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राजनीतिक स्थिरता की आस

राजनीतिक स्थिरता की आस

by अमोल पेडणेकर
in मई - इंदौर विशेषांक २०२३, राजनीति, विशेष, सामाजिक
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कर्नाटक में चुनावी बिगुल बज चुका है। अभी तक के हालात त्रिशंकु सरकार के संकेत दे रहे हैं। वैसे यह चुनाव भाजपा, कांग्रेस और जेडीएस के लिए दूरगामी परिणाम देने वाला साबित होगा। परंतु राज्य की भलाई इसी में है कि किसी एक दल की पूर्ण बहुमत और स्वच्छ छवि वाली सरकार बने।

मई महीने में सूरज की तपती किरणों की ताप पर विशेषकर सभी का ध्यान होता है लेकिन इस वर्ष मई महीने में कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित होते ही चुनाव को लेकर बड़ी सरगर्मी से चर्चाएं हो रही हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव ऐसे समय में हो रहा है कि, 2024 आम चुनाव से पहले यह सियासत कौन सी करवट लेगी, किस दिशा में मुड़ेगी, इसे लेकर कई कयास लग रहे हैं। ऐसे में इस चुनाव के परिणाम पर सिर्फ भाजपा, कांग्रेस की ही नजर नहीं है, बल्कि उन राजनीतिक दलों की भी नजदीकी नजर है जो इस चुनाव में शामिल नहीं हैं।

224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा को दक्षिण का दरवाजा भी कहा जाता है। यह चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है। अगर कांग्रेस यह चुनाव जीतने में सफल नहीं होती है तो उसके लिए न सिर्फ बहुत बड़ा झटका होगा बल्कि कांग्रेस के सभी सियासी मुद्दे गौण हो जाएंगे। अगर कांग्रेस कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अपने पराभव का सिलसिला तोड़ पाती है, तो आगामी लोकसभा चुनाव के लिए रास्ता साफ हो जाएगा। कर्नाटक बीजेपी के हाथ लग जाता है तो साल के अंत तक तेलंगाना में विधानसभा चुनाव है। अगर कर्नाटक के साथ तेलंगाना में भी बीजेपी का प्रभाव बढ़ता है तो वह भविष्य में दक्षिण में अपना वजूद दिखा सकती है। कर्नाटक में 10 मई को होने वाले चुनाव भाजपा के लिए महत्वपूर्ण होंगे। वैसे 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का भाग्य कर्नाटक के नतीजों पर निर्भर रहेगा।

बीजेपी को फिर से कर्नाटक जीतना है। राज्य में सत्ता बरकरार रखने का दबाव कांग्रेस से ज्यादा भाजपा पर होगा। लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि चुनावी मुकाबला मोदी और राहुल के बीच ही रहे। यह तय है कि कर्नाटक में बीजेपी, कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) के बीच त्रिकोणीय मुकाबला होगा। हालांकि चुनाव पूर्व के सर्वेक्षण बताते हैं कि कांग्रेस कर्नाटक में बहुमत हासिल करेगी। ये भविष्यवाणियां गलत हैं। कर्नाटक में कांग्रेस को बहुमत मिलने की सम्भावनाएं ना के बराबर है। लेकिन जो ज्यादा सीटें जीतेगा वह सरकार बनाने के कगार तक पहुंच सकता है। इसलिए यह माना जाता है कि इस चुनाव में जनता दल की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रहेगी। जो राजनीतिक पक्ष सबसे ज्यादा सीटें जीतता है तो वह अल्पमत की सरकार चला सकता है। जनता दल के विधायकों को अपने साथ में ले सकता है। या चुनाव के बाद गठबंधन बनाकर सरकार को सत्ता में ला सकता है। इन दोनों विकल्पों में से अगर बीजेपी कर्नाटक में सत्ता बरकरार रखती है, तो वह तेलंगाना में भी अपना दबदबा कायम कर सकेगी।

2018 के चुनावों में भी कुछ ऐसा ही हुआ। चुनावी नतीजों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। बीजेपी ने सरकार तो बनाई, लेकिन येदियुरप्पा को बहुमत साबित किए बिना ही हटना पड़ा। पिछली बार कांग्रेस को बीजेपी से 6 लाख 38 हजार 621 वोट ज्यादा मिले थे। फिर भी उसकी सीटें घट गईं। कारण रहा कर्नाटक केंद्रित पार्टी जनता दल-एस का प्रदर्शन। वह कई सीटों पर त्रिकोणात्मक संघर्ष बनाने में सफल रही। इस बार भी जनता दल चाहेगी कि किसी भी दल को बहुमत ना हासिल हो ताकि वह मोलभाव बनाने में कामयाब रहे।

कर्नाटक कांग्रेस में भी गुटबाजी कम नहीं है। लेकिन पार्टी इन सभी गुटों को ध्यान में रखते हुए इनके नेताओं की उम्मीदवारी पहले ही घोषित कर चुकी है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक के हैं। इसलिए खड़गे को कांग्रेस पर भी अपना असर दिखाना है और गैरकांग्रेसी लोगों के बीच खुद को स्थापित करना है। कर्नाटक में बीजेपी की बसवराज बोम्मई सरकार लोगों के मन में अपना विश्वास निर्माण करने में पूरी तरह कामयाब नहीं रही है। कर्नाटक दक्षिण का ऐसा पहला राज्य है, जहां 2008 में सरकार बनाकर बीजेपी ने अपने ऊपर लगे ‘सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी’ के धब्बे को हटाया था। लेकिन दक्षिण में आज भी कर्नाटक इकलौता राज्य है, जहां चुनाव हारते-जीतते हुए भी भाजपा अपनी अच्छी खासी पैठ का दावा कर सकती है।

