भारत की संयुक्त कुटुम्ब परम्परा सभ्य समाज की दृष्टि से संपूर्ण विश्व में आदर्श व्यवस्था मानी जाती है लेकिन पिछले कुछ समय से हमारे यहां भी एकल परिवार और उनसे होने वाले दुष्परिणामों का असर दिखने लगा है। पारिवारिक सम्बंधों से अनजान युवा क्रूर और हिंसक होते जा रहे हैं। आवश्यकता है कि एक बार फिर पारिवारिक स्नेह से भरे अपनेपन एवं भावनात्मक संबंध के महत्व को समझे और अपने परिवार को संस्कारों से संचित करें।
यह भारत के लिए गर्व की बात है कि उसकी युवा शक्ति अपने सामर्थ्य और कौशल से विश्व में अग्रणी होने की स्पर्धा में सबसे आगे है। वहीं यह चिंताजनक है कि बच्चों और हमारे युवाओं में अवसाद, व्यवहार में क्रूरता और आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं। इसके लिये पश्चिम के अंधानुकरण से एकल परिवार की जीवन शैली सबसे बड़ा कारण है।
भारतीय युवाओं में इन दिनों अवसाद, आत्महत्या और क्रूरतम घृणित व्यवहार से भरे अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। युवाओं में ऐसी प्रवृत्ति के समाचार कभी यूरोप और मध्य एशिया में सुनाई देते थे। लेकिन अब भारत में इनकी संख्या बढ़ रही है। अवसाद, अपराध और परस्पर क्रूरतम व्यवहार करने वाले अधिकांश किशोर और युवा एकल परिवारों से सम्बंधित होते हैं और कैरियर पाने की अनदेखी मंजिल के लिये अपने एकल परिवार से भी दूर एकाकी हो जाते हैं। नया साल मनाने के इच्छुक युवाओं के बीच दिल्ली में क्रूरतम व्यवहार और हत्या की घटना और विमान में अपनी माता के समान महिला के साथ घृणित तम व्यवहार करने वाला युवा सहयात्री भी ऐसी ही एकल परिवार की पृष्ठभूमि से हैं।
एक समय था जब भारतीय परिवारों में सम्बंधों की महत्ता, सम्मान और सदाशय पूर्ण समन्वय पूरे विश्व के लिये शोध और कौतुहल का विषय रहा है। यूरोपीय समाज विज्ञानियों ने भारतीय परिवार परम्परा पर अनेक शोध किये हैं और यूरोप में भारतीय कुटुम्ब परम्परा के अनुशरण की आवश्यकता भी बताई। इस पर भारतीयों को अभिमान होना चाहिए और अपनी परिवार परम्परा को सशक्त करना चाहिए था। किंतु हो उसके विपरीत रहा है। भारतीय समाज दिखावट और सजावट की दौड़ में परिवार की महत्ता के मार्ग से भटक गया। वह विपरीत दिशा में दौड़ने लगा है। इससे भारतीय कुटुम्ब परम्परा बिखरने लगी और एकल परिवार उभरने लगा है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह एकाकी नहीं रह सकता। अपना एकाकीपन दूर करने के लिये साथी ढूंढ़ता है, साथी बनाता है। पर यह साथी भावना और संवेदना से नहीं होते हैं, केवल भौतिक होते हैं। इसलिए इन सम्बंधों का अंत भी क्रूरतम व्यवहार के साथ हो रहा है।
युवाओं में केवल यह क्रूरतम अपराध और व्यवहार ही नहीं बढ़ रहा नशे की लत के आंकड़े भी बढ़ रहे हैं। उनमें सोचने और जीने की एक अलग धारा भी दिखाई दे रही है। इन दिनों दो शब्द बहुत सुनाई देते हैं; एक लिव इन, दूसरा ब्रेक अप। इन दो शब्दों के साथ महानगरों के होटलों में देर रात की ड्रिंक-डिनर पार्टियां और उनमें झूमते युवा जोड़ों के दृश्य भी दिखाई दे रहे हैं। और इन्हीं में होते हैं वे चेहरे, जो आत्महत्या या क्रूर और घृणित अपराधों में होते हैं। इस झूमती पीढ़ी, लिव इन और ब्रेकअप में उलझे युवाओं का जन्म एकल परिवारों में ही होता है। उनकी परवरिश एकल वातावरण में होती है। एकल परिवारों में पति-पत्नी दोनों जॉब करते हैं। दोनों को अपने-अपने काम पर जाना होता है।
