अंतर्बाह्य समरसता ध्येयमार्गी – पद्मश्री रमेश पतंगे

संघ विचारक, संपादक, राष्ट्र चिंतक, लेखक, सामाजिक परिवर्तन के पुरोधा श्री रमेश पतंगे को भारत सरकार के माध्यम से पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हुई है। रमेश पतंगे को मिला यह पद्मश्री पुरस्कार सिर्फ उनके स्वयं का नहीं है तो समाज को संगठित करने का, समाज को दोष मुक्त कर प्रगति पथ पर ले जाने वाले विचारधारा को मिला हुआ यह सम्मान है। राष्ट्र चिंतन की विचारधारा में जो सामर्थ्य है उस सामर्थ्य का प्रतीक के रूप में रमेश पतंगे के इस सम्मान को देखा जा रहा है।

संघ विचारक, लेखक और विवेक समूह की मातृ-संस्था हिंदुस्थान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष रमेश पतंगे का सम्पूर्ण जीवन ही संघमय और राष्ट्र चिंतन से जुड़ा है। उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हुई है। उनके संघ कार्य एवं राष्ट्र चिंतन के प्रदीर्घ प्रवास का परिचय देने का छोटा सा प्रयास है। रमेश पतंगे का नाम सामने आते ही, अपने विचारों पर अडिग रहकर सम्पूर्ण जीवन में मार्गक्रमण करने वाले सटीक व्यक्तिमत्व का चित्र सामने आता है। पत्रकार, साहित्यकार ,सामाजिक चिंतक, विचारक, वरिष्ठ संघ स्वयंसेवक और अन्य कई विशेषताओं के कारण वह भारत भर में जाने जाते हैं। विभिन्न आयामों में अपना करिश्मा दिखाने वाले रमेश पतंगे के नस-नस में राष्ट्रहित और हिंदूहित समाया हुआ था। उन्होंने पत्रकारिता को कैरियर की दृष्टि से कभी नहीं देखा। हिंदुत्व और देश के लिए जो हितकर है, उसे सही समय आने पर प्रकाशित करना ही चाहिए, इसी विचारों से हमेशा निडर होकर उन्होंने अपना कार्य किया है। जब एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गिर गई थी, उसमें तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन (जो कि भाजपा के धुर विरोधी थे) ने अहम भूमिका अदा की थी। तब पतंगे ने उनके खिलाफ साप्ताहिक विवेक के अंक में एक संपादकीय में लिखा था कि अटल सरकार गिराने में इस खलनायक की भूमिका को नहीं भूलना चाहिए। साथ ही किस प्रकार खलनायक की भूमिका निभाई इस बात का भी आलेख में उल्लेख किया था। इसके बाद उन्हें एक दैनिक समाचार पत्र के कार्यालय से किसी ने फोन किया और कहा कि, ‘आपने राष्ट्रपति को खलनायक कहा है, आप पर कानून की कार्रवाई हो सकती है और आपको जेल भी जाना पड़ सकता है।’ तब रमेश पतंगे ने उनसे कहा, ‘भाई साहब! मुझे जेल जाने की धमकी न देना। मैं संविधान की रक्षा के लिए 14 महीने जेल जाकर आया हूं। मैं अपना लिखा हुआ एक भी शब्द वापस नहीं लूंगा। जो करना है, कर लो।’

आप अपनी सत्यनिष्ठा के प्रति अडिग रहते हैं और उससे पूरी तरह से सहमत हैं तो प्रतिकूल बातें भी आपके लिए अनुकूल बन जाती हैं। पतंगे जी के सत्य कथन करने वाले इसी रवैये और संघर्ष के भाव से ही आज वे साहित्य, वैचारिकी एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना परचम लहराने में सफल हुए हैं। वर्तमान में महाराष्ट्र सहित देश के सामाजिक क्षेत्र में जो सकारात्मक परिवर्तन महसूस हो रहा है उस परिवर्तन में रमेश पतंगे के वैचारिक चिंतन का बहुत बड़ा योगदान है।

