गुनाहों का देवता डॉ. धर्मवीर भारती 

सत्तर और अस्सी के दशक में हिन्दी साहित्याकाश में साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ सूर्य की तरह पूरे तेज से प्रकाशित होती थी। उसमें रचना छपते ही लेखक का कद रातोंरात बढ़ जाता था। उस समय के सैकड़ों ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने धर्मयुग से पहचान और प्रसिद्धि पाई। छपाई की पुरानी तकनीक के दौर में भी धर्मयुग की प्रसार संख्या पांच लाख के लगभग थी। इसका अधिकांश श्रेय यदि किसी को देना हो, तो वे थे उसके यशस्वी सम्पादक धर्मवीर भारती।

धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, 1926 को प्रयाग (उ.प्र.) में हुआ था। भारती को पढ़ने का बहुत शौक था। वे विद्यालय से सीधे पुस्तकालय जाते थे; पर अर्थाभाव के कारण वे किसी पुस्तकालय के सदस्य नहीं बन सके। उनकी यह लगन देखकर एक पुस्तकालय के प्रबन्धक उन्हें पांच दिन के लिए निःशुल्क पुस्तकें देने लगे। इस प्रकार भारती ने हजारों पुस्तकें पढ़ डालीं।

प्रयाग वि.वि. से प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने 1946 में डा. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी-एच.डी. की उपाधि ली तथा पहले हिन्दुस्तानी अकादमी में और फिर वि.वि. में ही प्राध्यापक हो गये। उन दिनों हिन्दी साहित्य की राजधानी प्रयाग ही थी। वहां की साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हुए वे अभ्युदय, संगम, निकष, आलोचना आदि पत्रिकाओं तथा हिन्दी साहित्य कोश के सम्पादन से सम्बद्ध रहे।

1960 से 1987 तक वे धर्मयुग’ के सम्पादक रहे। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह की यह पत्रिका उन दिनों मुंबई से प्रकाशित होती थी। प्रबन्धकों ने उनसे आश्वासन चाहा कि सम्पादक रहते हुए वे निजी लेखन नहीं करेंगे; पर धर्मवीर भारती ने इस ठुकरा दिया और अपनी शर्तों पर ही काम किया।

धर्मवीर भारती को सम्पादन में प्रबन्धकों का हस्तक्षेप पसंद नहीं था। उनके सम्पादन में पत्रिका ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। उसमें साहित्य और समाचारों का सुंदर समन्वय होता था। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की रिपोर्टिंग के लिए कोलकाता से विष्णुकांत शास्त्री को साथ लेकर वे स्वयं गये थे। 1971 में हुए युद्ध में भी सीमा पर जाकर उन्होंने वहां से जीवंत समाचार भेजे।

धर्मवीर भारती सिद्धांतवादी व्यक्ति थे। 1974-75 में बिहार में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जब जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार किया गया, तो इसके विरोध में लिखी गयी उनकी कविता ‘मुनादी’ बहुत चर्चित हुई। बिहार आंदोलन को वे भारतीय राजनीति का महत्वपूर्ण मोड़ मानते थे। अतः अपने संस्थान के दबाव के बावजूद उन्होंने इसके बारे में लिखने के लिए एक संवाददाता गणेश मंत्री को बिहार भेजा। बिनोबा द्वारा आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने पर भी उन्होंने कविता लिखकर विरोध किया।

ऐसा कहते हैं कि भारती की बढ़ती लोकप्रियता से उनके प्रकाशन समूह को असुविधा होने लगी। अतः 1987 में भारती ने यह पदभार छोड़ दिया।
धर्मवीर भारती ने साहित्य की हर विधा में प्रचुर लेखन किया। महाभारत तथा द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका पर आधारित पद्य नाटक ‘अंधा युग’ का मंचन अलग-अलग निर्देशकों द्वारा आज भी किया जाता है। ‘गुनाहों का देवता’ उनका सार्वकालिक उपन्यास है, जिसके नये संस्करण लगातार छप रहे हैं।

इसके अतिरिक्त कनुप्रिया, सूरज का सातवां घोड़ा, मुर्दों का गांव, स्वर्ग और पृथ्वी, चांद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, ग्यारह सपनों का देश, ठेले पर हिमालय, पश्यंती.. आदि उनकी चर्चित पुस्तकें हैं।

साहित्य और कला जगत के अनेक सम्मानों के साथ ही ‘पद्मश्री’ से विभूषित डा. धर्मवीर भारती का चार सितम्बर, 1997 को देहांत हुआ।

संकलन : विजय कुमार

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