बलिदानी वीर राम सिंह पठानिया

सामान्यतः लोग जानते हैं कि अंग्रेजों की हड़प नीति 1857 के आसपास शुरु हुई । पर इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों की यह हड़प व अद्भुत साहस के प्रतीक इस 24 वर्षीय नवयुवक ने अपने मुट्ठी भर साथियों के बल पर अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी थी किन्तु दुर्भाग्य से देशवासी इस महान राजपूत यौद्धा के बारे में नही जानते।

वीर राम सिंह पठानिया का जन्म 10 अप्रैल 1824 को हुआ । वीर सिंह के पिता श्याम सिंह नूरपुर रियासत के राजा वीर सिंह के वजीर थे । 1806 में दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने उत्तर और मध्यभारत में अपने वर्चस्व का अभियान चलाया । उनका सबसे प्रमुख लक्ष्य पंजाब था । अंततः अंग्रेज सफल हुये और नौ मार्च 1846 में अंग्रेज-सिक्ख संधि हुई इसके चलते वर्तमान हिमाचल प्रदेश की अधिकांश रियासतें सीधे अंग्रेजों के आधीन हो गईं । नूरपुर के राजा वीर सिंह अपने दस वर्षीय बेटे राज कुमार जसवंत सिंह को नूरपुर की राजगद्दी का उत्तराधिकारी छोड़कर स्वर्ग सिधार गए । अंग्रेजों ने राजकुमार जसवंत सिंह की अल्पावस्था का बहाना लिया और मात्र पांच हजार रुपये वार्षिक देकर किनारे कर दिया और रियासत पर अधिकार कर लिया । यह घटना 1846 की ही है । इससे स्थानीय निवासियों में रोष उत्पन्न हो गया ।

वीर राम सिंह पठानिया बाल्यकाल से ही ओजस्वी और पराक्रमी थे । अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को वे बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने सशस्त्र संघर्ष की योजना बना ली । उन्होंन गुप्त रूप से नवयुवकों की सशस्त्र टोली तैयार कर ली और मोर्चाबंदी आरंभ कर दी । तभी 1846 में जब दूसरा अंग्रेज-सिख युद्ध आरंभ हो गया । इस युद्ध में राम सिंह पठानिया ने अपने साथियों संग 14 अगस्त की रात्रि ममून कैंट लूटकर शाहपुरकंडी के दुर्ग पर धावा बोल दिया। अंग्रेजों को इस अकस्मात आक्रमण की कल्पना भी नहीं थी चूँकि इस टोली में सिक्ख नहीं थे । इस अप्रत्याशित हमले से अंग्रेज घबराए और किला खाली करके भाग गये । वीर रामसिंह पठानिया ने 15 अगस्त 1846 की सुबह अपना केसरिया ध्वज यहां फहरा दिया और नूरपुर रियासत से अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की घोषणा कर दी । इसके साथ ही राजकुमार जसवंत सिंह को रियासत का राजा तथा स्वयं को वजीर भी घोषित कर दिया।

इस घोषणा से आसपास के लोगों में उत्साह आया और सशस्त्र नौजवानों की मानों एक सेना तैयार हो गई। इनकी संख्या पाँच सौ हो गई। यह सब जसरोटा और नूरपुर क्षेत्र के थे । वीर रामसिंह ने इस टुकड़ी का नेतृत्व मंगल सिंह मिन्हास को सौंपा । एक ओर जहाँ वीर राम सिंह संघर्ष की तैयारी कर रहे थे वहीं अंग्रेज इनके दमन की रणनीति बना रहे थे । यह समाचार छुपा न रह सका कि इस क्षेत्र में पाँच सौ की सेना तैयार हो गई। क्राँतिकारियों की इस टोली में जहाँ जोश बहुत था किन्तु साधनों की कमी थी । अंग्रेजों ने इसी का लाभ उठाया । जालंधर के कमिश्नर हेनरी लारेंस तथा कांगड़ा के डिप्टी कमिश्नर वनिस फैजी कोई तीन हजार सैनिकों के साथ शाहपुरकंडी पहुंचे दुर्ग घेरा और बाहर से संपर्क तोड़ दिया । भीतर जाने वाली रसद सामग्री ही नहीं पानी की सप्लाई भी बंद कर दी । ये स्थिति कुछ दिन रही । इस घेराबंदी में हुये युद्ध में अनेक क्राँतिकारी बलिदान हो गये । अंत में वीर राम सिंह पठानिया को खाद्य सामग्री के अभाव में दुर्ग को खाली करना पड़ा और अपने शेष बचे अपने साथियों के साथ किले के गुप्त मार्ग से निकलकर माओफोर्ट के जंगलों में चले गए और गोरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई।

अंग्रेजी सेना ने उनका बहुत पीछा किया, लेकिन वह अंग्रेजों को चकमा देते रहे । इसी बीच उन्हें सिख सेना से फौजी दस्ते व गोला-बारूद की सहायता मिली । तब वीर राम सिंह ने अन्य राजाओं व सिखों से मिलकर अंग्रेजी सेना पर हमले की योजना बनाई। इसी बीच पहाड़ी क्षेत्र में जसवान के राजा उमेद सिंह, दतारपुर के राजा जगत सिंह व ऊना के राजा संत सिंह बेदी ने भी अपनी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। तब अंग्रेजों ने अतिरिक्त कुमुक मंगाई और पठानकोट पर हमला बोल दिया । पठानकोट पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया । इससे क्राँतिकारियों में कुछ निराशा आई लेकिन वीर राम सिंह ने साहस नहीं छोड़ा तथा अपना मोर्चा पठानकोट से उत्तर पश्चिम की ओर डल्ले की धार पर लगाया।
कुछ दिनों तक यहां पर भीषण युद्ध चला । इस युद्ध में लेफ्टिनेंट जान पील अपने अंगरक्षकों सहित मारा गया । डल्ले की धार पर जान पील की कब्र और उस पर शिलालेख इस संघर्ष का ऐतिहासिक दस्तावेज है।

इससे बौखलाये अंग्रेज ने क्रान्तिकारियो में विश्वासघाती खोजे जो उन्हे आसानी से मिल गये । विश्वासघातियों की सूचना पर अंग्रेजों ने वीर राम सिंह को उस समय गिरफ्तार किया वे पूजन में बैठे थे । बंदी बनाकर उन्हें पहले उन्हे कांगड़ा किले में रखा गया फिर रंगून जेल में भेज दिया । जहाँ घोर यातनाएं दी गईं। उनसे सहायता देने वाले सूत्र पूछे गये पर उन्होंने किसी का नाम नहीं बताया । अंततः रंगून जेल की यातनाएं सहते हुए उन्होंने 11 नवंबर, 1849 को मात्र 24 वर्ष की आयु में उनके प्राणों का बलिदान हो गया ।

उनके बलिदान की कहानियाँ आज भी लोकगीतों में गाई जातीं हैं। पंजाब सरकार नेउन्हें प्रथम स्वतंत्रता सेनानी घोषित किया और प्रति वर्ष को डल्ले की धार में वजीर राम सिंह पठानिया की याद में शहीदी दिवस मनाया जाता है । ऐसे वीर रामसिंह पठानिया को शत शत नमन।

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