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बाबरी विध्वंस और मंदिर निर्माण की राष्ट्र यात्रा

बाबरी विध्वंस और मंदिर निर्माण की राष्ट्र यात्रा

by प्रवीण गुगनानी
in दिसंबर २०२२, विशेष, व्यक्तित्व, सामाजिक
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भारतीय राजनीति में 6 दिसम्बर का उल्लेखनीय महत्व है। इस दिन देश में हजारों सालों से हाशिए पर रहे वंचित वर्ग के उन्नायक डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस है। साथ ही, भारतीय संस्कृति के प्रतीक प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि पर हुए विदेशी अतिक्रमण को हटाने की शुरुआत भी इसी दिन हुई थी। बाबासाहेब द्वारा बनाए गए संविधान की छाया में आज भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य  हो रहा है।

6 दिसम्बर भारतीय इतिहास में एक उल्लेखनीय, विशिष्ट व महत्वपूर्ण  तिथि है। छः दिसम्बर 1956 को बाबासाहेब आम्बेडकर का देहांत हुआ और वे परिनिर्वाण की ओर अग्रसर हुए। बाबासाहेब का निधन समूचे भारत के लिए एक अपूर्णनीय क्षति थी। यदि वे एकाध दशक  और जीवित रहते तो भारत की राजनीति, सामाजिक समरसता व अनेकों वर्तमान राष्ट्रीय  समस्याओं का स्वरूप कुछ और ही होता। हिंदुत्व के प्रति उनका मोह, भारत और भारत की परम्पराओं से उनका प्रेम एक नए भारत को गढ़ने में सफल होता।

छः दिसम्बर एक बात के लिए और जाना जाता है और वह है शौर्य दिवस अर्थात ढांचे के विध्वंस का दिवस। यह दिवस विदेशी आक्रांताओं द्वारा भारत के माथे पर लगाए गए कलंक को हटा देने का महत्वपूर्ण  दिवस है। यदि भारत की जनता ने छः दिसम्बर 1992 को वीरतापूर्वक अयोध्या में ढांचा विध्वंस का हनुमान कार्य न किया होता तो आज हम अयोध्या में निर्मित होते हुए भव्य मंदिर निर्माण को नहीं देख पा रहे होते।

छः दिसम्बर 1992 के ढांचे के विध्वंस से लेकर 9 नवम्बर 2019 तक के श्रीराम जन्मभूमि मामले के निर्णय तक की ढाई दशकों की यात्रा वस्तुतः बाबासाहेब के पदचिह्नों पर चलने की ही यात्रा है। यह भारत के सवा सौ करोड़ हिंदुओं की बाबासाहेब लिखित संविधान के प्रति आस्था का ही प्रतीक है कि इतनी विशाल शक्ति होते हुए भी हिंदू समाज मंदिर निर्माण के प्रति संविधान सम्मत मार्ग पर चलता रहा। ढांचे के विध्वंस के बाद न्यायालय से निर्णय होने तक के पच्चीस वर्षों में अयोध्या जन्मभूमि मामले में कई बाधाएं आईं। ये बाधाएं केवल संवैधानिक या कानूनी मात्र नहीं थी। संवैधानिक बाधाओं को तो हिंदू समाज धैर्यपूर्वक व विधिपूर्वक हल कर रहा था। हिंदू समाज के समक्ष कुछ विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित, कुछ वामपंथी, कांग्रेसी, सेकुलरवादी लोग ऐसी बाधाएं खड़ी कर रहे थे जो अनावश्यक का वितंडा मात्र थी। कभी कानून के मध्य की बारीकियों का लाभ उठाते हुए तो कभी संविधान से मिली सुविधाओं का दुरुपयोग करते हुए ये राक्षसी शक्तियां अयोध्या जन्मभूमि निर्माण के मार्ग में बाधाएं खड़ी कर रही थी। कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल गांधी परिवार के संकेत पर समय-समय पर जन्मभूमि निर्माण का मार्ग रोकने हेतु सर्वोच्च न्यायालय में आवेदन और याचिकाएं लगाते रहते थे। इस मध्य केंद्र की सोनिया गांधी के निर्देशन में चलने वाली मनमोहन सरकार के कार्यकाल में रामेश्वरम रामसेतु को तोड़ने के प्रयास हुए। इस मध्य इसी सरकार के संकेत पर भारतभूमि के आराध्य श्रीराम को कथा का काल्पनिक पात्र व रामायण को एक उपन्यास मात्र सिद्ध करने के कुत्सित प्रयास भी हुए। ये सभी प्रयास श्रीराम जन्मभूमि के निर्माण को रोकने के प्रकल्प ही थे। वो तो बलिहारी हिंदू समाज के धैर्य की कि उसने कभी बलात् मंदिर निर्माण का प्रयास नहीं किया। हिंदू समाज बाबासाहेब के संविधान के मार्ग पर चलता रहा और एक-एक करके बाधाओं का निराकरण करता चला गया।

