कुमार विश्वास का कहना है कि संघ अर्थात् आरएसएस वाले लोग अनपढ़ हैं। उन्होंने कहा – ये लोग कहते हैं ” हमारे वेदों में … “, जबकि इन्होंने कभी वेद उठाकर नहीं पढ़ा। कौनसे पन्ने पर क्या लिखा है ? वेद पढ़ने वाले को विप्र कहते हैं, युगकवि। वेद पाठात् भवेत विप्र:। यहां भी वेद शब्द जानने के क्रम में है। वेद शब्द केवल वेद-ग्रंथ के लिए प्रयुक्त नहीं होता, चतुर्वेदी जी को इतनी जानकारी भी नहीं है।
न पढ़े लिखे होने की प्रामाणिकता के लिए वेद पढ़ना आवश्यक है और न ही ज्ञानी होने के लिए। ख़ैर … इससे पहले युगीन कबीर पर बात करते हैं। कवि ने एक बार नहीं, कई बार अलग-अलग साक्षात्कारों में एक श्लोक उच्चारा – सन्तुष्टा द्विजा नष्टाः असन्तुष्टाश्च महीपति। जबकि श्लोक की पंक्ति है – असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीपति। तुकबंदी-तीरंदाज ने सर्वथा उल्टा कर दिया। अर्थ का अनर्थ। आप कहेंगे – यह मानवीय भूल है, तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। महाकवि इसकी व्याख्या भी टिका देते हैं।
मुक्तक-मनीषी ने कौटिल्य एकेडमी में भाषण दिया। वहां उन्होंने एक उक्ति कही – कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः। फिर इसकी व्याख्या करते हुए बोले – कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन ! जो कर्म तेरे दाएं हाथ में है, तो विजय तेरे बाएं हाथ में होगी।
अरे ! महाराज, यह अथर्ववेद की उक्ति है, वहां कहां से आ गए अर्जुन ?
एक बार उन्होंने पुरुष को नासदीय सूक्त बना दिया था। फिर हमारे मित्र ने आपत्ति दर्ज़ करवाई, तब जाकर उन्होंने संशोधित किया। एकदा कवि ने कालिदास के श्लोक की ऐसा व्याख्या प्रस्तुत कर दी कि यदि मल्लीनाथ जी आज वर्तमान होते तो अपनी पांडुलिपि कवि के मुंह पर पटक देते। ज्ञान-मीमांसक कवि की विद्वता के कई सारे किस्से हैं। यहां मेरे लिए शब्दों की सीमा बाधक बनी हुई है, सो फिर कभी।
हां, कवि के अनुसार उसने हजारों रातें कवि सम्मेलन में गुजारी हैं, तो सीधी सी बात है कि उसे दिन में सोना भी पड़ता होगा। फिर 17 बरस विश्वविद्यालय पढ़ाया। प्रेम किया, अन्य कवियों को भी पढ़ा। आंदोलन किया, राजनीति की। तिस पर प्रारंभ में वो विज्ञान के विद्यार्थी रहे। ऐसे में मुझे कोई इस प्रश्न का उत्तर देगा कि काव्यकुलभूषण कुमार सर ने वेद कब पढ़े ? वेदों पर किस मनीषी का भाष्य पढ़ा ?
क्योंकि वेद कोई नई हिंदी के उपन्यास नहीं हैं, जो चलते फिरते पढ़ लिए। अव्वल तो, बहुत संभावना है कि वेद बिना गुरुमुख के समझ ही नहीं आते। फिर भी, कवि जी महाज्ञानी व्यक्ति हैं, तो फिर वेदांग, निरुक्त, मूल वेदों का पाठ और फिर भाष्य … एक व्यक्ति को जीवन खपाना पड़ जाता है।
हे ! चुटकुला-सम्राट, संघ को आप जैसे मंचीय कवि से पढ़ने लिखने का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए। वह संसार का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। उसके अनुषंगी संगठनों से गए लोगों में देश के प्रधानमंत्री हैं, कई मंत्री, मुख्यमंत्री हैं। ये सब अनपढ़ हैं, केवल कवि वाचस्पति हैं।
और हां, कवि स्वयं को अटल बिहारी वाजपेयी स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स का विद्यार्थी मानते हैं … यह वही वाजपेयी जी हैं, जिन्होंने संसद में कहा था कि संघ मेरी आत्मा है।बकौल कवि, उनके पारिवारिक लोग संघ के अलग अलग प्रकल्पों में काम करते रहे हैं। फिर तो कवि अपने परिवार वालों को अनपढ़ कह रहे। बात पढ़ने लिखने की है ही नहीं। राष्ट्रसेवा के लिए पढ़ना कोई अनिवार्य योग्यता नहीं। हम संघी तो केवट की भूमिका में हैं, हमारा काम प्रभु श्री राम को समर्पित है; बाकी पढ़ा-लिखा, वेदों का पंडित तो रावण भी था।
– प्रवीण मकवाणा