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अपनी दहलीज

अपनी दहलीज

by हिंदी विवेक
in कहानी, विशेष, सांस्कुतिक भारत दीपावली विशेषांक नवंबर-2022
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घास पर पीली सी पड़ी धोती और गाढ़े की कुुर्ती पहने बाऊ को हुक्का गुड़गुड़ाते देख शंकर की आंखें सिकुड़ उठी। वहीं उंकड़ू बैठ कर गांव के तरीके से यहां भी हुक्का गुड़गुड़ाना, जरा भी पोजीशन का ख्याल नहीं। साथ में आए व्यक्तियों की बातों का हां हूं में जबाब देते उन्हें सीधे ड्राइंग रूम में ले गया। उन लोगों के जाने के बाद सीधा शंकर बाऊ के पास आया था।

‘बाऊ मैंने कितनी बार कहा है कि आपको यदि इस तरह बैठना हो तो पीछे बरामदे में बैठा कीजिए। आने-जाने वाले क्या सोचते हैं?

बाऊ हकबका उठे, ‘वो इधर धूप थी इसलिए।’

शंकर बड़ा अफसर हो गया था, लेकिन बाऊ अपनी ग्रामीण सभ्यता से नहीं उभर पाए थे, रहते भी गांव में आ रहे थे। पर बड़ी जमीन में से एक टुकड़ा शंकर की पढ़ाई में चला गया था। एक टुकड़े को अधबटाई पर दे बाऊ और अम्मा दो महीने पहले शहर में आए थे।

बाऊ ने हुक्का उठाया और कोठी के पिछवाड़े बने आंगन में चले गए। अम्मा वहां बैठी नीबू के आचार के लिए नीबू काट रही थीं। बाऊ को देख बोली “हरी मिर्च का अचार भी डाल देती, निम्मो को अच्छा लगता है। कहती है अम्मा हरी मिर्च नीबू का अचार जरूर भेजना।”

‘बहू से कह दो आधा किलो मिर्च मंगवा देगी।’

‘कह तो दिया’ यह कहकर नीबू का मसाला बनाने उठी तो कमरदर्द से कराह उठी। ‘इधर फिर सर्दी में तुम्हारा दर्द उखड़ आया है।’ बाऊ ने चिलम की आग कुरेदते हुए कहा।

‘हां, गांव से तेल ले आती तो अच्छा रहता, अब क्या करूं?’

‘शंकर आएगों कहूं उससे?’

“ ना! सारे दिन को थको हारो आए फिर जा दर्द कूं लैके रोऊं, अच्छौ ना लगे। फिर इधर कुछ सील ज्यादा है। सोचूं कल से खटिया दुपहर आगे डलवा लियौ करूं।” बाऊ एकदम ना ना कर उठे। अभी केवल बैठने से ही जब शंकर गुस्सा हो गया था, तब अम्मा को खाट पर पसरा देखेगा तो उसको बहुत बुरा लगेगा। आखिर बड़ा अफसर है, सब शहर के बड़े लोग ही मिलने आते हैं।

“ना-ना सब आएं-जाएं अच्छा ना लगेगो, अपनो शंकर बड़ा अफसर है, बड़े-बड़े आदमी आएं-जाएं हैं।”

“तो का घर वाले धूप में ना बैठे का?” अम्मा की समझ में बात नहीं आई।

“ना ना मैंने कह दई ना।” बाऊ के आगे कुछ देर पहले का चित्र खिंच गया।

एकाएक बाऊ को अपने कान में पड़े शब्द का ध्यान आया। उन्होंने शंकर को कहते सुना था कि शाम को पार्टी में जरूर आएं।

“आज शाम कछू है का?”

