उद्योगपति गौतम अडाणी की कंपनियों पर एक विदेशी रिसर्च कंपनी द्वारा लगे आरोपों के बाद जिस तरह संसद को विपक्षी दलों द्वारा बाधित किया जा रहा है, उससे आम धारणा बन रही है कि अडाणी पर हमला सुनियोजित है और इसके पीछे बड़ी राजनीतिक और कॉरपोरेट ताकतों का हाथ है।
सूचना क्रांति के दौर में बड़ी लड़ाइयों के हथियार बदल गए हैं। अब लड़ाई परसेप्शन यानी अवधारणा की हो गई है। इसके लिए वृतांत यानी नैरेटिव रचे जाने लगे हैं। यह नैरेटिव ही है कि गौतम अडाणी का विकास यानी नरेंद्र मोदी का विकास है। अडाणी के हाथ में देश बिक गया है, यह नैरेटिव कम से कम भारत के उस वर्ग के मन में पैठ गया है, जो सूचना क्रांति से उपजी दुश्वारियों और अंत:पुर की कहानियों को नहीं समझता-बूझता।
जबकि हकीकत यह भी है कि जिस विपक्षी कांग्रेस ने इस नैरेटिव को स्थापित किया है, उसी कांग्रेस शासित खनिज बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में गौतम अडाणी और उनकी कंपनियां सबसे दुलारी हैं। कांग्रेस शासित राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार भी गौतम अडाणी की कंपनियों के साथ ही बेहतर जादू दिखाती हैं। राहुल -प्रियंका की अगुआई वाली कांग्रेस और उसके साथ कोरसगान में शामिल मौजूदा समाजवादी और वामपंथी राजनीति ने यह भी नैरेटिव स्थापित करने की कोशिश की है कि देश को नरेंद्र मोदी ने अंबानी को बेच दिया है। यह उस कांग्रेस का नैरेटिव है, जिसके राज में धीरूभाई अंबानी को टैक्स छूट मिली, पोलिएस्टर आयात की विशेष अनुमति मिली। कांग्रेस से रिलायंस के संबंधों पर एक बार लोकसभा में विपक्ष के नेता रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने चुटकी तक ली थी, रिलायंस या रियल एलाएंस।
यह ध्यान देने की बात है कि केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के विराट उभार के बाद परसेप्शन की लड़ाइयां कुछ ज्यादा ही घनीभूत हो गई हैं। इन लड़ाइयों का प्रत्यक्ष संचालन विदेश से हो रहा है। वैसे इसका असर साल 2011 में ही दिखने लगा था। उस वक्त भी विदेशी धरती से पूरे देश के मोबाइल फोन पर अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के समर्थन में ज्ञान बांटे जा रहे थे। परसेप्शन रचे जाने के इस तरीके को नरेंद्र मोदी ने भी अपनाया और उनके रणनीतिकारों ने उनकी भी छवि बड़ी मेहनत से ऐसी गढ़ी, कि वे देश की राजनीति में आखिरी विकल्प के रूप में उभरे। केंद्रीय सत्तारोहण के बाद कभी न्यूयार्क तो कभी टैक्सास तो कभी लंदन तो कभी कैनबरा तो कभी टोकियो तो कहीं और, मोदी के रणनीतिकारों ने उनके भाषण रखवाए। इसके जरिए मोदी की अंतरराष्ट्रीय छवि रची गई।
लेकिन नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के रणनीतिकारों में एक बुनियादी फर्क है। मोदी के रणनीतिकारों ने विदेशी धरती का इस्तेमाल उनकी छवि रचने और गढ़ने के लिए किया तो कांग्रेसी रणनीतिकार मोदी की छवि धूमिल करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इसके लिए वे छद्म नैरेटिव रचते हैं, सोशल मीडिया के जरिए उसे स्थापित करते हैं और फिर भेड़ की तरह जनता जुट जाती है।
इसके तहत कथित आंदोलनकारी को खिलाने-पिलाने, ठहरने-ठहराने का इंतजाम होता है। उसे प्रचारित करने के लिए भारी-भरकम मीडिया फंड खर्च होता है। कुछ यू ट्यूबर को हायर किया जाता है और परिश्रम एवं बुद्धिमानी से तैयार इस इको सिस्टम के जरिए छद्म नैरेटिव को ऐसा स्थापित किया जाता है कि वह सच लगने लगता है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण करीब साल भर तक चला किसान आंदोलन है। किसान कानून क्या हैं, उनकी कमियां क्या हैं, उस पर गहन बात नहीं होती थी। लेकिन आंदोलन चलता रहा और उसे कनाडा की धरती से आर्थिक सहयोग मिलता रहा। इस्लामी देशों से भी कुछ सहयोग मिला।
ग्रेटा थनबर्ग भारत के किसान कानून को नहीं जानती होंगी, इस बात की पूरी गारंटी है। लेकिन वे भी भारतीय कानून और प्रधानमंत्री के खिलाफ बयानबाजी में उतर आईं। नागरिकता संशोधन कानून के साथ भी यही हुआ। छद्म नैरेटिव स्थापित किया गया कि यह कानून लागू होते ही मुस्लिम लोगों को दर-बदर कर दिया जाएगा। मुस्लिम जनसंख्या के बड़े हिस्से ने इसे स्वीकार भी कर लिया और फिर किसी शाहीन बाग तो किसी सीलमपुर में वह जम गया। इसी दौरान अगर कोरोना की महामारी नहीं आई होती तो शायद इस आंदोलन की स्थिति भी किसान आंदोलन जैसी ही होती। नागरिकता विरोधी आंदोलन को भी विदेशी धरती विशेषकर अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस से सहयोग मिला।
मौजूदा विश्व की धारणा है कि लोकतंत्र शासन का बेहतरीन मॉडल है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि इसके बेहतरीन उदाहरण माने जाते हैं। लेकिन इस व्यवस्था की एक खामी यह भी है कि वहां भी शासन विरोधी शक्तियां उसी तरह की अतिवादी सोच से प्रभावित हैं, जैसा कि मध्य युग में होता था। बस अंतर इतना है कि अब वे सीधे पारंपरिक गोला-बारूद लेकर मैदान में नहीं उतरतीं, बल्कि वे परसेप्शन के हथियार से नैरेटिव के गोला-बारूद से लड़ती हैं। पर्दे के पीछे से अपने हरावल दस्ते को वे लगातार आर्थिक मदद भी करती हैं।
अडाणी पर हमला भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। जिसमें विदेशी जमीन का इस्तेमाल हुआ। हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट की टाइमिंग भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। अमेरिकी कंपनी ने ठीक उसी वक्त अपनी रिपोर्ट जारी की, जिस वक्त अडाणी की कंपनी अपना एफपीओ मार्केट में ला रही थी। यह संयोग नहीं, सुनियोजित विदेशी खेल है कि ठीक बजट सत्र के दौरान इस रिपोर्ट को जारी किया गया। ऐसे में विपक्ष के हंगामे को देखें तो यह मानने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि इसकी टाइमिंग भी रणनीति के तहत चुनी गई होगी।
बहरहाल यह स्पष्ट है कि अब मोदी सरकार और उसके रणनीतिकारों को फोकस विदेशी धरती से होने वाले हमलों पर करना ही होगा। विदेशी माटी से रची छवियों को तार-तार करने में जुटी विदेशी सरजमीं के इस्तेमाल को जवाब देने के लिए रणनीति बनानी होगी। अन्यथा ऐसे हमले होते रहेंगे, छवियों का मूर्तिभंजन होता रहेगा।
– उमेश चतुर्वेदी