कंस के वध का पता चलते ही मगध का सम्राट जरासंध आपे से बाहर हो गया। उसका स्वयं पर नियंत्रण रख पाना असंभव-सा हो गया। अब कोई पिता अपनी दो-दो पुत्रियों के विधवापन को सह भी कैसे लेता! उसने अपनी दोनों पुत्रियाँ कंस को ब्याही थीं।
परंतु वास्तविक बात इससे भी बढ़कर थी। जरासंध का एक सपना भी टूट-सा गया था! सपना था कि वह यह रिश्ता स्थापित करके अपने दामाद के सहयोग से समस्त आर्यावर्त के गणतंत्रों को समाप्त करके एक दिन उसे (आर्यावर्त को) अपने अधीन कर लेगा। पर अब उसे यह चिंता सताने लगी कि यह कृष्ण तो शिशुपाल, भौमासुर, पौंड्रक और उसका भी वध कर सकता है। मथुरा की भाँति मगध और समस्त आर्यावर्त में भी गणतंत्र की पुनः स्थापना कर सकता है। आगामी आशंकाओं का उन्मूलन करने के लिए उसने अपनी सेना सजाई, और मथुरा पर चढ़ाई कर बैठा।
परंतु इस बार मथुरा की बात अलग थी। यादव-सेना का नेतृत्व अब उग्रसेन नहीं, कृष्ण के हाथ में था। यादवों की सेना तो जैसे इस आक्रमण की अधीरता से प्रतीक्षा ही कर रही थी। यादवों को दृढ़ विश्वास हो चला था कि कंस जैसे अपराजेय शासक का अंत करनेवाले ये कृष्ण और बलराम विशिष्ट और दैवीय शक्ति से ही युक्त हैं। इस बार जरासंध की सेना का जो हाल हुआ, वह उसके लिए नितांत अकल्पनीय था। उसे मगध की सीमा तक खदेड़ दिया गया था। तथापि वह चुप नहीं बैठ सकता था। इस बार उसने अलग से रणनीति बनाई। जा पहुँचा सिंधुदेश के राजा कालयवन के दरबार में।
उसे पता था कि कालयवन ऐसे प्रस्ताव को मना कर ही नहीं सकता। उसके पिता महर्षि गार्ग्य का यादव-पुरोहित शाल ने कभी अपमानित किया था। और इस अपमान से पीड़ित होकर उसने अपने पुत्र कालयवन को कह दिया था कि वह यादवों को सबक सिखाकर ही पितृऋण से मुक्त हो सकता है। समझौता हुआ कि मथुरा के उत्तर से कालयवन की सेना और पूर्व व दक्षिण से जरासंध की सेना आक्रमण करेगी। इस तरह से मथुरा को घेरकर उसकी सेना सहित कृष्ण की भी हत्या कर दी जाएगी।
कालयवन के आर्यावर्त की धरती पर पग रखने की सूचना जब मथुरा तक पहुँची, सब विचलित हो उठें। केवल कृष्ण को छोड़कर। कृष्ण जानते थे कि भले ही संख्या और शक्ति के मामलों में यादवी सेना उन्नीस हो, पर धर्म मथुरा के पक्ष में है। वह धर्म ही था जिसके बल पर वे कालिया नाग से लेकर कंस का सामना कर सकें अन्यथा वे सब भी उतने ही शक्तिशाली थे।
परंतु यादवों की सभा में कुछ और ही घटित हो गया! अति चिंतित सभासदों के बीच एक श्रेष्ठ यादव विकद्रु ने कहा, “कृष्ण! मथुरा को तुमने उबारा। हम सब इसके लिए तुम्हारे आजीवन ऋणी रहेंगे। पर इस बार भी तुम ही उबार सकते हो। इस विकट संकट से बचने का एक ही उपाय है कि तुम इस जगह को छोड़कर कहीं दूर चले जाओ क्योंकि जरासंध की शत्रुता मूलतः मथुरा से नहीं, तुमसे है। ऐसे में वे मथुरा पर आक्रमण करने के बदले तुम्हारे पीछे लग जाएंगे।” सभा क्या, मानो पूरी प्रकृति ही नितांत सन्नाटे में आ गई! जिस मथुरा को कृष्ण ने चैन की साँसें दीं, उसी मथुरा से उन्हें कहीं और चले जाने को कहा जा रहा था!
