धुंधलाता दादा साहेब फालके का स्वप्न

भारतीय फिल्मों के पितामह दादासाहब फालके भारतीय संस्कृति धर्म, परम्परा के संवाहक थे। उनकी पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। उन्होंने भारत को सिनेमा के सशक्त माध्यम का परिचय कराया। उस समय उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि, आगे चलकर बॉलीवुड फिल्में हमारी संस्कृति पर ही आघात करेंगी।

दादा साहब फाल्के… इस नाम के बगैर भारतीय फिल्मों के इतिहास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वर्षों पूर्व उन्होंने भारत देश की पावन धरा पर सिनेमा रूपी एक पौधा रोपित किया था। यह पौधा आज वृक्ष तो बन गया है लेकिन इस पर आने वाले मनोरंजन के फल अब बेस्वाद से लगते हैं। भारत की संस्कृति सभ्यता और परम्परा अब फिल्मों में कम ही नजर आती है। दादा साहब ने जिस सोच के साथ सिनेमा को पर्दे पर उतारा था वह अब कहीं गुम सी हो गई है। आखिर यह स्थिति क्यों निर्मित हुई? क्या यह सब अचानक हो गया या फिर स्लो पॉइजन की तरह हमारी फिल्में दूषित होती गईं। इस पर न सिर्फ मंथन करने की जरूरत है बल्कि जिन लोगों के कंधों पर आज फिल्म इंडस्ट्री को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी है उन्हें सतत कदम उठाने की भी आवयकता है।

गौर कीजिए दादा साहब फाल्के ने जब वर्ष 1913 में फिल्म राजा हरिचंद्र का निर्माण किया था उस वक्त फिल्म में महिला का किरदार निभाने के लिए एक पुरुष का ही चुनाव किया गया था क्योंकि उस समय फिल्म में काम करने के लिए कोई महिला राजी नहीं थी। आप सोच सकते हैं कि उस दौर में हमारी भारतीय संस्कृति कैसी रही होगी। तब से लेकर अब तक फिल्मों में न जाने कितने ही बदलाव हुए। फिल्म उद्योग ने तकनीकी रूप से भी विकास किया लेकिन संस्कृति, सभ्यता और परम्परा को हम कहीं पीछे छोड़ते चले गए। फिल्म दर फिल्म भारतीय फिल्मों में स्क्रिप्ट, निर्देशन और कैमरा लेवल पर जरूर निखार आता गया लेकिन कॉस्टयूम, स्टोरी और डायलॉग के मामले में फिल्में कमजोर साबित होने लगीं। भारतीय फिल्में पचिमी सभ्यता की गुलाम होती नजर आई। यह सिलसिला आज भी जारी है। वर्तमान स्थिति और भी दयनीय रूप ले रही है। यही कारण है कि दर्शक दक्षिण भारतीय फिल्मों का रुख कर रहे हैं। साउथ की फिल्मों बाहुबली, आरआरआर, पुष्पा और केजीएफ को दर्शकों ने काफी सराहा है। इनमें फूहड़ता और अश्लीलता को आटे में नमक की तरह इस्तेमाल किया गया। लेकिन बॉलीवुड ने अपनी हदें लांघ दी हैं और इसका खामियाजा भी एक के बाद एक बेअसर फिल्मों के रूप में इंडस्ट्री को भुगतना पड़ रहा है।

दोअर्थी गीत, यह क्या लिख रहे हैं गीतकार

भारतीय फिल्मों में गीत लेखन भी अपने बुरे दौर से गुजर रहा है। एक वक्त था जब साहिर लुधियानवी,  शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, गुलजार आनंद बक्षी जैसे गीतकारों की कलम से रूमानी और संजीदा गीत निकलते थे लेकिन वर्तमान स्थिति काफी उलट है। आज की फिल्मों में गीतों के माध्यम से अश्लीलता परोसी जा रही है। एक ओर डबल मीनिंग गीतों की भरमार है वहीं रैप सांग भी गीतों के स्तर को पूरी तरह नीचे गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। यह सारी स्थिति फिल्मों के बाजारीकरण के कारण निर्मित हुई है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि, गीतकार सईद कादरी ने फिल्म मर्डर के लिए एक गीत लिखा था जिसके बोल थे, भीगे होंठ तेरे…प्यासा दिल मेरा। इन्हीं ने बाद में अनुराग बसु की फिल्म बर्फी के लिए बेहद ही खुबसूरत गीत लिखा जिसके बोल थे, फिर ले आया दिल मजबूर क्या कीजे। ऐसा नहीं है कि आज फिल्म इंडस्ट्री में गीतकारों की कमी है। सईद कादरी के अलावा इरशाद कामिल, वरूण ग्रोवर, अमिताभ भटटाचार्य व कुमार जैसे गीतकार आज बेहतरीन गीत लिख रहे हैं लेकिन इंडस्ट्री में गीतों को जल्द हिट कराने का दबाव गीतकारों की कलम को एक अलग ही दिशा में मोड़ने पर आमादा है।