“का मतलब? मोए ना मालुम कछु है का?” मसाला मिलाती अम्मा एकदम रुक गई।

“बऊ ने कछु जिकर ना कियो का?” उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था, घर में पार्टी हो और उन्हें शंकर ने बताया भी नहीं। अम्मा से भी नहीं कहा।

“वाको बैठवो का होवे है मोसे कछु ना कही है।” उनकी आंखों में जरा सा क्रोध उभरा।

मक्खनपुर है ही कितना बड़ा, छोटा सा गांव है, पर बाऊ का सौदा खरीदने आगरा आना जाना होता था। दसियों बार बड़े दफ्तरों में जाना पड़ता तो जब बड़े बाबू को देखते तो मन में यही आता कि वे अपने बेटे शंकर को बडा बाबू बनाएंगे। खेती किसानी में क्या रखा है। सारे गांव वाले उसको झुक कर नमस्ते करेंगे। पर शंकर तो और बड़ा साहब बन कर निकला। किसी कम्पनी का जीएम बन गया। गाड़ी बंगला सब कुछ कम्पनी ने दिया और दिल्ली जैसा बड़ा शहर।

लल्ला का ब्याह करने के मामले में भी फिसड्डी रह गए, उनके द्वारा आए रिश्ते तो शंकर ने एक तरफ खिसका दिए, “बाऊ! समझा करो, इन लड़कियों को लेकर कैसे मैं कॉप कर पाउंगा?”

“कॉप का?” बाऊ मुंह खोले उसकी ओर देखते रह गए।

“समाज में कैसे उठ-बैठ पाउंगा? आप चिंता मत करो मेरे ब्याह की।” फिर सीधे शंकर ने उन्हें ब्याह में ही बुलाया था, मेहमान की तरह। उनके लिए शंकर ने अचकन और चूड़ीदार पाजामा बनवाया। अम्मा के लिए चौड़े बार्डर की सिल्क की साड़ी लाया था। दोनों के नाप पहले ही ले गया था, “अम्मा नाप का ब्लाउज दो, शहर में ही सिल जायगा,” कहकर।

बाऊ परेशान थे। बिना रिश्तेदारों को बुलाए, बिना भैन-भांजियों को बुलाए, ‘लल्ला कौ ब्याह’ उनके गले नहीं उतर रहा था।

हल्लो चाचा की दोनों छोरी, बड़े दद्दा कौ और सगन चाचा कू तौ बुलाइलै। जग्गू को मौड़ा, सबन्ने जरा-जरा से कारज में हमें बुलायो है, इन्हें तौ कही दऊं। मक्खनपुर गांव का हर घर उनका अपना था अपने रिश्तेदार थे। पेट से ना हों पर सबको फरक कर ही नहीं पा रहे थे। उन्होंने तो सोचा था पांचों गांवों का न्यौता करेंगे। खीर-पूरी, मालपुए और कई चीजें दिमाग में थीं, पर यहां तो लल्ला गांव में आनो ही नहीं चाह रहा था।

“निम्मो और दामाद जी वाके ससुराल वालन कू तो खबर कर दे” खिसियाए बाऊ ने कहा।

“हां निम्मो और जीजाजी तौ आएंगे” शंकर ने कहा।

पर कुछ बुलावे के ढंग से कि उसके सास-ससुर से, नंद-देवर से, किसी से नहीं कहा कुछ। पूरा समय चल रहा था, ‘निम्मो नहीं आई।’ हां! इकलौते भाई की शादी में न आने के दु्ःख के कारण जब शंकर के फेरे पड़ रहे थे, वो अपने घर में कोठरी में घुसी जार-जार रो रही थी।

होटल की चकाचैंध में हकबकाए से दोनों बैठे रहे थे। बस लल्ला के घर में ही बहू की आरती उतारने का काम जरूर किया था। वहां सब लल्ला के ऑफिस के ही लोग थे। बाकी वो दो दिन मेहमान बन कर वापस आ गईं थीं। खाली हाथ और खाली मन किसी को दो लड्डू भी न खिला सकने का दुःख लिए।