संतान बेटा हो या बेटी उसका पालन, झूलाघर, आया या फिर होस्टल में होता है। इन बच्चों को कभी सम्बंधों के स्नेह, सम्मान, सदाशयता अथवा गरिमा का परिचय तक नहीं होता। इन बच्चों की जरूरतें अवश्य पूरी होतीं हैं, उन्हें सुविधा का सामान भी मिलता है पर एक संवेदनाहीन बचपन के साथ। समय के साथ उनका बचपन बीतता है और वे युवा होकर कैरियर बनाने की चाह में अपने एकल परिवार से भी दूर महानगरों में और एकाकी होकर जीते हैं, जहां फ्रेंड और क्लोज फ्रेंड की मारीचिका में भटकते हैं। इन युवाओं में चार प्रमुख चाहतें देखी गईं हैं। एक तो वे बिना किसी परवाह या लिहाज के अपने ढंग से मस्ती का जीवन जीना चाहते हैं, दूसरा किसी के रिलेशनशिप में आना चाहते हैं, तीसरा कोई बड़ी नौकरी चाहते हैं, और चौथी ड्रिंक-डिनर पार्टी। उनकी इन चाहतों में कोई बाधा बने तो उसकी खैर नहीं। एकाकी परिवारों के इन युवाओं को किसी से लगाव नहीं होता, वे किसी का लिहाज नहीं करते, उनमें रिश्तों की कोई संवेदना नहीं होती। तब ऐसी घटनाएं तो घटेंगी ही जिन्हें इन दिनों सुर्खियों में पढ़ा जा रहा है।
भारत में परिवार और कुटुम्ब की एक परम्परा रही है, जिसमें बच्चे अनजाने में ही जीवन के मूल्य सीख लिया करते थे। इस भारतीय परिवार और कुटुम्ब परम्परा का दायरा केवल अपने स्वयं या अपने परिवार तक ही सीमित नहीं होता। वह पूरे परिवेश तक फैला होता है। पूरे गांव या नगरों में पूरा मोहल्ला मानो एक परिवार होता है। इसमें केवल मनुष्य ही नहीं अपितु उनके परिवेश के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी सब उनके परिवार का अंग होते थे। चेतन अवचेतन में सबके प्रति स्नेह और सामंजस्य का भाव होता था। सम्बंधों में एक दूसरे की भावना का सम्मान होता था। संयुक्त परिवार के बच्चे बचपन के खेल-खेल में रूठना और मनाना सीख लेते थे। परस्पर सहयोग सीख लेते थे। छोटों से स्नेह, बड़ों का आदर और समान आयु वर्ग से आत्मीय भाव सहज उत्पन्न होता था। इसलिए स्वप्न में भी मां समान आयु की महिला के साथ ऐसा घृणित व्यवहार नहीं होता था जैसे विमान में हुआ। मित्रता के बीच एकाधिकार की ऐसी क्रूरता का भाव नहीं होता था जैसा इन दिनों देखा जा रहा है। भला गर्ल फ्रेंड यदि न्यू एयर की लेट नाइट पार्टी में जाने से इंकार कर दे तो उसे चाकुओं से गोद दिया जाय? मीडिया की खबरों के अनुसार ये सभी युवा एकल परिवारों से थे। एकल परिवार में सहअस्तित्व, सम्मान का भाव जन्म ही नहीं लेता। पारिवारिक और सांस्कृतिक सौंदर्य भी नहीं होता। एकल परिवार के अधिकांश युवा अवसाद में डूबे होते हैं। ऊंचाई पाने का सपना पूरा न हो तो उनके मन में आत्महत्या का विचार उत्पन्न होता है। यदि वे किसी ऊंचाई पर पहुंचते भी हैं तो उनके भीतर मानवीयता और सम्बंधों की संवेदनाओं का भाव लगभग शून्य होता है। यही शून्यता उन्हें क्रूरतम और घृणित व्यवहार की ओर धकेल देती है।
