कानून व्यवस्था और अपराध

                       भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत ’पुलिस’ और  ’लोक व्यवस्था’ राज्य के विषय हैं और इसलिए अपराध रोकने, पता लगाने, दर्ज करने और जांच-पड़ताल करने तथा अपराधियों के विरुद्ध अभियोजन चलाने की मुख्य जिम्मेदारी, राज्य सरकारों पर है। जाहिर है जैसे राज्य की व्यवस्था और उसके नियामक होंगे, राज्य या उसका कोई क्षेत्र उसी तरह का होगा। कुछ ही मामलो में पूरे राज्य की स्थिति से पूर्वांचल की स्थिति में थोड़ी-बहुत भिन्नता मिल सकती है।

पूरे पूर्वांचल को कानून व्यवस्था की दृष्टि से हमेशा से ही संवेदनशील क्षेत्र माना जाता रहा है। हालंाकि पूर्वांचल के सम्पूर्ण ज़िलों की कानून व्यवस्था संबंधी समस्या एक जैसी नहीं है। यहां सामाजिक और भौगोलिक परिस्थियों की भिन्नता का असर अपराध की प्रकृति और परिमाण में भी दिखाई देता है। देश के सामने जो अपराध की घटनाएं अभी तक चुनौती बनकर उभरी हैं कमोबेश उन्हीं समस्याओं से पूर्वांचल भी ग्रस्त है। हां, जिलेवार इनके परिमाण में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है।

कानून और व्यवस्था और अपराध की दृष्टि से पूर्वांचल का विशेष अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आज ये भौगोलिक और सांस्कृतिक क्षेत्र किसी के अभिशाप का शिकार हो गया है। यद्यपि भारतीय अपराध ब्यूरो के अपने आकडें हैं, पर मैं आंकड़ों पर नहीं जाऊंगा। आंक ड़े भी बनावटी होते हैं, वे तस्वीर को सही नहीं बयां करते। मैं तो वही चर्चा करूंगा, जो सच मेरे जैसे सभी विधि के विद्यार्थियों को नंगी आंखों से दिखाई देता है, भले ही कागजी आकड़ों में नहीं दर्ज है।

पूर्वांचल में कानून व्यवस्था के समक्ष जो सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है, वह है संगठित आपराधिक गिरोहों का वर्चस्व और उनका दिनोदिन बढ़ता जा रहा प्रभाव। विगत कई वर्षों से पूरा का पूरा पूर्वांचल संगठित आपराधिक गिरोहों, जिसे आम बोल चाल की भाषा में माफिया कहा जाता है, के जिले-जिले के अलग सूरमा हैं, लेकिन शायद ही कोई जिला हो जिसमें इस प्रकार के सूरमा न हो और जिनके आतंक से वह जिला न भयाक्रांत हो। इन माफिया तत्वों की कर्म कुंडलियों और प्रभावों को आप आकड़ों में ढू़ंढेंगे तो शायद निराशा हाथ लगेगी, क्योंकि प्रदेश की शासन व्यवस्था में यही नियामक तत्व हैं। ये लोगों का सामाजिक और राजनीतिक भाग्य तय कर रहें हैं। हाल के कुछ वर्षों में अपराध जगत से जुड़े कुछ बड़े नामों के जेल जाने की घटनाएं हुई हैं। लेकिन यह इन अपराधियों का स्वयं का नियोजित कार्यक्रम है। इसमें व्यवस्था ने कुछ किया हो लोग इसका विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। जमीन, मकान, दुकान की खरीदारी से लेकर ठेका, पट्टा और पेंशन सब इनकी कृपा-अकृपा से संभव-असंभव हो रहा है। अभी इलाहाबाद जिले में इसी प्रकार के एक तत्व के ही लोगों ने पहले लोगों को जमीन बेची और बाद में ये कहते हुए कि यह उनकी धार्मिक जमीन पर अवैध निर्माण है, ५० से अधिक बने मकानों को स्वयं खड़े होकर बुलडोजर चलवाकर गिरवा दिया। सारा शासन प्रशासन पंगु तो छोड़िए उसके आगे अंधा, गूंगा और बहरा बन गया। लोग इस बात से जरा भी न उद्वेलित हुए न चौंके; क्योंकि वे जानते हैं यही उनकी नियति बन चुकी है। हां, मेरे जैसे कुछ लोगों को इस बात का जरूर थोड़ा दुख हुआ कि बस चंद कदम की दूरी पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय भी है और वह भी इसे नहीं देख सुन पाया। शायद यह सच्चाई कम लोगों को पता होगी कि आज किराएदारी में एविकेशन के मामले न्यायालय से ज्यादा इन माफियाओं द्वारा निपटाए जाते हैं। यह हंडी के चावल की एक बानगी भर है। पूरे प्रदेश का कमोवेश यही हाल है।

