या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता

प्रकृति सदा से है। सदा रहती है। प्रलय में भी सब कुछ नष्ट नहीं होता। प्रकृति की शक्ति विराट है। यह दिव्य है सो देवता है। विभिन्न आर्य भाषाओं में देवता या देवी का सम्बंध प्रकाशवाची है। संस्कृत में जो देव हैं ग्रीक में वही थेओस् हैं। लैटिन में देउस हैं। आयरिश में दिया हैं। अमेरिकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने ‘रिलीजन ऑफ दि वेद‘ में कहा है कि, ‘‘आर्यों ने देवता विषयक अपनी धारणा प्रकाश या प्रकाशमान आकाश से प्राप्त की थी।‘‘ जहां जहां दिव्यता वहां वहां देवता। भारतीय अनुभूति में अनेक देवता हैं। देवी भी हैं। देवी माता हैं। हम सब मां का विस्तार हैं। दुनिया की तमाम आस्थाओं में ईश अवतरण हैं। दैवी ज्ञान देने वाले देवदूत हैं। परमसत्ता या देवशक्ति भी इस जगत् में मां के माध्यम से ही आती है। मां न होती तो वे कैसे आते? हम सब इस जगत् में कैसे होते?

सृष्टि का विकास जल से हुआ। यूनानी दार्शनिक थेल्स, चार्ल्स डार्विन सहित अधिकांश विश्वदर्शन में जल सृष्टि का आदि तत्व है। ऋग्वेद दुनिया का प्राचीनतम शब्द साक्ष्य है। इसमें भी जल को मां देखा गया है। वे ‘जल माताएं’ आपः मातरम् हैं और देवियां हैं। सो ऋग्वैदिक ऋषियों की अनुभूति में ”संसार के प्रत्येक तत्व को जन्म देने वाली यही जल माताएं हैं।” ऋग्वेद के बड़े देवता है अग्नि। इन्हें भी जल माताओं ने जन्म दिया है। ऋग्वेद में वाणी की देवी वाग्देवी (10.125) हैं। वाणी की शक्ति अपरिमित है। वाग्देवी ऋग्वेद (10.125) में कहती हैं – “मैं मित्र, वरूण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। प्राणियों की श्रवण, मनन, दर्शन क्षमता का कारण मैं ही हूँ। मैं लोकों की सर्जक हूँ आदि। वे ‘राष्ट्री संगमनी वसूनां – राष्ट्रवासियों और उनके वैभव को संगठित करने वाली शक्ति – राष्ट्री है’। (10.125.3) यहाँ राष्ट्र के लिए राष्ट्री देवी की अनुभूति है।

देवरूप माँ की उपासना अतिप्राचीन है। यहाँ अनेक शक्तिपीठ हैं। भारत में हैं। , श्रीलंका, बांग्लादेश आदि देशों में भी हैं। देवी उपासना प्राचीनकाल से है। तैत्तिरीय आरण्यक उत्तरवैदिककाल की रचना है। इसमें देवी के अन्य नामों सहित दुर्गा का भी उल्लेख है और विष्णु पत्नी लक्ष्मी का भी। मार्कण्डेय पुराण के देवी उपासना वाले अंश में देवी को महामाया कहा गया है। वाल्मीकि रामायण में देवी उपासना का उल्लेख है। केनोपनिषद की उमा प्रतिष्ठित देवी हैं। रामायण में देवी पार्वती सर्वसंपन्न दिव्यता हैं। महाभारत के विराट पर्व (छठा अध्याय) में पाण्डव अज्ञातवास में राजा विराट के राज्य में थे। युधिष्ठिर दुर्गा की स्तुति करते हैं। इस अंश में दुर्गा को विंध्याचल निवासिनी बताया गया है। महाभारत भीष्म पर्व में अर्जुन भी विजय प्राप्ति के लिए दुर्गा स्त्रोत का पाठ करते हैं। इस स्तुति में दुर्गा के अनेक नाम हैं, काली, कपाली, कृष्ण पिंगला, चण्डी, शाकम्भरी, सरस्वती, सावित्री आदि। देवी उपासना विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, हरिबंश पुराण और वायु पुराण में भी है। जन जन में लोकप्रिय दुर्गा शप्तशती मार्कण्डेय पुराण के 81 से 93 तक के 13 अध्याय हैं। इन में देवी विंध्याचल वासिनी, शताक्षी, भ्रामरी आदि नाम से जानी गई हैं। ऋग्वेद से लेकर रामायण महाभारत तक देवी उपासना का उल्लेख है। देवी भारत माता इस राष्ट्र की अभिभावक हैं।