कृष्ण को पता था कि अगर वे ऐसी घड़ी में मथुरा को छोड़कर जाते हैं, तो आनेवाले समय में कुछ लोग उन्हें भीरु, डरपोक या रणछोड़दास कहकर हँसी उड़ाएंगे। इस संसार में मर्यादा और चरित्र के जीवंत व उच्चतम प्रमाण ‘श्रीराम’ तक पर लांछन लगाया जाता है। अधिकतर प्राणी प्रकृति या ईश्वर के दिए सर्वोत्तम उपहार—’बुद्धि और विवेक’ का उपयोग करते हुए स्वयं अध्ययन-चिंतन-मनन करके निर्णय लेने के बदले केवल सुनी-सुनाई बातों को ही मान लेते हैं। पर कृष्ण ने इस बात की चिंता ही कब की कि लोग उनके बारे में क्या कहेंगे। बचपन से लेकर अब तक जब जैसी परिस्थिति आई, उन्होंने स्वयं को उसी अनुसार ढाल लिया था। सहजता और मानवीयता तो जैसे कृष्ण के ही अन्य नाम थे!
कृष्ण के मन में कदाचित यह बात भी रही हो कि जरासंध से तो फिर कभी निपट लेंगे, किंतु एक परदेसी कालयवन को एक बार आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर दे दिया गया तो आनेवाले समय में मथुरा क्या, मगध और आर्यावर्त का भी विनाश होकर ही रहेगा।
कृष्ण ने अपने ओठों पर स्मित को स्थिर रखते हुए कहा, “तात! मेरा स्वयं का हमेशा से यह मानना रहा है कि परिवार के हित के लिए निज का, समाज के लिए परिवार का, जनपद के लिए समाज का, राज्य के लिए जनपद का और देश के लिए सब कुछ का त्याग कर देना चाहिए। किंतु मुझे नहीं पता था कि अपनी ही बात पर सच्चा प्रमाणित होने के लिए इतनी जल्दी अवसर आ जाएंगे। आप लोग किंचित भी चिंता न करें। पश्चिम का द्वार खुला है। कल प्रातः काल की वेला में मैं और दाऊ कुछ यादव साथियों के साथ पश्चिम की ओर इस तरह से प्रस्थान कर जाएंगे कि जरासंध और कालयवन की सेना हमें भागते हुए देख ले।”
दूसरे दिन प्रातः काल में ऐसा ही हुआ। कृष्ण को भागते देखकर जरासंध की सेना जय-जयकार करने लगी, और कालयवन उनके पीछे दौड़ पड़ा। कृष्ण की मुस्कान और चौड़ी हो गई। उन्होंने अपनी गति दुगुनी कर दी। मथुरावासियों ने चैन की साँस लीं। पुनः कृष्ण के ही बल पर।
परंतु मथुरावासी अंदर-ही-अंदर जानते थे कि यह उनका दुर्भाग्य ही है कि कृष्ण को उनकी धरती छोड़नी पड़ी। पर प्रकृति का कदाचित यह भी एक नियम हो कि किसी का दुर्भाग्य किसी और के लिए सौभाग्य बनकर आता है! तभी तो उधर पश्चिम की ओर एक अलग ही ज्योति जलने लगी थी! द्वारका के समस्त वृक्षों की पत्तियाँ, हवाएं, समंदर की लहरें, कण-कण मानो झूमते हुए एक-दूसरे से कह रहे हों,
“पता है, भुवनमोहिनी आ रहे हैं! तुमने सुना, श्रीकृष्ण आ रहे हैं!”
– प्रियरंजन शर्मा
बहुत ही सुंदर और सटीक वृत्तांत ❤️❤️
जय श्रीकृष्ण 🙏🙏