सोनभद्र और इलाहाबाद का मध्य प्रदेश से लगने वाला पहाड़ी क्षेत्र विगत कई वर्षों से नक्सली आतंकवाद की समस्या से जूझ रहा है। आंतरिक रिपोर्ट जो कहानियां कहती हैं, उनमें यहां शासन के विकास के पैसे में नक्सलियों का भी हिस्सा लगता है। इधर कई सरकारें आई गईं; लेकिन किसी ने इस  समस्या को जड़ मूल से समाप्त करने का कोई गंभीर प्रयास किया हो ऐसा नजर नहीं आता।

सोनभद्र और इलाहाबाद ज़िलो में ही अवैध खनन और प्राकृतिक संसाधनों का अवैध व्यापार एक बहुत गंभीर समस्या बनकर उभरी है। यद्यपि अभी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से इलाहाबाद के कुछ क्षेत्रों में इस प्रकार के अवैध खनन पर थोड़ा अंकुश लगा है, पर शासन प्रशासन और खनन माफियाओं के अवैध गठजोड़ के कारण अभी भी यह रुक नहीं सका है।

ऊपर जिस प्रकार के माफिया तत्वों की मैंने चर्चा की है, उनको उनके कार्य की पहचान के आधार पर जो एक नाम दिया गया है वह है भू-माफिया। वैसे तो भू-माफिया तत्वों का प्रभाव सब जगह है किन्तु शहरी क्षेत्रों में जहां नई-नई कालोनियां विकसित हो रही हैं, और जहां भिन्न-भिन्न जगहों से आ कर बसने वाले लोगों की आबादी है, ऐसे जिनका उस नई जगह पर कोई सामाजिक आधार नहीं होता और लोगों का आपस में किसी प्रकार का जुड़ाव नहीं होता उन जगहों पर ये भू-माफिया पूरी तरह से हावी हैं। किसी व्यक्ति को उसके द्वारा खरीदी गई जमीन में कब्जा लेने से रोकना, खरीदार से अपनी खरीदी जमीन में ही बसने देने के बदले पैसे लेना, एक ही जमीन को एक से अधिक लोगों को बेचना और फिर सभी खरीदारों को आपस में लड़ाना और फिर किसी एक से मिल जाना या फिर उस जमीन को किसी और को बेच देना ये सब उनके कार्य के उदाहरण हैं। इक्कादुक्का घटनाओं को छोड़कर ये आकड़ों में दर्ज नहीं हो पाते। लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद आज इस प्रकार के अपराध के बहुत बड़े केंद्र बनकर उभरे हैं। यह सब काम बड़े ही संगठित माफिया तत्वों द्वारा किया जाता है। ऐसे भू-माफिया तत्व या तो स्वयं ही राजनीतिक हैं या प्रभावशाली राजनीतिक व्यक्तियों के संरक्षण में ये कार्य करते हैं।

जिस विशेष प्रकृति के अपराध की घटना में अभी पूर्वांचल क्षेत्र में अन्य सभी प्रकार की अपराधों की तुलना में सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है वह है सांप्रदायिक विद्वेष के उन्माद में  किए जाने वाले अपराध। पूर्वांचल का सांप्रदायिक सद्भाव लगभग बिगड़ चुका है। मऊ के दंगों ने जो नाश किया था, एक समय आजमगढ़ से अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों के जिस प्रकार से जुड़ते दिखाई देने लगे थे, उसने लोगों में भय और असुरक्षा पैदा कर दी थी। यद्यपि कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों की सक्रियता के कोई समाचार नहीं आ रहे हैं; लेकिन सांप्रदायिक सद्भावना अब वहां दूर की कौड़ी बन गई है। अभी कोई विगत कुछ वर्षों की सांप्रदायिक हिंसा और झड़पों की घटनाओं ने समाजशास्त्रियों को चौंका दिया है। हर छोटी-छोटी बात पर तलवारें खिंच जा रही हैं। ये इतनी ज्यादा है कि अब इन्हें आकड़ों में गिन पाना संभव नहीं है। किसी की जिद होती है कि यहां बाजा नहीं बजेगा तो कोई इस जिद पर उतारू है कि चाहे जो हो जाए बाजा यहीं बजेगा। पूर्वांचल का हर जिला अब इस मामले में एक दूसरे को पीछे छोड़ रहा है। सरकार अपराधी और पीड़ित की जाति धर्म देखकर अपने चुनावी हितानुकूल कार्यवाही कर रही है।

महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की घटना में पूरे देश में अकल्पनीय वृद्धि हुई हैै। इन अपराधों की घटनाएं न केवल नित्य निरंतर बढ़ती जा रही हैं, बल्कि भयावह रूप लेती जा रही हैं। आकड़ों के लिहाज से देखें तो पूर्वांचल भी इससे अलग नहीं। महिलाओं और युवतियों को तो छोड़िए, अधेड़, पागल, गूंगी बहरी और छोटी-छोटी लड़कियों के साथ भी छेड़छाड़, बलात्कार और उसके पश्चात हत्या की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं।  पारिवारिक और सामाजिक मान्यताएं टूट रही हैं। निकट के रिश्तों में यौन शोषण और अपराध की घटनाएं अब आम खबर हो गई है। समाज को तो छोड़िए, कानून के रक्षकों में ही आज इस प्रकार के यौन अपराधों के कर्ता और पीड़ित दोनों मिल जाएंगे। महिला सम्मान के विरुद्ध अपराधों का बढ़ना चिंताजनक तो है ही; किन्तु उससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि अब इन घटनाओं से लोग चौंकते नहीं, लोगों की संवेदना नहीं जागती। मीडिया के लिए ये जरूर एक मसालेदार खबर होती है पर नारी सम्मान के लिए रामायण और महाभारत का युद्ध लड़ने वाला यह समाज अब इस पर उद्वेलित नहीं होता। इन्हें रोक पाने में पूरी की पूरी कानून व्यवस्था स्वयं को पंगु पा रही है।

महानगरीय जीवन का आज जो सबसे बड़ा अभिशाप बनकर उभरा है वह है सड़क दुर्घटना का शिकार होना। १९९० के बाद में अपनाए गए आर्थिक मॉडल ने देश की आर्थिक तरक्की तो की, लेकिन यह बड़ी अनियोजित तरक्की रही। हमने सड़कें तो बनाईं पर उनके किनारे-किनारे बाजार और दुकानें बसा दीं। इस बीच वाहनों की संख्या में देश की जनसंख्या से भी ज्यादा वृद्धि हुई। आज वाहन ज्यादा है किन्तु चलने के लिए सड़कें नहीं हैं। जिसका दुष्परिणाम यह है कि आज जाम की समस्या शहरी लोगों की नियति है। सकड़ें खस्ताहाल हैं और वे दोनों तरफ से आबादी और दुकानों से घिरी हैं। वाहनों की चलने की जगह में पैदल लोग, आवारा पशु चल रहे हैं। इन परिस्थितियों में कब किसकी तकदीर धोखा दे जाए कहना मुश्किल है। शहरी बनने की कीमत लोग अपनी जान देकर या अंगभंग होकर चुका रहे हैं।  वाहनों की अधिकता, अनियोजित शहरी विकास ने जाम की जो गंभीर समस्या पैदा की है उसके परिणामस्वरूप हर शहरी तनावग्रस्त रहने लगा है और उस तनाव में वह क्या अनहोनी कर दे, कुछ भी कहना मुश्किल रहता है। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, गोरखपुर जैसे बड़ी आबादी वाले क्षेत्र ही नहीं आज मिर्ज़ापुर, देवरिया, गाजीपुर जैसे छोटे शहरों में भी यह तेजी से समस्या बनकर उभरा है। जिसका कोई ठोस समाधान अभी तो न कानून व्यवस्था के पास है न हमारे नियामक तंत्र के पास है।        साइबर क्राइम नया और तेजी से बढ़ने वाला अपराध है। जिस प्रकार से एक वास्तविक दुनिया है और एक आभासी, जिसमें वास्तविक दुनिया की सब चीजें आभासी रूप में मौजूद हैं उसी प्रकार से आज साइबर की दुनिया में वास्तविक दुनिया के सारे अपराध साइबर संस्करण में संस्कारित किए जा रहे हैं। चोरी, बेईमानी, धोखा, लूट, ठगी, अश्लीलता, किसी का मानभंग करना, अवैध कारोबार सब प्रकार के अपराध इस दुनिया के माध्यम से किए जा रहे हैं। इससे निपटने के लिए जहां हमारी कानून व्यवस्था में इच्छा शक्ति अभाव है वहीं उनके पास इससे निपटने का आवश्यक ज्ञान भी नहीं है। इस दुनिया के अपराधी कानून व्यवस्था की रक्षा का दम भरने वालों से कहीं ज्यादा चालाक और विषय के ज्ञानी हैं। आज पूर्वांचल इस अपराध का बड़ी तेजी से अड्डा बनकर उभरा है। अभी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश महोदय के ईमेल को हैक करके ६८ लाख रुपये का गबन किए जाने का मामला सुर्खियों में रहा है। पूर्वांचल के लगभग सभी महानगरीय क्षेत्र आज इस प्रकार की आपराधिक घटनाओं से त्रस्त हैं।

