अपनी मातृभाषा को त्यागकर अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं को प्राथमिकता देने के कारण देशभर में अनेक छोटी-छोटी भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो रही हैं। मातृभाषा दिवस का संकल्प तभी पूर्ण होगा जब हम अपनी भाषा के प्रति सजग होंगे और उसे बचाते हुए व्यवहार में लाने का प्रयास करेंगे।
मातृभाषा मनुष्य के विकास की आधारशिला होती है, क्योंकि जब एक बच्चा मां रूपी शब्द का पहली बार उच्चारण करता है। तो वह अपनी मातृभाषा में ही करता है। मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ है, मां की भाषा। अर्थात वह भाषा जिसे बालक अपनी मां के सान्निध्य में रहकर सीखता है। इसलिए कई बार मातृभाषा को ‘पालने’ या ‘हिंडोल’ की भाषा कहते हैं। मातृभाषा को बालक अपने माता-पिता, भाई-बहन या आस-पड़ोस के वातावरण में रहकर सीखता है। इसलिए हर व्यक्ति की कोई ना कोई मातृभाषा अवश्य होती है, बाकी की अन्य भाषाएं व्यक्ति के लिए सम्पर्क भाषा का ही काम करती हैं। एक बालक अपनी मां के सम्पर्क में ही अधिक रहता है, इसलिए बचपन में सीखी गई भाषा को मातृभाषा कहा जाता है और इस दृष्टिकोण से मां और मातृभाषा में बहुत निकटता का सम्बंध है। जिस तरह व्यक्ति के जीवन में एक मां का अहम योगदान होता है, उसी प्रकार उस व्यक्ति के जीवन में मातृभाषा भी महत्वपूर्ण होती है। मां बच्चे की जननी होती है, तो मातृभाषा भावों और विचारों के सर्वप्रथम आदान-प्रदान का माध्यम होती है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मातृभाषा की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए कहा है कि, “मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही जरूरी है, जितना कि बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध। बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता है, इसलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभूमि के विरूद्ध पाप समझता हूं।” इस कथन से हम और आप समझ सकते हैं कि मातृभाषा किसी भी व्यक्ति और समाज के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है। इन्हीं सब बातों को दृष्टिगत करते हुए प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन भी किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की शुरुआत 17 नवम्बर 1999 से हुई है और यह यूनेस्को द्वारा घोषित दिवस है। जिसका उद्देश्य दुनिया भर के लोगों को उनकी भाषा के प्रति लगाव उत्पन्न कराना है, ताकि विलुप्त होती विभिन्न भाषाओं का संरक्षण किया जा सके।
यूनेस्को के अनुसार दुनियाभर में लगभग 6000 भाषाएं हैं। जिनमें से करीब 2680 भाषाएं अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं यानी कि दुनिया की लगभग 43 फीसद भाषाएं खत्म होने की कगार पर हैं। आज दुनिया भले हथेली पर सिमट गई है, लेकिन यह बदलाव भाषाओं और संस्कृतियों की विलुप्ति का कारण भी बन रहा है। जानकर हैरानी होगी कि एक आंकड़े के मुताबिक हर महीने दुनिया भर से लगभग दो भाषाएं गायब हो रही हैं। अब सोचिए अगर इस तरह भाषाएं गायब होती रही या उन्हें बोलने वाले लोग नहीं बचें! फिर उन तमाम संस्कृतियों और सभ्यताओं का क्या होगा, जो इन्हीं भाषाओं पर टिकी हुई हैं? भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के बड़े मूर्धन्य लेखक और साहित्यकार रहे हैं। जिसके नाम पर हिंदी साहित्य का एक पूरा काल विभाजन किया गया है। उन्होंने आज से लगभग डेढ़ सदी पहले लिखा था कि, निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति की मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय के शूल। भारतेन्दु ने इस पंक्ति को जब लिखा था, तब शायद ही किसी को भान रहा हो कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब भाषाओं को बचाने के लिए दिवस विशेष की आवश्यकता पड़ेगी! लेकिन कुछ लोग कालखंड से पहले की सोच रखते हैं और उसी में से एक भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे महान और प्रकांड विद्वान हुए हैं।
