपने जुगाड़ की कहानी बताएं और उसे बड़े पैमाने पर बनाने-बेचने का जरिया पा जाएं।

                              रवि रोशन 

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