उनका बचपन झुग्गी-झोपड़ी में गुजरा है। वहां सामाजिक चिंता-चिंतन इत्यादि का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता है। फिर भी समता, सामाजिक समरसता, राष्ट्र चिंतन, सामाजिक न्याय, वैभवशाली राष्ट्र जैसे विचार उनमें उमड़कर कैसे आए हैं। इस बात के पीछे का मूल कारण है बाल्यावस्था में उन पर जो रा. स्व.संघ के संस्कार हुए, वे बेहद प्रभावी रहे। हम सब हिंदू हैं, हम सब भाई हैं, भारत हमारी माता है। किसी भी प्रकार का ऊंच नीच, भेदभाव हमें नहीं करना चाहिए। सबके साथ आत्मीय व्यवहार करना चाहिए। ऐसे मानवीय विचार अंधेरी के गुंदवली गांव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में सिखाते थे। बचपन में संघ की शाखा में मिले यही प्रभावी विचार अंधेरी के गुंदवली गांवठन की झुग्गी झोपड़ियों की बस्ती से रमेश पतंग को पद्मश्री पुरस्कार तक ले गए हैं।

आपातकाल के समय उनको 14 माह के लिए मीसाबंदी के रूप में कारावास में रखा गया था। जेल से छूटने के बाद उनके विचारों में प्रखरता आ गई । वह देश में एक चिंतक, विचारक के नाते प्रसिद्ध हो गए।

जेल में उन्होंने पहली बार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का जीवन चरित्र पढ़ा। इसके बाद उनके अंदर का चिंतक जाग्रत हो गया। उन्हें संज्ञान हुआ कि मैं संघ के सात्विक वातावरण में पला बढ़ा हूं, लेकिन संघ को छोड़ कर जो बाकी समाज है वह जाति-पांति, भेद-भाव, छुआ-छूत और ऊंच-नीच को मानने में लिप्त है। संघ के बाहर की दुनिया को समझने की उनकी जिज्ञासा बढ़ने लगी। इसी जिज्ञासा के चलते उन्होंने स्वाध्याय आरम्भ किया और अस्पृश्यता, छुआ-छूत, जाति-पांति के बंधन से समाज को मुक्त करने के लिए सामाजिक समरसता निर्माण हेतु कार्य प्रारम्भ किया। जेल में चौदह महीने तक किए गए गहरे अध्ययन व चिंतन के कारण उनके जीवन को एक नई दिशा मिली। श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगडी ने सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की और उस काम का दायित्व उन पर आया। वह अपनी प्रभावी लेखनी द्वारा अपने विचारों को प्रस्तुत करते गए। पाठकों ने उनके चिंतनशील विचारों को स्वीकार किया। उन्हें राष्ट्रीय एवं सामाजिक स्तर के प्रभावशाली विचारक एवं चिंतक का सम्मान प्राप्त हुआ।

उनके अध्ययन व आकलन के अनुसार सामाजिक समरसता का सिद्धांत डॉ.आंबेडकर ने दिया और डॉ. हेडगेवार ने उसे सामाजिक स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य के माध्यम से यथार्थ में कर दिखाया। दोनों का कार्यक्षेत्र अलग था लेकिन अपने-अपने कार्यों के आधार पर दोनों ही महापुरूष हैं। संविधान ने हमें मानव अधिकार, स्वतंत्रता व समता तो दी है लेकिन समाज में बंधुत्व की भावना निर्माण किए बिना सामाजिक समरसता होना सम्भव नहीं है। डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के समता के विचार और डॉक्टर हेडगेवार के राष्ट्र एवं समाज हित के विचारों को यथार्थ में लाने के लिए रमेश पतंगे ने अपना पूरा जीवन लगा दिया।

