मकर संक्रांति का भारतीय जन जीवन में महत्व

मकर संक्रांति का भारतीय जन जीवन में जितना महत्‍वपूर्ण स्‍थान है, वह बनते-बनते हजारों सालों का वक्‍त लगा है। एक मिथक है कि आदमी की आंखों को आसमान पर लगे-लगे कई दिन हो गए। आंखें देखती रही कि सूरज बर्फ को पिघलाकर बहते जल को देखते देखते समंदर तक जाता है… जब भाप बनती है तो बादलों का खोल ओढे फिर अपनी जगह लौटता है मगर पानी उसे फिर समंदर की ओर लेकर जाता है…।

याद कीजिएगा कि इसी से उत्‍तरायण और दक्षिणायन की धारणा बनी। अयन माने रास्‍ता, जैसा कि छांदोग्‍योपनिषद (4, 15, 5) में आया है, यही अर्थ ऋग्‍वेद (3, 33, 7) में मिलता है। संक्रमण से मतलब है रास्‍ते को लांघना। इधर का उधर होना अयन माना गया, यह छह-छह महीने का वक्‍त है। जब आदमी ने बारह महीनों को जान लिया तो इस संक्रमण को भी बारह तरह से जाना गया। इसमें दो अयन की संक्रांतियां मानी गई जिनका नाम राशियों के आधार पर रखा गया, जो कि अनेकों के अनुसार मेसोपोटामियां की उपज बताई गई हैं और भारत में यहां के नामों से ख्‍यात हुईं।

अयन की संक्रांतियां मकर (उत्‍तरायण) और कर्क (दक्षिणायन) के नाम से जानी गई। दो संक्रांतियां जब दिन और रात बराबर होते हैं, विषुव के नाम से जानी गई, मेष् और तुला की। अन्‍य चार के नाम षडशीति हैं जब मिथुन, कन्‍या, धनु और मीन राशियां होती हैं और चार वे जो विष्‍णुपदी हैं, वृषभ, सिंह, वृश्चिक और कुंभ राशि वाली हैं।

छह-छह मासों का विवरण शतपथ ब्राह्मण में संक्षेप में आया है, किंतु तब तक राशियां अनजान ही थीं। सूर्य का धनु से मकर पर आना बहुत पहले से शुभ मान लिया गया था। इस घटना को धरतीवासी पत्‍थर के तीन चक्र एक दूसरे पर जमाकर गेंद से नीचे गिराते हुए देखते दिखाते अपना बल बताते थे।

यही खेल ‘सतोलिया’ का बना, खासकर पश्चिम भारत में यह खेल शुरु हुआ, यह आज भी है और संयोग से संक्रांति पर खेला भी जाता है। पहाडी प्रदेशों में पेडों की लकडियो से गेंद् को घुडाते हुए पारे या सीमा को लांघने का खेल विकसित हुआ। यह आज भी गीडा डोट के नाम से ख्‍यात है।

सुनाया जाता है कि फाहयान के साथ जो अन्‍य लोग इधर आए, पतंग जैसा खेल लेकर आए। पतंग से आशय सूर्य होता है, जिसके नाम से पश्चिम भारत वाले भली भांति परिचित थे। ये खेल आज भी इधर लोकप्रिय हैं…। रही बात दान-पुण्‍य की वह तो उपज निपज के कारण कृषि प्रधान समाज में था ही, जलीय प्रदेशों में यह स्‍नान के पर्व के रूप में ख्‍यात हुआ और इस तरह एक मिला जुला पर्व बना मकर संक्रांति।

मध्‍यकाल में, खासकर 10वीं सदी के आसपास सक्रांति को देवी का रूप मान लिया गया और उसके बनाव, शृंगार सहित खान-पान, देखने, चलने आदि की क्रियाओं पर विचार करके मौसम और साल भर के लेखा जोखा पर विचार हुआ और फिर संहिता तथा मुहूर्त ग्रंथों में उन सबको लिखा गया और लिखा ही जाता रहा। लगभग तीन सौ सालों तक, भविष्‍यपुराण भी इससे न्‍यारा नहीं है।

अभी तो आपके शब्दों में मकर मंगलम…

पौषमासे मकरे च यदा सूर्यायनं भवेत् |
चत्वारिंशद्घटिका वै पुण्यकालो विशेषतः||
दानस्नानार्चनाद्यं तु कर्तव्यं तिललड्डुकाः|
मिष्टान्नानि च देयानि ह्यनाथेभ्यो विशेषतः|
गवां ग्रासादि देयं च श्राद्धं पुण्यप्रदं तथा||
जय जय।

– श्रीकृष्ण जुगनू

Leave a Reply