निःसंदेह किसी मातृभाषा के लुप्त होने का अर्थ उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का पतन होना है, जिस भाषा को बोलने वाले लोग नहीं बचें। उस संस्कृति का विनाश निकट है। मातृभाषा में अपना एक अलग ही मर्म और अपनापन होता है। जो किसी दूसरी भाषा में नहीं। मां और ईश्वर इन दोनों शब्दों को ही देखिए। अपनी मातृभाषा चूंकि हिंदी है। इसमें इन दोनों शब्दों के उच्चारण में एक अलग ही अनुभूति होती है। जो मॉम और गॉड में कहां? हिंदी भाषा तो सचमुच में अतुलनीय है। इसमें भावों और विचारों को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्द हैं। जो किसी दूसरी भाषा में नहीं। ईश्वर को हम हिंदी भाषा में कितने शब्दों से सुशोभित कर लेते हैं, लेकिन अंग्रेजी में हमें केवल गॉड शब्द पर ही निर्भर रहना पड़ता है। भारत में वैसे हिंदी सर्वस्वीकृत भाषा है, लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों की मातृभाषा भी अलग-अलग हैं। जो एकता के सूत्र में बंधकर हिंदी का गौरवगान करती हैं।
ऐसे में जिस तरह जन्म के बाद बच्चा मां की गोद में ही पलता और बढ़ता है। वह सबसे ज्यादा अपनी मां के ही सम्पर्क में रहता है। उसी प्रकार जिस भाषा में एक मां अपने बच्चे से बोलती है, बच्चा भी वही सीखता है और यही उसकी मातृभाषा बन जाती है। यदि यह भाषा हिंदी होगी, तो बच्चा भी हिंदी ही बोलने की कोशिश करता है। ऐसे में हम कह सकते है कि मां ही उसकी भाषा को सबसे पहले समझती भी है। मनुष्य का मां से रिश्ता मातृभाषा के साथ ही जुड़ता है। सीधा सा आशय है कि बच्चा जिस वातावरण में पलता और बढ़ता है, वही भाषा उसकी मातृभाषा बन जाती है। मातृभाषा निजी भावों की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त, सरल, सुगम व स्वाभाविक माध्यम है। मातृभाषा अपनत्व, संवेदना, ममता और समता का भाव साथ में लेकर चलती है। मान लीजिए कोई व्यक्ति हिंदी मातृभाषा वाली जगह पर इंग्लिश सीखकर आ जाता है और वह अंग्रेजी को ही सामान्य बोलचाल की भाषा में अपना लेता है तो स्वाभाविक रूप से यह समता और अपनत्व के भाव को कमजोर करेगी। इसलिए व्यक्ति सम्पर्क और जरूरतों के लिहाज से भले ही कितनी ही भाषा क्यों न सीख लें? फिर भी उसे मातृभाषा का मोह नहीं त्यागना चाहिए!
दैनिक जीवन में बढ़ते तकनीकी उपकरणों, आर्थिक सुदृढ़ता के लिए हम पलायन करें, लेकिन हमें अपनी मातृभाषा को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि जब हम अपनी मां से दूर जीते-जी नहीं होते। फिर मातृभाषा से दूरी क्यों हो? अपने यहां एक कहावत काफी प्रचलित है कि, ‘कोस-कोस पर बदले पानी चार कोस पर बानी!’ ऐसे में कहा जा सकता है कि मातृभाषा में ही लोक संस्कृति यानी लोककला, लोकगायन, लोकनृत्य, लोकोचार, रीति-रिवाज, परम्पराएं सुरक्षित व संरक्षित रहते हैं। मातृभाषा ही भाषायी सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक आदि विविधताओं को अक्षुण्ण बनाए रखने का आधार है। मातृभाषा मनुष्य के संस्कारों की संवाहिका है। मातृभाषा के बिना किसी भी देश की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। यूरोप में हुए एक शोध में यह तथ्य निकलकर सामने आया है कि जो बच्चे स्कूलों में अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं और घरों में मातृभाषा का प्रयोग करते हैं। वे दूसरे बच्चों की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान और मेधावी होते हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जी ने कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बन सका क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी। ऐसे में समझ सकते हैं कि मातृभाषा की महिमा अपार है। जिसे सिर्फ शब्दों में बांधना मुश्किल हो सकता है, लेकिन एक भाषा प्रेमी इसे महसूस अवश्य कर सकता है। भला हो केंद्र की मोदी सरकार का जिसने नई शिक्षा नीति के तहत मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की बात कही।
अंततोगत्वा मातृभाषा ही वह आईना है, जिसमें व्यक्ति की संस्कृति और सभ्यता झलकती है। विभिन्न भाषाओं के सांस्कृतिक विविधता और महत्व के बारे में जागरूकता लाना ही अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का सर्वोपरि उद्देश्य है। जिसकी पूर्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना योगदान देने की आवश्यकता है। मातृभाषा को जब हम विशेषकर भारत के परिपेक्ष्य में देखते हैं तो हमारा देश विविध संस्कृति और भाषाओं का देश रहा है। साल 1961 की जनगणना के अनुसार, देश के भीतर अमूमन 1652 भाषाएं बोली जाती थी। जिनकी संख्या वर्तमान में घटकर लगभ 1365 रह गई है। यानी छह दशकों में देश के भीतर ही 287 मातृभाषाएं गायब हो गईं। ऐसे में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा तो हम बनाने की दिशा में सोचें, लेकिन गायब होती मातृभाषाओं का संरक्षण करने की दिशा में भी व्यापक पहल हो, क्योंकि हिंदी माथे की बिंदी तभी है। जब ये क्षेत्रीय बोलियां या मातृभाषाएं हिंदी को सुशोभित करती हैं।
– सोनम लववंशी