देवी उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन है। ऋग्वेद में पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी तीन देवियां कही गयी हैं – इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव।” (1.13.9) एक मंत्र (3.4.8) में ‘भारती को भारतीभिः’ कहकर बुलाया गया है – आ भारती भारतीभिः। देवी हरेक क्षण स्तुत्य हैं। दुख और विषाद व प्रसन्नता और आह्लाद में भी। भारतीभिः भरतजनों की इष्टदेवी हैं।” ऊषा देवी की स्तुतियाँ हैं, “वे सबको प्रकाश आनंद देती हैं। अपने पराए का भेद नहीं करतीं। सबको समान दृष्टि से देखती हैं।” जागरण की महत्ता है। इसलिए “सम्पूर्ण प्राणियों में सर्वप्रथम ऊषा ही जागती हैं।” (1.123.2) ऊषा सतत् प्रवाह हैं। आती हैं, जाती हैं फिर फिर आती हैं। ऋग्वेद में मन की शासक देवी का नाम ‘मनीषा’ है। ऋषि उनका आवाहन करते हैं “प्र शुकैतु देवी मनीषा”। (7.34.1) ऋग्वेद में श्रद्धा भी एक देवी हैं, “हम प्रातः काल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्यान्ह मेें श्रद्धा का आवाहन करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (10.151.5) श्रद्धा प्रकृति की विभूतियों में शिखर है – श्रद्धां भगस्तय मूर्धनि। (10.151.1) देवी उपासना शक्ति प्राप्ति की ही आराधना है। दुर्गा, महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी या सिद्धिदात्री आदि कोई नाम भी दीजिए। देवी दिव्यता हैं। माँ हैं। भारत स्वाभाविक ही देवी उपासक है। भारत में वर्ष में दो बार नवरात्र उत्सव होते हैं। देवी पूजा से भारत नई शक्ति पाता है।

सभी रूप प्रकृति माता के ही रूप हैं। दुर्गा, काली, सरस्वती, शाकम्भरी, महामेधा, कल्याणी, वैष्णवी, पार्वती आदि आदि। नाम स्मरण में सहायक हैं। असली बात है – मां। या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नमः। अंधविश्वास का कोई प्रश्न नहीं। प्रकृति एक अखण्ड इकाई है। अखण्ड इकाई का नाम रखते ही रूप का ध्यान आता है। रूप की सीमा है। प्रकृति अनंत है। असीम और अव्याख्येय। इसे देवी मां कहने में ही परिपूर्ण ममत्व प्रीति खिलती है। प्रकृति गर्भ से अरबों जीव आ चुके। प्रतिपल आ रहे हैं। सतत् अविरल। पुनर्नवा। फूल, फल वनस्पति, प्राणी। निर्दोष, निष्कलुष, लोभ मुक्त शिशु। जीवन अद्वितीय है। मां का प्रसाद है। प्रकृति सृजनरत है। यह पुराने को निरस्त करती है बार-बार। फिर नया प्रवाह। पुनर्नवा। नूतन सृजन। प्रकृति दशो दिशाओं से अनुग्रह की वर्षा करती है। अनुग्रह के प्रति अनुगृहीत भाव स्वाभाविक है। हम प्रकृति के अंग और वह जननी है। इस माता का ऋण है हम पर। प्रकृति का पोषण, संवर्द्धन मां की ही सेवा है। व्रत, ध्यान आदि आस्था के विषय हैं। मुख्य बात है – प्रकृति के सभी रूपों में मां देखने की अनुभूति।

प्रकृति को मां देखते ही हमारी जीवनदृष्टि बदल जाती है। मूलभाव है – मां। या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नमः। प्रकृति अनंत है। असीम और अव्याख्येय। इसे मां कहने में आह्लाद है। भारत का मन भावप्रवण है। भावप्रवण चित्त में ही शिवसंकल्प उगते हैं। भावप्रवण पत्थर में भी प्राण देख लेते हैं। प्रकृति भी प्रत्यक्ष भाव बोध में देवी माता है। भौतिकवादी कहेंगे कि देवी उपासना स्त्रीसत्ताक समाज में विकसित हुई। उनकी बात अर्द्धसत्य है। देवी उपासना मां और संतान के अविभाज्य, और अनिवर्चनीय प्रेम का चरम है। दुर्गा सप्तशती में यही अनुभूति है। मां सर्वभूतेषु उपस्थित है। वह देवी है, दिव्य है। देवता है। प्रणम्य है। अस्तित्व को मां रूप में देखना आनंददायी है। मां देखते हुए स्वयं को अस्तित्व से जोड़ने का अनुष्ठान देवी उपासना है। पृथ्वी भी मां है। इस पर रहना, कर्म करना, कर्मफल पाना और अंततः इसी की गोद में जाना जीवनसत्य है। कहते हैं “माता पृथ्वी धारक है। पर्वतों को धारण करती है, मेघों को प्रेरित करती है। वर्षा के जल से अपने अंतस् ओज से वनस्पतियां धारण करती है।” पृथ्वी को देवी मां जानने की अनुभूति गहन है। देवरूप माँ की उपासना अतिप्राचीन है। यह शक्ति प्राप्ति का अनुष्ठान है।

– हृदयनारायण दीक्षित

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