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अनुशीलन समिति के क्रांतिकारी हनुमान प्रसाद पोद्दार

अनुशीलन समिति के क्रांतिकारी हनुमान प्रसाद पोद्दार

by हिंदी विवेक
in विशेष, व्यक्तित्व
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गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार एक क्रांतिकारी थे और उनके क्रांतिकारी संगठन का नाम था, अनुशीलन समिति। जब वे कोलकाता में थे तब उन्होंने साहित्य संवर्धन समिति की ओर से गीता का प्रकाशन करवाया था जिसके मुख्यपृष्ठ पर भारत माता के हाथों में खड्ग लिए चित्र अंकित था इस कारण कोलकाता प्रशासन ने इस संस्करण को जप्त किया था।

1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की।

कलकत्ता में बंदूक, पिस्तौल और कारतूस की शस्त्र कंपनी थी जिसका नाम “रोडा आर.बी. एण्ड कम्पनी” था। यह कंपनी जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों से बंदरगाहों से शस्त्र पेटियां मंगाती थी।

देशभक्त क्रांतिकारियों को अंग्रेजों से लड़ने के लिए पिस्तौल और कारतूस की जरूरत थी लेकिन उनके पास धन नहीं था कि वे खरीद सकें। तब अनुशीलन समिति के क्रांतिकारियों ने शस्त्र पेटियों को चुराने की योजना बनाई और इस काम को हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को सौंप दिया गया। हनुमान प्रसाद जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस रोडा बी.आर.डी. कंपनी में एक शिरीष चंद्र मित्र नाम के बंगाली कलर्क, जो अध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे और हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का बहुत आदर करते थे। पोद्दार जी ने उस क्लर्क को अपने पक्ष में तैयार किया।

एक दिन कंपनी ने शिरीषचंद्र मित्र को कहा समुद्र चुंगी से जिन बिल्टिओं का माल छुड़ाना है वह छुड़ा कर ले आएं। उसने यह सूचना तत्काल हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को दे दिया। सूचना पाते ही पोद्दार जी कलकत्ता बंदरगाह पर पहुंच गये।

यह बात है 26 अगस्त 1914 बुधवार के दिन की। बंदरगाह पर रोडा कम्पनी की 202 शस्त्र पेटियां आयी हुई थी। जिसमें 80 माउजर पिस्तौल और 46 हजार कारतूस थे जिसे कंपनी के क्लर्क शिरीषचंद्र मित्र ने समुंद्री चुंगी जमा कर छुड़ा लिया।

इधर बंदरगाह के बाहर हनुमान प्रसाद पोद्दार जी शिरीष चंद्र का इंतजार कर रहे थे। इसमें से 192 शस्त्र पेटियां कंपनी में पहुंचा दी गई और बाकी 10 शस्त्र पेटियां हनुमान प्रसाद पोद्दार के घर पर पहुंच गईं। आनन-फानन में पोद्दार जी ने अपने संगठन के क्रांतिकारी साथियों को बुलाया और सारे शस्त्र सौंप दिया।उस पेटी में 300 बड़े आकार की पिस्तौल थी। इनमें से 41 पिस्तौल को बंगाल के क्रांतिकारियों के बीच बांट दिया गया बाकी 39 पिस्तौल बंगाल के बाहर अन्य प्रांत में भेज दी गई। काशी इलाहाबाद,बिहार, पंजाब और राजस्थान भी गयीं।

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को पेटियों के ठौर-ठिकाने पहुंचाने-छिपाने में पंडित विष्णु पराड़कर (बाद में कल्याण के संपादक ) और सफाई कर्मचारी सुखलाल ने भी मदद की थी। बाद में मामले का खुलासा होने के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार, क्लर्क शिरीष चंद्र मित्र, प्रभुदयाल, हिम्मत सिंह, कन्हैयालाल चितलानिया, फूलचंद चौधरी , ज्वालाप्रसाद, ओंकारमल सर्राफ के विरुद्ध गिरफ्तारी के वारंट निकाले गये। 16 जुलाई 1914 को छापा मारकर क्लाइव स्ट्रीव स्थित कोलकाता के बिरला क्राफ्ट एंड कंपनी से हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को गिरफ्तार कर लिया गया। शेष लोग भी पकड़ लिये गये। सभी को कलकता के डुरान्डा हाउस जेल में रखा गया। पुलिस ने 15 दिनों तक सभी को फांसी चढ़ाने, काला पानी आदि की धमकी देकर शेष साथियों का नाम बताने और माल पहुंचाने की बात उगलवाना चाहा लेकिन किसी ने नहीं उगला। पोद्दार जी के गिरफ्तार होते ही माड़वाड़ी समाज में भय व्याप्त हो गया। पकड़े जाने के भय से इनके लिखे साहित्य को लोगों ने जला दिया।