“अच्छा अभी आऊं।” बाऊ ने जूते पैरों में डाले और सड़क की तरफ चल दिए। शुरू-शुरू में आए थे सोचा था बाल बच्चों में दिल बहला रहेगा, परन्तु पिंकी-निकी सुबह ही चले जाते। स्कूल से आते, काम करते और खेलने चले जाते थे। गांव से बाऊ-अम्मा आए थे तो अपने साथ तिल के कड़ू, गुड़ की भेली, रामदाने के लडडू आदि लाए थे। जब एक-एक कर अम्मा ने पोटलियां खोलकर बहू के सामने रखीं तो सीमा एकदम से बोली थी “यह सब कौन खाएगा? आप ही रख लीजिए। आया वगैरह को दे दीजिएगा।” अम्मा खिसिया गई थीं। सब पोटलियां बाधंकर उनके सामान के साथ पीछे ही आ गई थी। बहुत छिपाकर ही अम्मा ने रामदाने का एक-एक लड्डू दोनों बच्चों को दिया था। पिंकी- निकी प्रसन्न हो उठे थे।

“अम्मा! ये तो बहुत अच्छे हैं।” कई दिन तक छिपा कर वे अम्मा से लेकर लड्डू खाती रही थीं। उन्हें खाते देख अम्मा की आत्मा तृप्त सी हो जाती थी। उस दिन के बाद उनकी हिम्मत नहीं होती कि शंकर को भी दे दे। शंकर एकाएक न जाने कैसा पराया सा लगने लगा कि वो उससे चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती थी।

बावर्ची को देखते ही अम्मा का माथा ठनका था। “बहू यह कौन जात है, मुसलमान है?” सीमा का चेहरा उन्हें देखते ही जो सख्त हुआ था, सख्त ही बना रहा। “बहू! मुसलमान के हाथ का खाते हो तुम लोग?” अभी अम्मा वाक्य पूरा भी नहीं कर पाईं थीं कि सीमा की आवाज टकराईं, “मैं अपनी गृहस्थी में किसी का भी दखल पसंद नहीं करूंगी।” यह कहकर सीमा खटाक से अंदर चली गई थी और अम्मा के हलक में ‘अपनी गृहस्थी’ शब्द अटक कर रह गए थे। उनकी अपनी गृहस्थी कहां है? वे सोचती थीं, मेरा घर है, मेरा बेटा, मेरी बहू, मेरे नाती-नातिन, यह सब कुछ मेरा है, मेरी गृहस्थी है, पर उन्हें एकदम से एहसास हुआ कि वे इस घर में मेहमान हैं। यह गृहस्थी बहू की है और पीछे के बरामदे में उन्होंने गृहस्थी जमायी थी। बाऊ अम्मा को देखकर शंकर खुश हुआ था।

“बाऊ किसी बात की तकलीफ मत पाना।” बाऊ के पास बैठ शंकर ने कहा तो बाऊ गदगद हो उठे। “नहीं बेटा, अपना घर है तकलीफ काहे की।” “हां जो भी चाहिए सीमा से कह देना। और गांव में सब ठीक? जमीन किसे दी है?” “जमीन पर बेटा गिरधारी खेती करेगा।” “ठीक है।” कह शंकर उठ गया। अम्मा बिटर-बिटर ताकती ही रह गईं। मुंह में शब्द आते और लौट जाते, बेटे से क्या बात करूं?

बरामदे के बाद छोटा सा आंगन और फिर दीवारें। पिछवाड़े के दरवाजे से ही निकलकर बाऊ कोठी के चारों ओर घूम आते। अम्मा को कुछ करने को न मिलता। दो जनों का खाना बनाने में समय ही कितना लगता है? कपड़े और छोटा सा बरामदा भी झाड़ पोंछ लेती थी। अंदर की तरफ आ चक्कर लगाती पर कुछ समझ नहीं आता था किससे बात करें। क्रिश्चन आया से? मुसलमान बाबर्ची से, जमादारिनी से या महरी से? फिर भी इन्हीं से हंस बोल वापस आ जाती।