चोरी छिनैती की घटनाएं नित्य निरंतर जारी हैं। जो आश्चर्यजनक बात है वह यह कि साइबर क्राइम, राहजनी, छिनैती जैसे अपराधों की घटनाओं को अंजाम देने वालों में ज़्यादातर खाते-पीते घरों के लड़के/लड़कियां हैं, जो अपने महंगे शौक पूरे करने के लिए अपराध की दुनिया में कूदे जा रहे हैं।

अभी पूर्वांचल की कानून और व्यवस्था लिए जो समस्या पुनः चुनौती बनकर उभरी है वह छात्र-संघ का चुनाव और छात्र नेताओं का व्यवहार। जुलाई से अक्टूबर तक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव के समय जो हिंसा और तांडव होता है वह किसी दंगे से कम डरावना या विनाशक नहीं होता। जीतने या हारने के बाद ये छात्र संघ के नेता/ उम्मीदवार साल भर कानून और व्यवस्था लिए के लिए चुनौती बने रहते हैं।

पूर्वांचल ही नहीं पूरे उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था लंबे समय से पटरी से उतरी हुई है। यह किसी तरह से लड़खड़ा कर चल रही है बस। ये एक कड़वा सच है कि नेता और पुलिस आपस में गठबंधन किए बैठे हैं। पूरे प्रदेश में अधिकांश पेशेवर अपराधी राजनीतिक और पुलिसिया संरक्षण प्राप्त हैं। इस मामले में पूर्वांचल की कोई अलग तस्वीर नहीं है।

कानून व्यवस्था के से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है, स्वयं कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति का बहुत तेजी से विकास हो रहा है। लोगों में पूरी व्यवस्था के प्रति किस कदर भयानक असंतोष है इसे शायद समझा नहीं जा रहा है या समझकर भी आंख मूंद ली जा रही है। लोग छोटी-छोटी बातों पर और छोटी-छोटी मांगों को लेकर सड़कों पर आ रहे हैं, आवागमन बंद कर रहे हैं। कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं। सरकारी और लोक सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। सरकार यहां भी अपराधी और पीड़ित की जाति धर्म देखकर अपने चुनावी हितानुकूल कार्यवाही कर रही है।

कानून व्यवस्था की रही सही कसर हमारे देश की न्याय व्यवस्था पूरी कर देती है। अगर किसी पुलिस वाले ने साहस करके किसी अपराधी को पकड़ भी लिया तो ट्रायल का लंबा दौर चलता है। आज दारोगा यहां है। ट्रायल १० साल तक चलेगा। १० साल बाद वह कहां होगा कोई नहीं जानता, पर उसने एफ़आईआर लिखी है, विवेचना की है तो उसे गवाही, क्रास एक्जामनेशन के लिए आना होगा। आगे कभी सरकारी वकील को फुर्सत नहीं, कभी डिफेंस  का वकील तैयार नहीं है। सब तैयार हो तो जज साहब छुट्टी पर हैं, ऐसी ही राम कहानी चलती रहती है। अब कोई पागल होगा जो पुलिस की अच्छी ख़ासी नौकरी में ये सब बवाल मोल लेना चाहेगा। परिणाम यह है कि वह हर बात वह करेगा कि एफ़आईआर न करनी पड़े। एफ़आईआर हो ही गई तो किसी तरह से फाइनल रिपोर्ट लगाकर मामले से आगे के लिए बरी हो। शायद यही कारण है कि आज ३० प्रतिशत मामलों में ही एफ़आईआर और उनमें भी केवल आधे मामलों में चार्जशीट दाखिल हो पाती है। चार्जशीट वाले मामलों का ट्रायल का औसत समय ७ वर्ष है और सजा की दर ३ प्रतिशत। ये शायद राष्ट्रीय सूचकांक है। आंकडें उपलब्ध नहीं हैं पर मैं विश्वास के साथ कहता हूं कि पूर्वांचल की स्थिति बाकी देश से भी खराब होगी। शायद पूर्वांचल सहित पूरे उत्तर प्रदेश को अच्छे दिन के आने की उम्मीद लिए ये दंश अभी कुछ और समय तक सहते रहना होगा।

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