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राष्ट्र परम्परा की द्योतक

राष्ट्र परम्परा की द्योतक

by हिंदी विवेक
in अप्रैल २०२३, विशेष, साहित्य
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पुस्तक : हिन्दुत्व : एक विमर्श

लेखक : डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष

प्रकाशक : दृष्टि प्रकाशन, प्रतापनगर जयपुर (राजस्थान)

मूल्य : 250

 

युगों युगों से अपने वैशिष्ट्य एवं सर्वसमावेशी विचार प्रवाह को समेटने वाले हिंदू-हिंदुत्व के प्रति प्रायः विमर्श चलते ही रहते हैं। इन विमर्शों में कई धाराएं होती हैं जो हिंदू-हिंदुत्व के प्रति अपने दुराग्रहों को लेकर छटपटाते रहते हैं, और पाश्चात्य के चश्मे से भारत को आंकने का असफल प्रयास करते हैं। वर्षों से हिंदुत्व के चिंतन एवं बौद्धिक सम्पदा को लेकर एक आकर्षण का भाव राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा गया है। अब ऐसे समय में हिंदू-हिंदुत्व का वास्तविक स्वरूप क्या है? और भारतीय ज्ञान परम्परा पर आधारित चिंतन प्रणाली एवं दर्शन कौन सा मार्ग दिखलाता है? भारत का विश्वमानव रूप किस प्रकार से विश्वकल्याण की भावना से भरा हुआ है? भारतीय मनीषा के महापुरुषों ने कौन से मार्ग दिखाए हैं? इन समस्त प्रश्नों की पड़ताल करने वाली पुस्तक ‘हिन्दुत्व: एक विमर्श’ है। इसके लेखक राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष एवं साहित्य परिक्रमा के सम्पादक डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष हैं। वे अपने सर्जनाशील व्यक्तित्व, कृतित्व एवं राष्ट्रीयता से पोषित विचारों के प्रस्तोता एवं कुशल अध्येता, कवि-आलोचक के रूप में जाने जाते रहे हैं। कवि मन-आलोचक दृष्टि एवं राष्ट्रपंथ पर चलने वाली उनकी विचार दृष्टि-उपस्थिति विविध विषयों पर सकारात्मकता एवं सार्थक हस्तक्षेप करती रहती है।

‘हिन्दुत्व: एक विमर्श’ पुस्तक को लेकर राष्ट्रीय विचारधारा-राष्ट्रबोध की संस्कृति का अनुगमन कर राष्ट्र पुनर्निर्माण का संकल्प लेने वाले विद्वानों ने पुस्तक की सर्वग्राहिता, सर्वसमावेशिता, पठनीयता को लेकर अपने अपने विचार व्यक्त किए हैं, जो पुस्तक के आवरण पृष्ठ के आंतरिक एवं बाह्य पृष्ठों पर उद्धृत किए गए हैं। इनमें से प्रज्ञा प्रवाह के संयोजक- जे. नंद कुमार, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष- रामबहादुर राय, पाञ्चजन्य के सम्पादक-हितेश शंकर, प्रख्यात विचारक एवं शिक्षाविद्- हनुमान सिंह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक शिक्षण प्रमुख- स्वांतरंजन, संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख- सुनील आम्बेकर एवं अ.भा. साहित्य परिषद् के संगठन मंत्री- श्रीधर पराड़कर ने अपने विचार उद्गारों के माध्यम से पुस्तक की अंतर्वस्तु एवं उसके विचार कोष की ओर ध्यानाकर्षित किया है।

साहित्य, समाज एवं संस्कृति के स्थूल से लेकर सूक्ष्म विषयों पर अपनी पारखी पकड़ और उपस्थिति के माध्यम से राष्ट्रीय विचारों को प्रस्तुत करने वाले डॉ. तत्पुरुष ने अठारह अध्यायों के बहुआयामी स्वरूप को समेटे हुई इस पुस्तक में गागर में सागर भरने का कार्य किया है।

‘हिन्दुत्व: एक विमर्श’ के ‘भारतीयता की अवधारणा’ शीर्षक के प्रथम अध्याय में-भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक इतिहास, भारत के सर्वांगी चिंतन, परस्परपूरक, एकत्व, समावेशी एवं स्व से लेकर विश्व बंधुत्व की अवधारणा पर चिंतन विश्लेषण है। साथ ही, भारत के आर्ष ज्ञान सिद्धान्त-‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, सबका समन्वय, भारतीय परम्परा एवं मंदिरों की विज्ञान प्रधान संरचना एवं पद्धति को उकेरा गया है। जीवन के समस्त सोपानों व धर्म विषयक श्रेष्ठ भारतीय चिंतन के महत्व-समग्रता, वैश्विकता, सम्पूरकता एवं समत्व की विचार प्रणाली को डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष ने व्याख्यायित किया है।

‘हिन्दुत्व: एक विमर्श’ के समस्त अठारह अध्याय भारत की विशिष्ट संस्कृति के विविध स्वरूपों को उद्धाटित करते हैं और भारत की महान परम्परा-पद्धति, स्वत्वबोध, स्वाभिमान एवं राष्ट्रीयता के फूलों को चुन-चुनकर लोक के समक्ष रख देते हैं। सत्य का शंखनाद करते हुए हिंदू-हिंदुत्व पर आधारित श्रेष्ठ जीवन पद्धति-जीवनादर्शों की झांकी के माध्यम से राष्ट्रबोध को व्याख्यायित करते हैं और यथार्थ के धरातल पर भारत के गौरवबोध के विमर्श को आगे बढ़ाते हैं। वे वैचारिक समुद्र मंथन के द्वारा-राष्ट्रबोध का अमृत तत्व प्राप्त कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकते हैं। पुस्तक की भाषा शैली-संस्कृत निष्ठ बोधगम्य हिंदी है। वर्णों के आकार अपेक्षाकृत दृष्टि से छोटे हैं, जिन्हें अगले संस्करण में व्यवस्थित रूप दिया जा सकता है।

पुस्तक का आवरण चित्र-मनोहारी एवं पुस्तक की विषयवस्तु को समाविष्ट करने के साथ ही कौतूहल एवं जिज्ञासा को प्रकट करता है। इसके लिए आवरण चित्रकार-प्रो. हेमंत द्विवेदी बधाई के पात्र हैं। 123 पृष्ठों के अंदर अठारह अध्यायों को समेटने वाली यह पुस्तक-प्रत्येक वाक्य में विमर्श के रत्न भंडारों को समेटे हुए ज्ञान पिपासा को समृद्ध करती है। और अपने नाम ‘हिन्दुत्व: एक विमर्श’ को चरितार्थ करती है। सत्य के वास्तविक स्वरूपों को समझने, भ्रमों के निवारण और राष्ट्र परम्परा को समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए।

– कृष्णमुरारी त्रिपाठी ‘अटल’

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