जब उन्होंने सामाजिक समरसता मंच का कार्य प्रारम्भ किया तब उनके पास कार्य को कैसे आगे बढ़ाना है इसकी कुछ विशेष जानकारी भी नहीं थी। बस पूजनीय डॉ. हेडगेवार की प्रेरणा एवं सिद्धांत ही थे, जिससे समाज एवं देश हित में किया गया कार्य सफल होना ही है। इसी तरह शुभ संकल्प के साथ कार्य करते-करते सामाजिक समरसता परिषद, सामाजिक समरसता मंच, भटके विमुक्त परिषद, समरसता साहित्य परिषद जैसे अनेक नए संगठनों का निर्माण कर रमेश पतंगे समाज के बीच निरंतर कार्य करने लगे। इसी के माध्यम से समाज में परस्पर बंधुत्व भाव निर्माण होने के साथ ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे। सामाजिक समरसता एवं सामाजिक एकता को बल मिला। वह राज्य व्यवस्था श्रेष्ठ है जहां न कोई दुखी है, न दीन है, न कोई अशिक्षित है और न ही कोई चरित्रहीन है। ऐसा जो समाज होगा, वह श्रेष्ठ समाज होगा। यह बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय संकल्पना है, संघ कार्य की भी यही आत्मा है। संघ कहता है कि इस राष्ट्र को परम वैभवशाली बनाना है। वैभवशाली का यही अर्थ है, सामाजिक न्याय की संकल्पना भी संघ कार्य का अंतर्निहित अंग है। हिंदू धर्म में ही सामाजिक न्याय का स्रोत है, यह विचार उन्होंने साहित्य के माध्यम से समय-समय पर रखा है। रमेश पतंगे ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस मूल भाव को गहराई से समझ लिया था। उनकी सोच और कार्य समाज के अंतरमन में परिवर्तन लाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा।

उन्होंने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में गांधी के विचारों को समाज के सामने प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया। तब उनके सामने प्रश्न उपस्थित किया गया कि यह आप में आया हुआ परिवर्तन है या आपके संस्कार हैं? तब उन्होंने अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा था कि, संघ का मानना है कि जिसने भी राष्ट्रहित में निःस्वार्थ भाव से कार्य किया है, वे सब हमारे हैं। उस व्यक्ति की विचारधारा क्या है, यदि वह संघ को कुछ भला-बुरा भी कहता है तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी राष्ट्र सेवा का सम्मान संघ करता है। उनका देश हित में किया हुआ कार्य, दिया हुआ यह जीवन समर्पण चिरंतन रहने वाला है, ऐसा यह संघ का मानना है। निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र सेवा करने वालों से संघ का नाता नैसर्गिक रूप में जुड़ जाता है। गांधीजी का पूरा जीवन समाज समर्पित था और देश के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को जोड़ने का जो उनका प्रयास रहा वह उनकी सबसे बड़ी महानता है। सनातन भारतीय मूल्यों, संस्कारों का पालन करते हुए उन्होंने समाज के सामने जो आदर्श स्थापित किए वे अनुकरणीय हैं। एक स्वयंसेवक और इस राष्ट्र का एक घटक होने के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि महात्मा गांधी के सकारात्मक प्रासंगिक विचारों को मैं सबके सामने लाऊं। इसी प्रकार देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संदर्भ में रमेश पतंगे का चिंतन है कि, अब राजनीति का केंद्रबिंदु ‘देश’ होने लगा है। धारा 370, 35-ए हटाना, पुलवामा के बाद पाकिस्तान के अंदर घुसकर बदला लेना, चंद्रयान-2 का प्रयास आदि महत्वपूर्ण कदम देशहित में काम करने के प्रमुख उदाहरण हैं। मोदी सरकार के आने के बाद तेज गति से सभी स्तर पर सकारात्मक परिवर्तन हो रहा है। गांधी कोई बात कहते थे तो उनके पीछे देश चल पड़ता था। आज फिर उसी तरह नरेंद्र मोदी के पीछे देश सहित दुनिया चल रही है।

