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समाज के रूप में हमेशा युद्ध के मोड में नहीं रह सकतें

समाज के रूप में हमेशा युद्ध के मोड में नहीं रह सकतें

by हिंदी विवेक
in विशेष, संस्कृति
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कोलकाता के व्यापारी बटुक भाई और मूर्धन्य ज्योतिषी श्री के.एन. राव के मंत्र गुरु स्वामी परमानंद सरस्वती जी थें। अर्थात दोनों गुरु भाई थें। राव साहब भगवान विष्णु के उपासक रहे हैं और आजीवन अविवाहित रहकर अपने इष्ट की भक्ति में जीवन को समर्पित कर दिया। इनके दिल्ली के आवास पर प्रत्येक बुधवार को सांय काल में सामूहिक रूप से विष्णुसहस्रनाम का पाठ होता रहा है।

राव साहब केन्द्र सरकार की इंडियन ऑडिट एंड अकाउंट्स सर्विस में कार्यरत रहते हुए जहाँ भी इनकी पोस्टिंग होती थी वहाँ के आसपास के धार्मिक स्थलों और संतों के दर्शन का अवसर ढूँढ लिया करते थें। जब ये गुजरात के राजकोट में भारत सरकार के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक थें, तब वहाँ से रविवार को द्वारिका में द्वारिकाधीश के दर्शन करने चले जाया करते थें।

एकबार इनके साथ इनके गुरु भाई बटुक भाई भी द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए साथ चले गयें। वे दर्शन के बाद राव साहब से बोलें कि कान्हा तो सुन्दर लग रहा था, पर राधारानी के आगे फीका लग रहा था। राव साहब मौन रहें और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। लेकिन बटुक भाई वापस लौटते समय रास्ते में बहुत बड़े यही बोल रहे थें कि कान्हा राधारानी के आगे फीका लग रहा था।

अब राव साहब भावुक होकर बोलें कि द्वारिकाधीश मन्दिर में सिर्फ श्री कृष्ण की प्रतिमा है, यहाँ राधारानी विराजमान नहीं हैं और यदि आप पर कृपा बरसाकर साक्षात राधारानी ने दर्शन दे दिया है तो फिर मानव निर्मित कान्हा की प्रतिमा जगतजननी के साक्षात रूप के आगे तो फीका ही लगेगा। यह सुनते बटुक भाई भावातिरेक में विह्वल होकर रो पड़ें।

विद्वानों के बीच यह हमेशा तर्क-वितर्क का विषय रहा है कि राधा का अस्तित्व रहा है या यह सिर्फ कवियों की कल्पना रही है। जब इस विषय पर हम साहित्यिक दृष्टि से विचार करते हैं तो स्वाभाविक रूप से राधा का चरित्र विभिन्न कवियों द्वारा विभिन्न रूपों में गढ़ा होने के कारण उनके अस्तित्व पर संशय उत्पन्न करने लगता है। भारतीय साहित्य में छठी सदी से बीसवीं सदी तक राधा लगातार उपस्थित रही हैं। बारहवीं सदी में जयदेव के गीत गोविन्द से राधा को साहित्य जगत में बहुत प्रमुखता से स्थान मिलने लगा, लेकिन यहाँ राधा से अधिक कृष्ण का महत्व है।

विद्यापति ने अपने पदों में राधा को कृष्ण के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है और कई स्थानों पर तो राधा को कृष्ण से अधिक महत्व दे दिया है। सूरदास के साहित्य में विरह की तीव्रता सघन रूप में राधा में दिखाई देती है पर कृष्ण में वह तीव्रता नहीं है। विद्यापति के पदों में विरह की सघनता दोनों पक्षों में है। राधा विरह की चरम अवस्था में खुद को भूलकर कृष्ण हो गई हैं और कृष्ण मथुरा में राधा के वियोग में अवसाद में चले गये हैं।

सूरदास से पहले काव्य में राधा का परकीया रूप स्वीकृत था, लेकिन इन्होंने पहली बार राधा को स्वकीया रूप में प्रस्तुत किया और उसे कृष्ण की पत्नी बताया- “दुलहनी दूल्हा स्यामा श्याम।” सूरदास ने राधा को जगतजननी पराशक्ति के रूप में स्वीकार किया है, जो संपूर्ण चराचर जगत की अधिष्ठात्री हैं- “सेस, महेस, गनेस, सुकादिक, नारदादि की स्वामिनी।”

आगे बिहारी, हरिऔध ने अपने व्यक्तित्व और तत्कालीन समाज के अनुरूप अपने काव्य में राधा को प्रस्तुत किया। इन कवियों के कारण राधा का चरित्र काव्य में सतत परिवर्तनशील बना रहा, जिसके कारण विद्वानों ने इस चरित्र को मिथक ही मान लिया। चलिए, हम भी मान लेते हैं कि राधा एक काल्पनिक पात्र है, लेकिन बटुक भाई जैसे भक्तों के माध्यम से राधारानी जो अपना साकार झलक दिखा रही हैं, उस अनुभव को उठाकर कहाँ फेंक दिया जाए? राधा का अस्तित्व इन मरणधर्मा कवियों के कारण नहीं है, बल्कि यह अनंतकाल से लाखों भक्तों को हुए उनके व्यक्तिगत अनुभव के कारण है।

ऐसे ही सनातनियों की एक जिद्द है कि उन्हें महाभारत करवाने वाला कृष्ण चाहिए न कि बाँसुरी बजानेवाला कृष्ण चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने बंसी बजाने वाले बाँकेबिहारी जी की पूजा के स्थान पर श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देकर अर्जुन के द्वारा महाभारत युद्ध को विजित करवाने वाले कूटनीतिज्ञ और योद्धा कृष्ण को भजने का आग्रह किया था। उस समय की देश और बंगाल की स्थिति ऐसी थी कि हिन्दू दीन-हीन बने हुए थे और अपने पौरुष से हताश थें, उन्हें जगाने के लिए तत्काल ऐसा करना उचित भी था।

लेकिन हम एक समाज के रूप में हमेशा युद्ध के मोड में नहीं रह सकतें। शान्ति काल में हमें बाँसुरी बजानेवाले कृष्ण की भी आवश्यकता पड़ेगी। जिन्हें कभी भी जीवन में मिस्टिकल अनुभव हुआ होगा, वे ही समझ सकते हैं कि कृष्ण की बाँसुरी का महत्व क्या है? वह सिर्फ गोपियों को ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों तक को ब्रह्मानन्द का स्वाद चखा देती थी।

महाभारत का कृष्ण सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन के लिए आवश्यक है तो बंसीधारी कृष्ण जीव के व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। मैं तो कृष्ण के हर रूप पर बलिहारी जाऊँ। इतने विराट व्यक्तित्व को उसी के व्यक्तित्व के किसी एक आयाम में बाँधना, उस व्यक्तित्व का अनादर करना होगा। सनातनियों को भगवान श्री कृष्ण के व्यक्तित्व के दो महान आयामों को आपस में विरोधाभासी न मानकर इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना होगा।

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