छोटी होती कॉस्टयूम बढ़ती अश्लीलता

आज भारतीय फिल्मों में कॉस्टयूम यानि पोशाक छोटी होती जा रही है। एक दौर था जब अधिकांश पुरानी फिल्मों में अभिनेत्रियां भारतीय पारम्परिक पोशाकों में ही नजर आया करती थीं, वहीं आज फिल्मों में महिला किरदारों की ड्रेस इतनी छोटी हो गई है कि लोगों का पारिवारिक माहौल में फिल्में देखना सम्भव ही नहीं है। आज हर दूसरी फिल्म में अभिनेत्रियां छोटे कपड़ों में नजर आ रही हैं। गीतों के माध्यम से अश्लीलता को और बढ़ावा दिया जा रहा है। हालांकि गनीमत यह है कि पीरियड ड्रामा फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण अभिनेत्रियां जरूर पारम्परिक पोशाकों में नजर आ रही हैं। इसका श्रेय फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली व आशुतोष गोवारिकर जैसे निर्देशकों को दिया जा सकता है।

भारतीय फिल्मों के पितामह

भारतीय फिल्मों के पितामह दादा साहब फाल्के का वास्तविक नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था। वे 30 अप्रैल 1870 को नाशिक के एक मराठी परिवार में जन्मे थे। उनकी शिक्षा बड़ौदा में पूरी हुई। उन्होंने इंजीनियरिंग चित्रकला और फोटोग्राफी के अलावा मूर्तिकला की शिक्षा भी प्राप्त की थी। यह वह दौर था जब देश में भारतीय फिल्मों का कोई अस्तित्व नहीं था। वर्ष 1910 में उस समय के बंबई स्थित अमरिका इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म का प्रर्दान किया गया था। थियेटर में अन्य लोगों के साथ यह फिल्म देश रहे धुंडीराज गोविंद फाल्के इस फिल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसी वक्त भारत में भी फिल्मों का निर्माण करने की ठान ली। फिल्मों में उपयोग किए जाने वाले यंत्र लाने के लिए उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा भी की। इसके बाद भारत आकर उन्होंने बंबई के थियेटरों में फिल्में देखकर अपने अंदर छुपी प्रतिभा को एक नई उड़ान देने के प्रयास किए। काफी समय तक फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखने के बाद उन्होंने राजा हरिचंद्र नामक फिल्म बनाई। इसके लिए धनराशि जुटाने में भी उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। इस फिल्म के निर्देशक के अलावा उन्होंने कॉस्टयूम और कैमरा डिपार्टमेंट की जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर ली। 3 मई 1913 को फिल्म राजा हरिचंद्र बॉम्बे के कोरोनेशन सिनेमा में पहली भारतीय फिल्म के रूप में रिलीज हुई। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता को रूपहले पर्दे पर उतारा था। इसके बाद उन्होंने कई अन्य फिल्मों का निर्माण किया जिनमें मोहिनी भस्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन श्रीकृष्ण जन्म जैसी फिल्में शामिल हैं। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म्स नामक कम्पनी की स्थापना भी की थी लेकिन विभिन्न समस्याओं के चलते वर्ष 1920 में उन्होंने इससे इस्तीफा दे दिया। इसके साथ ही उन्होंने सिनेमा जगत से भी रिटायरमेंट लेने की घोषणा कर दी। 16 फरवरी 1944 को दादा साहब फाल्के का निधन हो गया। उनकी अंतिम मूक फिल्म सेतुबंधन और अंतिम फिल्म गंगावतरण थी। उनके द्वारा बनाई गई फिल्मों को आज भी याद किया जाता है।

दादा साहब के नाम से अवार्ड और विवाद की दास्तान

भारतीय फिल्म जगत में दादा साहब फाल्के के नाम से अलग-अलग अवार्ड समारोह आयोजित किए जाते हैं। समय-समय पर इसे लेकर विवाद भी सामने आते रहे हैं। इंडस्ट्री से जुड़े कुछ लोग इसका विरोध भी करते रहे हैं। उनका मानना है कि दादा साहब के नाम से भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला राष्ट्रीय अवार्ड ही असली अवार्ड है। मॉडल निकिता घाग द्वारा पिछले साल उन्हें मिले दादा साहब फाल्के इंटरनेशनल अवार्ड को लौटाने की घोषणा के बाद यह विरोध और तेज होता नजर आ रहा है। इधर हाल ही में एसएस राजामौली की फिल्म आरआरआर और विवेक अग्निहोत्री की फिल्म कश्मीर फाइल्स को दादा साहेब इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल अवार्ड से नवाजा गया है। भारत सरकार द्वारा दादा साहब फाल्के के नाम से सिनेमा का सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है। लेकिन दादा साहब के नाम पर अलग-अलग अवार्ड समारोह आयोजित किए जाने से फिल्म प्रेमियों को वास्तविक पुरस्कार को लेकर सही जानकारी नहीं मिल पाती है।

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