वह 35 वर्षों तक सा. विवेक के सम्पादक रहे और अब हिंदुस्थान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष के रूप में अपना योगदान दे रहे हैं। विवेक परिवार और संस्था की प्रगति में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है। विवेक जैसी संस्था किसी एक व्यक्ति के कर्तृत्व पर खड़ी नहीं होती। उसमें सामुहिक योगदान आवश्यक होता हैं। विवेक का काम करते समय किसी भी विषय पर सबकी सहमति बनानी होती हैं। सहमति होने के कारण हाथ में लिया हुआ काम अपना लगने लगता है। उन्होंने विवेक में एक टीम खड़ी की और सामूहिक भाव से काम किया। विवेक का कार्य आगे बढ़ाते समय राष्ट्रीय विचारों को प्रचारित करने वाली साप्ताहिक विवेक पत्रिका का कॉन्सेप्ट उनके मन में स्पष्ट था। यह कार्य सफल होने पर मुझे कोई बड़ा पद, प्रतिष्ठा या पुरस्कार मिलेगा, यह भाव उनके कार्य में कभी नहीं था। जब विवेक की सम्पूर्ण टीम यह देखती-महसूस करती है कि हमारा मुखिया कार्य के प्रति निःस्वार्थ रूप से समर्पित है तो पूरी टीम भी उसी भाव से कार्यों में जुट जाती है। ऐसा कार्य शुरू हो गया तो उसमें सफलता तो मिलनी ही है। विवेक का कार्य ईश्वरीय कार्य है, इसी भावना से कार्य करते गए और एक के बाद एक सफलता मिलती गई। विवेक समूह का आज का जो अखिल भारतीय स्वरूप है, उस स्वरूप का निर्माण करने में दिलीप करंबेलकर के साथ रमेश पतंगे का भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है।

साहित्य, वक्तृत्व, प्रबंधकीय कौशल, भविष्य देखने की दूरदर्शिता, उनके द्वारा संघ की विचारधारा को दिए गए नए विचार यह सभी विशेष बातें रमेश पतंगे को विभिन्न सामाजिक एवं वैचारिक मोर्चों पर महत्वपूर्ण योगदान देने वाले बनाते हैं। इतने तनावपूर्ण जीवन में भी उन्होंने कभी अपनी महत्वाकांक्षा नहीं छोड़ी। अच्छा शास्त्रीय संगीत सुनना, विश्वस्तरीय पुस्तकें पढ़ना, प्रतिदिन सुबह व्यायाम करना, लगातार देश भर में भ्रमण करना यह सब पतंगे जी की जीवन शैली की विशेषताएं हैं। विभिन्न मंचों से विभिन्न विषयों पर भाषण देना, विभिन्न विषयों पर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लगातार लिखना, संघ पर विभिन्न पुस्तकें, संविधान, ‘विवेक’ के माध्यम से निर्मित विभिन्न संघ सम्बंधी मौलिक साहित्य इतनी महत्वपूर्ण हैं कि वे भविष्य में ऐतिहासिक दस्तावेज बन जाएंगी।

वह अच्छे खाने के बहुत शौकिन हैं और अच्छे रसोइये भी हैं। उनकी सजग पत्रकारिता एवं सेहत का राज उनका सही खानपान है। साथ ही, वह संगीत में भी रूचि रखते हैं।

उनकी सफलता के पीछे उनकी धर्मपत्नी मधुरा  पतंगे का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है। इस बात पर रमेश पतंग बड़े प्रसन्न भाव से कहते हैं कि यह बात बिल्कुल सही है, मेरी पत्नी मधुरा ने मेरा भरपूर साथ दिया और अब भी पूरी निष्ठा से दे रही हैं। जैसे विवेक में आना ‘नियति’ की इच्छा थी उसी तरह मेरी मधुरो के साथ शादी होना भी ईश्वर की कृपा थी। एक आलीशान घर में पली-बढ़ी वह, चाल के मेरे एक छोटे से घर में आकर रहने लगी। लेकिन इससे उसे प्रारम्भ से ही कोई भी अप्रसन्नता नहीं हुई। जो है, जैसे है वैसे आनंद से रहना यह उसका स्वभाव था। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी। रमेश पतंगे बड़ेे ही सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें इतनी अच्छी धर्मपत्नी जीवन संगिनी के रूप में मिली।