इसलिए सम्बंधों और कुटुम्ब परम्परा की मनौवैज्ञानिक महत्ता को समझना होगा। कुटुम्ब और सम्बंधों की विविधता का ज्ञान अपने बच्चों को बचपन से ही देना होगा ताकि युवा होकर वे न अपना जीवन बर्बाद करें, और न अपने साथी का। कम से कम यात्रा में अपनी मां समान सहयात्री को यदि मां न समझें तो न सही, पर उसके साथ ऐसा इतना घृणित व्यवहार तो न करें जैसा मीडिया की खबरों में आया। भारतीय युवाओं में इन दिनों अवसाद, आत्महत्या और क्रूरतम घृणित व्यवहार से भरे अपराध की जो प्रवृत्ति बढ़ रही है, ऐसी प्रवृत्ति के समाचार कभी यूरोप और मध्य एशिया में सुनाई देते हैं। लेकिन अब भारत में भी ऐसे समाचारों की भरमार है। भारतीय किशोरों और युवाओं में बढ़ती इस विकृति का सबसे बड़ा कारण संयुक्त परिवारों का टूटना है। अवसाद, अपराध और परस्पर क्रूरतम व्यवहार करने वाले अधिकांश किशोर और युवा एकल परिवारों से सम्बंधित होते हैं। वे अपने कैरियर की अनदेखी मंजिल पाने के लिये एकल परिवार से भी दूर एकाकी हो जाते हैं।
संतान बेटा हो या बेटी, वह मां की गोद में खेल कर बड़ा नहीं होता। दादाजी की उंगली पकड़ चलना नहीं सीखता। दादी और नानी से कहानी नहीं सुनता। एकल परिवारों में माता पिता मानों कोई क्रेडिट कार्ड होते हैं जो बच्चे की जरूरतें उसके मुंह से निकलते ही पूरी कर देते हैं। वह सुविधाओं में जीता है पर एक संवेदनाहीन बचपन के साथ।
एकल परिवार और महानगरों में युवाओं के एकाकी जीवन से भारतीय समाज को बहुत क्षति हो चुकी है। समाज को यह समझना होगा कि एकलता या एकाकी सोच का मार्ग भी एकाकी ही होता है। लिव इन से वासना की पूर्ति तो हो सकती है पर सम्बंधों की संवेदनाओं का समाधान नहीं होता। इसीलिए आक्रामकता या क्रूरता के साथ ब्रेकअप हो जाता है। अब तो यह ब्रेकअप हिंसक भी होने लगा है जो दोनों का भविष्य शून्य कर देता है। पुलिस का सिरदर्द बढ़ता है सो अलग।
ताजा आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि भारत में आत्महत्या करने वाले युवाओं में अधिकांश युवा एकल परिवारों के ही होते हैं। पंद्रह वर्ष से पैंतीस वर्ष के बीच आत्महत्या करने वाले इन युवाओं का प्रतिशत साठ से ऊपर है। इसमें भी लड़कियों की तुलना में लड़के अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। ये अधिकांश युवा सपना पूरा न होने पर जीवन से नाता तोड़ लेते हैं। भला जिन युवाओं की प्रतिभा, क्षमता और दक्षता के दम पर पुनः विश्व में अग्रणी होने का सपना देखा जा रहा है उनमें यह अवसाद, क्रूरता और आत्महत्या के भाव प्रबल कर रही है, तब भारत कैसे अपनी अतीत के गौरव को प्राप्त कर सकेगा? इसलिए इस मनौवैज्ञानिक सत्य को समझना होगा, सम्बंधों और कुटुम्ब परम्परा की महत्ता को समझना होगा। एकल परिवार में भले कुछ सुविधा अधिक दिखाई देती हो पर यह संतान के भविष्य को चौपट करने वाला है। इसलिए हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। अपनी कुटुम्ब और सम्बंधों की विविधता का ज्ञान बच्चों को बचपन से ही कराना होगा ताकि युवा होकर वे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ें। एकाकी सच में अपना जीवन बर्बाद न करें और न अपने साथी का।