‘बहू संक्रात पर पिंकी के यहां लड्डू भेजूंगी, सामान……।” बहू के चेहरे को देखकर वह चुप हो गई। “क्या-क्या लाना है?” सीमा ने पूछा तो कुछ साहस कर बोली, “सूजी, खोया, बेसन, घी, बूरा।” “जाएगा कैसे?” “वो साते के दिन गांव से बनबारी आएगा कह दिया है कि संक्रात का सामान शांता के लिए ले जाए। वह हड़बड़ी में तिल व मूंग की दाल कहना भूल गई थी।”

‘कुछ नहीं! बेकार है यह सब। जब बनबारी आएगा, बाजार से मीठा मंगवाकर रख दूंगी। आपसे अकेले सब होगा नहीं।”

अम्मा कह नहीं पाई कि तिल के लड्डू साल में एक बार बनते हैं और बाऊ को बहुत अच्छे लगते हैं। अपनी टिन के बक्से के कोने में से एक कपड़े के बटुए में रखे तुड़े-मुड़े नोटों में से बाऊ से दस रुपए का नोट देकर उन्होंने तिल के लड्डू का थोड़ा सा सामान मंगवाया और प्रतीक्षा की कि जब बहू बेटा घर में नहीं हों, तब बनाए।

अम्मा तब ही जाती थीं अंदर जब शंकर हो। पता नहीं क्यों शंकर से कुछ कह नहीं पाती थी और बहू से कहते डर लगता था। अब तो वास्तव में वे तब ही अंदर जाती थीं जब उन्हें कुछ आवश्यकता होती क्योंकि घर में किसी को फुरसत ही नहीं होती थी। चक्कर काटकर फिर पीछे आ बैठती थी। बहू भी उन्हें देखते ही पूछती क्या चाहिए? और वहीं सिटपिटा जाती क्या उनकी आवश्यकता केवल चाहना है। शंकर जब भी मिलता यही कहता, “बाऊ अम्मा किसी बात की तकलीफ तो नहीं है। तकलीफ मत पाना।” पर उन्हें लगता खाना कपड़ा ही क्या उनकी आवश्यकता रह गई है? “बहू, पिंकी विकी कहां हैं?” “क्यों उनसे क्या काम है?” “कुछ नहीं दिख नहीं रहे बिलकुल दिखते ही नाय।” “उन्हें फालतू बातों के लिए समय ही कहां मिलता है।”, कह बहू पत्रिका में खो जाती है। अम्मा फिर अपनी परिधि में लौट आती। बाऊ कभी अंदर आते नहीं थे। एकाएक बाऊ को देखकर शंकर हड़बड़ा उठा “बाऊ क्या बात है! क्या चाहिए?” “बेटा कुछ नहीं ” बाऊ फीकी सी हंसी हंसते बोले, “तुम्हारी मां गांव चलने के लिए कह रही हैं।”

“क्यों बाऊ? क्या बात हुई, कोई परेशानी है! सीमा मैंने तुम से कहा था, देखना अम्मा बाऊ को कोई तकलीफ न हो।” “तो मैंने पूरा ध्यान रखा है।” सीमा की आंखें सिकुड़ उठी। “नहीं बेटा! बहू ने पूरा ध्यान रखा है, पर मैं सोचता हूं वहां जमीन कहीं…!” “अरे बाऊ जमीन को क्या होगा, बुढ़ापे में वहां आपका कौन है, अकेले कैसे रहेगो।” “अरे नहीं, वहां तो सब अपने हैं… वहां क्या परेशानी… वैसे भी मैं तो दो तीन महीने की कह कर आया हूं।”

दो दिन बाद अम्मा गांव घर की औरतों से घिरी बेटा बहू ने कितने आराम से रखा ओर पोते कितने शैतान थे सुनाती जा रही थीं और बाऊ बेटे ने शहर में क्या-क्या दिखाया, वे कितने खुश थे, बताते जा  रहे थे। उन्हें लग रहा था कितने दिन बाद परदेश में मेहमान रहकर अपने घर लौट आए हो। ताला खोलते उन्हें लग रहा था कि जहां उनका सब कुछ है वहीं लौट आए हैं।

                                                                                                                                                                                      डॉ शशि गोयल 

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