80 वर्ष की आयु में भी वह अपने आप को वर्तमान समय के साथ अपडेट रखते हैं। इस बढ़ती आयु में भी वे यह सब कैसे आत्मसात कर पाते हैं? वे तो युवाओं से अधिक युवा हैं जो उम्र ढलने के बाद भी युवाओं से भी तेज गति और उत्साह से कार्य करते हैं। संघकार्य करते समय राजनीति में अपना सिक्का जमाने का विचार जागते या सोते समय भी उनके मन में कभी नहीं आया। जीवन में उनका सारा लक्ष्य समाज में समरसता किस प्रकार से आए, उसके लिए अपना योगदान किस प्रकार दे सकते हैं, इसी विषय पर रहा है। उन्होंने अपने विचारों को कहीं भटकने नहीं दिया, यही उनके यशस्वी जीवन का रहस्य है।

उनका पूरा बचपन गरीबी रेखा से नीचे के स्तर पर गुजरा है। भूख क्या होती है, दुख क्या होता है इसका उन्होंने अनुभव किया है। इसलिए उनकी संवेदनशीलता आज भी वैसे ही बरकरार है जैसे तब थी। यदि कोई दुख तकलीफ में है तो यथासम्भव उसकी सहायता करने का प्रयास करते हैं। ‘विवेक’ के प्रभादेवी कार्यालय के पास एक छोटी चर्मकार की दुकान थी। पतंगे जी की दूसरी बेटी की शादी में संघ के सरसंघचालक वंदनीय सुदर्शनजी, भाजपा के गोपीनाथ मुंडे मौजूद थे। उसके साथ फोटो के लिए चर्मकार भी खड़ा था। मंच पर फोटो निकालते समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक सुदर्शन जी को रमेश पतंगे ने इस चर्मकार का परिचय दिया। उस चर्मकार के जीवन का सबसे गौरवशाली क्षण कौन सा होगा जिसने उसे सम्मानित किया? वह था रमेश पतंगे द्वारा उसे दिया गया शादी का निमंत्रण। बड़ी-बड़ी किताबें लिखने से सामाजिक जीवन में कितनी समरसता आती है, यह प्रश्न हो सकता है। पर वैयक्तिक जीवन में छोटे-छोटे क्षण होते हैं, उन क्षणों में सहजता एवं समरसता से होने वाले आपके व्यवहार जो आपके कर्म होते हैं, वही आपकी संस्कृति होती है। इनका समाज पर बहुत प्रभाव पड़ता है। व्यक्तिगत जीवन में समरसता पर पुस्तकें लिखने वाले रमेश पतंगे का जीवन किस प्रकार से संस्कारित है, उनका जीवन इस बात को प्रस्तुत करता है। रमेश पतंगे की प्रतिबद्धता केवल मौखिक या साहित्यिक नहीं वरन व्यावहारिक भी रही। उनका निरंतर प्रयास रहता है कि सामाजिक समरसता से भाईचारा और समानता कायम हो। अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षण में सामाजिक समरसता के आंदोलन को गति देने का काम अंतर्बाह्य समरसता ध्येय मार्गी रमेश पतंगे ने किया है।