बाबासाहेब को भी उनकी मृत्यु के पश्चात हिंदू विरोधी या गैर विरोधी बताने के बहुतेरे प्रयास इन मंदिर विरोधियों ने किए हैं। जो लोग बाबासाहेब को हिंदू विरोधी बताते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि 1935 में येवला में हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा से लेकर 21 अक्टूबर 1956 को नागपुर में  पांच लाख अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करने तक अर्थात 21 वर्षों के दीर्घ पीड़ादायी अंतराल में अपने इस भीषणतम द्वंद्व को जिस प्रकार बाबा साहेब ने आत्मसात किये रखा वह केवल किसी हिंदू संत या बोधिसत्व के वश की ही बात थी। हां, उस कालखंड में कुछ राजनीतिज्ञों ने बाबासाहेब के हृदय में अपने व्यवहार से इतना विषाद और दुःख अवश्य उत्पन्न कर दिया था कि वे हिंदुत्व के प्रति रोष व्यक्त कर बैठे थे। फिर भी, बाबासाहेब ने स्पष्ट  कहा था कि मैं केवल भारतभूमि से उपजे हुए अर्थात हिदुत्व के वटवृक्ष की किसी शाखा को ही अपना धर्म मानूंगा। तमाम असहमतियों के बाद भी हिंदुत्व में इतनी निष्ठा किसी संत के हृदय में ही हो सकती थी। आज यह स्पष्टतः आभास होता है कि गांधीजी और अन्य तात्कालीन राजनीतिक हस्तियों ने किस प्रकार बाबा साहेब को सप्रयास एकांगी किया था। किंतु यह भी स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि डा. भीमराव आम्बेडकर से बाबा साहेब और बाबा साहेब से बोधिसत्व तक की यात्रा का पाथेय भी यही एतिहासिक उपेक्षा ही थी। बाबासाहेब के समकालीन और साथी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इतिहास के पन्नों में कितनी ही अन्य घटनाएं अलिखित भी हैं जो बाबा साहेब की आत्मा के बोधिसत्व तक के मार्ग में मील का पत्थर रही हैं। आज जब हम बाबासाहेब का परिनिर्वाण दिवस और बाबारी ढांचे के विध्वंस का शौर्य दिवस एक साथ मना रहे होते हैं तो हम अयोध्या में संविधान सम्मत रीति नीति से मंदिर निर्माण करके बाबासाहेब को सच्ची श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं। आज हमें इस दिवस पर यह गौरवभान भी रहता है कि जिस मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा देश के एक सौ तीस करोड़ लोग कर रहे हैं उस मंदिर की पहली ईंट रखकर उसका शिलान्यास किसी और ने नहीं बल्कि कामेश्वर जी चौपाल नाम के एक दलित बंधु ने रखकर हमारे देश को सामाजिक समरसता का एक कभी न भूलने वाला अध्याय दे दिया था। बाबासाहेब के मार्ग पर चलकर मंदिर का दलित बंधु कामेश्वर चौपाल द्वारा किया गया शिलान्यास, संविधान द्वारा दिया गया मंदिर के पक्ष का निर्णय और बाबासाहेब का परिनिर्वाण इन तीनों को हम सभी भारतीय अपने हृदय में संजोकर रखेंगे।

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प्रवीण गुगनानी

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