समाज में बढ़ती दुष्प्रवृत्तियाँ, हमारी जिम्मेदारी कितनी ?

 

संपूर्ण मनुष्य जाति एक ही सूत्र में बंधी हुई है । विश्वव्यापी जीव तत्व एक है । आत्मा सर्वव्यापी है । जैसे एक स्थान पर यज्ञ करने से अन्य स्थानों का भी वायुमंडल शुद्ध होता है और एक स्थान पर दुर्गंध फैलने से उसका प्रभाव अन्य स्थानों पर भी पड़ता है । इसी प्रकार एक मनुष्य के कुत्सित कर्मों के लिए दूसरा भी जिम्मेदार है । एक दुष्ट व्यक्ति अपने माता-पिता को लज्जित करता है, अपने घर और कुटुंब को शर्मिंदा करता है । वे इसलिए शर्मिंदा होते हैं कि उस व्यक्ति के कामों से उनका कर्तव्य भी बँधा हुआ है । अपने पुत्र, कुटुंबी या घर वाले को सुशिक्षित, सदाचारी न बनाकर दुष्ट क्यों हो जाने दिया ? इसकी आध्यात्मिक जिम्मेदारी कुटुंब की भी है ।

कानून द्वारा अपराधी को ही सजा मिलेगी, परंतु कुटुंबियों की आत्मा स्वयमेव शर्मिंदा होगी, क्योंकि उनकी गुप्त शक्ति यह स्वीकार करती है कि हम भी किसी हद तक इस मामले में अपराधी हैं । सारा समाज एक सूत्र में बँधा होने के कारण आपस में एक दूसरे की हीनता के लिए जिम्मेदार है । पड़ोसी का घर जलता रहे और दूसरा पड़ोसी खड़ा खड़ा तमाशा देखे तो कुछ देर बाद उसका भी घर जल सकता है । मोहल्ले के एक घर में हैजा फैले और दूसरे लोग उसे रोकने की चिंता न करें तो उन्हें भी हैजा का शिकार होना पड़ेगा। कोई व्यक्ति किसी की चोरी, बलात्कार, हत्या, लूट आदि होती हुई देखता रहे और समर्थ होते हुए भी उसे रोकने का प्रयास न करे, तो समाज उससे घृणा करेगा एवं कानून के अनुसार यह भी दंडनीय समझा जाएगा ।

ईश्वरीय नियम है कि हर मनुष्य स्वयं सदाचारी जीवन बिताए और दूसरों को अनीति पर न चलने देने के लिए भरसक प्रयत्न करें । यदि कोई देश या जाति अपने तुच्छ स्वार्थों में संलग्न होकर दूसरों के कुकर्मों को रोकने और सदाचार बढ़ाने का प्रयास नहीं करती, तो उसे भी दूसरों का पाप लगता है । उसी स्वार्थपरता के सामूहिक पाप से सामूहिक दंड मिलता है । भूकंप, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी, महायुद्ध के कारण ऐसे ही सामूहिक दुष्कर्म होते हैं, जिनमें स्वार्थपरता को प्रधानता दी जाती है और परोपकार की उपेक्षा की जाती है ।

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