बाल स्वयंसेवक से लेकर अब तक संघ कार्यों के दौरान लगभग सात दशकों का सफर उन्होंने तय किया है। उनके मन में समग्र संघकार्य पर भी एक मौलिक पुस्तक लिखने की तीव्र इच्छा है। आपातकाल में जेल में लिखी हुई किताब के माध्यम से उनका साहित्यिक प्रवास प्रारम्भ हुआ। उम्र के इस पड़ाव में संघ को बहुत गहराई से उन्होंने जाना है, समझा है, अनुभव किया है। वैसे संघ पर बहुत किताबें लिखी गई हैं, उससे उन्हें संतुष्टि नहीं मिली है। उनकी अंतरात्मा को ऐसा लगता है कि इससे भी गहरा कुछ लिखना चाहिए, क्योंकि संघ चिंतन युग परिवर्तनकारी है। इस युग परिवर्तन कार्य को विस्तारपूर्वक और सही परिप्रेक्ष्य में शब्दबद्ध करना चाहिए, ऐसी उनकी इच्छा है। उसका सारा काम देखकर लगता है, इतना सब करने के बाद उनको सांस लेने की फुर्सत कैसे मिलती है? यह सब करके अपनी वैचारिक स्थिति कैसे निर्धारित करते हैं? उनका एक ऐसा व्यक्तित्व है जो एक मनोवैज्ञानिक या एक विद्वान को भी चकित कर सकता है। उनके अंदर समाई हुई ऊर्जा का एक ही जवाब है, दुनिया को जानने की उनकी तड़प, और इस तड़प की अभिव्यक्ति ही उनकी उपलब्धि है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक होना मेरे लिए पद्मश्री पुरस्कार पाने से भी कहीं ज्यादा भाग्यशाली है, यह भावना रमेश पतंगे ने पद्मश्री पुरस्कार घोषित होने पर व्यक्त की है। एक संघ स्वयंसेवक के रूप में उन्होंने जिस कृतार्थ जीवन की अनुभूति ली है उस अनुभूति के भाव उनके इस वक्तव्य में हैं। उनका स्वास्थ्य उत्तम रहे, आने वाले भविष्य में युग प्रवर्तक संघ का गहरा चिंतन व्यक्त करने वाले चिंतनशील विचार रमेश पतंगे के माध्यम से प्रकाशित हों। वैभवशाली राष्ट्र निर्माण करने की प्रक्रिया में 70 सालों से अपना मौलिक योगदान देने वाले पद्मश्री रमेश पतंगे के चिंतन से भविष्य में भी सारा समाज आलोकित हो.. यही शुभकामनाएं।

‘मैं, मनु और संघ,’ ‘हमारा मौलिक संविधान’ जैसे पचासों प्रसिद्ध पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। लेकिन अब भी वह अपने लेखन से संतुष्ट नहीं हैं, इससे भी आगे जाकर कुछ करना चाहते हैं। पत्रकारिता व साहित्यिक क्षेत्र में लम्बा सफर तय करने के बाद उनके मन में विश्राम करने का ख्याल जब भी आता है, तब नियति फिर कोई बड़ी जिम्मेदारी व विचार उनके मन में डाल देती है। फिर उनके ध्यान में आता है, यह विशेष कार्य करना तो रह गया है। सकल हिंदू समाज को जोड़ने वाले सामाजिक समरसता मंच का विषय होने के बाद उनके सामने संविधान का विषय आया। उस समय तक तो वह संविधान के बारे में कुछ जानते भी नहीं थे और उसे पढ़ा भी नहीं था। फिर मन में यह भाव आया कि आगे जाकर तो आज की युवा पीढ़ी को ही देश चलाना है। देश संविधान से चलता है, इसके लिए संविधान को जानना- समझना भी बेहद जरूरी है। इसके बाद उनका गहन अध्ययन शुरू हुआ और फिर उन्होंने भारतीय संविधान और विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के संविधान पर समाज के ज्ञान में वृद्धि करने वाले अनेक पुस्तकें लिखी।

पुरस्कार

मध्य प्रदेश सरकार का माणिकचंद वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार

महाराष्ट्र सरकार का लोकमान्य तिलक पत्रकारिता जीवन गौरव पुरस्कार

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के द्वारा पांचजन्य नचिकेता पुरस्कार

उत्कर्ष मंडल, पार्ले पुरस्कार

स्नेहांजलि-पुणे, पुणे मराठी ग्रंथालय के पुरस्कार

This Post Has 4 Comments

  1. Sankul Pathak

    आम व्यक्ति से लेकर संघ के स्वयंसेवक के लिए अनुकरणीय व्यक्तित्व

    1. Anonymous

      धन्यवाद

  2. Anonymous

    आम व्यक्ति से लेकर संघ के स्वयंसेवक के लिए अनुकरणीय व्यक्तित्व

  3. Vidya rane

    Nice 👌🏻

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