पर्याप्त सबूत नहीं मिलने के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार जी छूट गये। इसके दो कारण थे – पहला कि शस्त्र कंपनी के कलर्क शिरीष चंद्र मित्र बंगाल छोड़ चुके थे इसलिए गिरफ्तार नहीं किये जा सके। दूसरा कारण- तमाम अत्याचार के बाद भी किसी ने भेद नहीं उगला था।

वे लोकमान्य बाळ गंगाधर तिलक के लेखों से बहुत प्रभावित थे। वीर सावरकर द्वारा लिखे गए ‘1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ’ से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए जेल मुक्त होने के बाद वे 1938 में वीर सावरकर से मुंबई तक मिलने गए। उनका सम्पर्क नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गांधीजी सहित कई क्रान्तिकारीं और स्वतंत्रता संग्राम के नेताओ से रहा था।

इस घटना से छः साल पूर्व 1908 में जो बंगाल के मानिकतला और अलीपुर में बम कांड हुआ उसमें भी अप्रत्यक्ष रूप से गीताप्रेस गोरखपुर के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार शामिल रहे। उन्होंने बम कांड के अभियुक्त क्रांतिकारियों की पैरवी की। पोद्दार जी का भुपेन्द्रनाथ दत्त, श्याम सुंदर चक्रवर्ती , ब्रह्मवान्धव उपाध्याय , अनुशीलन समिति के प्रमुख पुलिन बिहारी दास, रास बिहारी बोस, विपिन चंद्र गांगुली, अमित चक्रवर्ती जैसे क्रांतिकारियों से सदस्य होने के कारण निकट संबध था। अपनी धार्मिक कल्याण पत्रिका बेचकर क्रांतिकारियों की पैरवी करते थे। बाद में कोलकता में गोविंद भवन कार्यालय की स्थापना हुई तो पुस्तक और कल्याण पत्रिका के बंडल के नीचे क्रांतिकारियों के शस्त्र छुपाये जाते थे।

इतना ही नहीं, खुदीराम बोस, कन्हाई लाल , वारीन्द्र घोष, अरबिंद घोष, प्रफुल्ल चक्रवर्ती के मुकदमे में भी अनुशीलन समिति की ओर से हनुमान प्रसाद पोद्दार ने पैरवी की थी। उन दिनों क्रांतिकारियों की पैरवी करना कोई साधारण बात नहीं थी।

भारत विभाजन की मांग पर कांग्रेसी नेता जिन्ना के सामने चुप रहते थे तो गीताप्रेस की कल्याण पत्रिका पुरजोर आवाज में कहती थी –
“जिन्ना चाहे दे दे जान, नहीं मिलेगा पाकिस्तान”
कहकर ललकारता था। यह पंक्ति कल्याण के आवरण पृष्ठ पर छपता था। पाकिस्तान निर्माण के विरोध में कल्याण महीनों तक लिखता रहा।

गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका ऐसी निडर पत्रिका थी कि उसने अपने एक अंक में प्रधानमंत्री नेहरू को हिंदू विरोधी तक बता दिया था। इसने महात्मा गांधी को भी एक बार खरी-खोटी सुनाते हुए कह डाला था–
“महात्मा गांधी के प्रति मेरी चिरकाल से श्रद्धा है पर इधर वे जो कुछ कर रहे हैं और गीता का हवाला देकर हिंसा-अहिंसा की मनमानी व्याख्या वे कर रहे हैं उससे हिंदुओं की निश्चित हानि हो रही है और गीता का भी दुरपयोग हो रहा है।”

जब मालवीय जी हिंदुओं पर अमानवीय अत्याचारों की दिल दहला देने वाली गाथाएं सुनकर द्रवित होकर 1946 में स्वर्ग सिधार गये तब गीता प्रेस ने मालवीय जी की स्मृति में कल्याण का श्रद्धांजली अंक निकाला। इसमें नोआखली, खुलना तथा पंजाब सिंध में हो रहे अत्याचारों पर मालवीय जी की ह्रदय विदारक टिप्पणी प्रकाशित की गई थी। जिसे उत्तर प्रदेश और बिहार के कांग्रेसी सरकार ने श्रद्धांजली अंक को आपतिजनक घोषित करते हुए जब्त कर लिया था।

जब भारत विभाजन के समय दंगा शुरू हो गया था और पाकिस्तान से हिंदुओ पर अत्याचार की खबर आ रही थी तब भी गीताप्रेस ने कांग्रेस नेताओं पर खूब स्याही बर्बाद की थी। तब कल्याण ने अपने सितम्बर-अक्टूबर 1947 के अंक में यह लिखना शुरू कर दिया था- “हिंदू क्या करें’ इन अंको में हिंदूओं को आत्मरक्षा के उपाय बताया जाता था।

22 मार्च 1971 को इस महान विभूति का महाप्रयाण हो गया।

– प्रखर अगरवाल

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