लेकिन चुनावों के लिहाज से भाजपा के सामने चुनौतियां कम नहीं हैं। येदियुरप्पा के रूप में उसके पास लिंगायत समुदाय का सबसे बड़ा नेता उपलब्ध है, लेकिन यह देखना बाकी है कि उन्हें मुख्य मंत्री पद से हटाकर इसी समुदाय के बी. आर. बोम्मई को सीएम बनाने के फैसले से उपजे द्वंद्व को पार्टी कैसे हल करती है। साथ मे चुनाव घोषित होते ही बड़े दिग्गज नेता बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में गए है, यह भी वर्तमान की सच्चाई हैं। हालांकि भाजपा ने आरक्षण के मुद्दे को छुआ है, इसलिए यह दोतरफा हो गया है। कर्नाटक में यूं तो मुस्लिम जनसंख्या दस फीसदी से कुछ ही ज्यादा है। लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी सरकार द्वारा मुसलमानों को मिलने वाला 4 फीसदी आरक्षण खत्म कर उसे वोक्कालिगा और लिंगायत समुदायों में बांटने की घोषणा का काफी असर इस चुनाव में दिखाई देगा। कर्नाटक का मुख्य मंत्री कौन, यह प्रश्न सभी के मन में है। हालांकि, कर्नाटक कि लड़ाई आसान नहीं है। ऐसे में कर्नाटक में जीत की जिम्मेदारी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर आ गई है। मोदी सरकार की योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने का काम भाजपा का संगठन करेगा। लेकिन, वोटरों से भावनात्मक अपील करने का काम मोदी ही कर सकते हैं। मोदी और राहुल के बीच मुकाबला है, तो राहुल गांधी ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर जैसे मुद्दे देकर हिंदू समाज की भावनाओं को आहत पहुंचाई है। लोगों ने बार-बार अनुभव किया है कि कैसे मोदी चुनाव के माहौल को बदल सकते हैं। अगर नरेंद्र मोदी चुनावी रणनीति में यशस्वी होते हैं तो कर्नाटक में बीजेपी की लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का इतिहास बनाने की प्रबल सम्भावना भी है। बीजेपी की रणनीति की दिशा मुस्लिम वोटों को छोड़कर भी सत्ता पाने की है। यह मामला गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक साबित हो चुका है। कर्नाटक में भी भाजपा की यही कोशिश है। यहां तक कि भाजपा को भी यह समझ लेना चाहिए कि मुसलमानों का आरक्षण रद्द होने के बाद यह समूह उसके खिलाफ उतरेगा। हालांकि ऐसा करने से हिंदू-वोटों के एकजुट होने से ज्यादा फायदा होगा, वहीं दूसरी ओर ओवैसी की पार्टी ‘आप’ के मुस्लिम वोटों को बांट देंगी।

इस चुनाव में एक तीसरा कोण भी है, और वह है देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस। इनके लिए भी यह चुनाव बेहद अहम है। पूर्व पीएम देवगौड़ा का यह अंतिम चुनाव है और वह इसके बाद सक्रिय राजनीति से दूर हो जाएंगे। उनके बेटे कुमारस्वामी पहले ही पार्टी की कमान अपने हाथ में ले चुके हैं। हालांकि आज की तारीख में उनकी पार्टी का प्रभाव पूरे राज्य में नहीं है। ऐसे में जेडीएस की सियासी गणना और इच्छा यही होगी कि इस बार भी किसी को बहुमत ना मिले, जिससे उनकी अहमियत बढ़े। अगर किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिल गया तो जेडीएस की सियासी प्रासंगिकता पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। दिलचस्प बात है कि यह चुनाव कर्नाटक राजनीति के बाकी दो दिग्गजों का भी अंतिम चुनाव है। कांग्रेस के सिद्धारमैया और बीजेपी के येदियुरप्पा का भी यह अंतिम चुनाव है। पिछले कई सालों से ये तीनों राज्य की राजनीति की धुरी बने हुए हैं। ऐसे में तीनों अपने अंतिम चुनाव को सफलता के साथ विदा करना चाहेंगे।

अपनी स्थापना के बाद से भाजपा का विकास मुख्य रूप से उत्तर भारत में रहा है। पार्टी को दक्षिण में कभी केंद्रीय स्थान नहीं मिला। बीजेपी को सफलता का स्वाद चखाने वाला कर्नाटक दक्षिण का पहला राज्य है। कर्नाटक में सत्ता पाना बीजेपी की दक्षिण भारत की रणनीति का अहम हिस्सा है। लोकसभा के लिए बीजेपी ने उत्तर भारत से लगभग सबसे ज्यादा सफलता हासिल की थी। दक्षिण में कर्नाटक को छोड़कर बीजेपी को इतनी सफलता नहीं मिली। अब वह जिस तरह की सफलता की उम्मीद कर रही है, उसे उत्तर में अर्श पर पहुंचने के बाद दक्षिण और पूर्व की ओर जाना होगा। इस लिहाज से कर्नाटक का परिणाम भाजपा के लिए मूल्यवान है, जबकि दक्षिण में इन राज्यों की विजय कांग्रेस के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए जरूरी है। देवगौड़ा पिता-पुत्र यदि राज्य और देश की राजनीति में उपस्थित रहना चाहते हैं, तो उन्हें सत्ता को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त सफलता प्राप्त करनी होगी। उनके लिए कर्नाटक चुनाव अहम है। जाहिर है कि इस चुनाव को लड़ने में भाजपा, कांग्रेस, जनता दल एस कोई भी कसर नहीं छोड़ी जाएगी।

वैसे राज्य में मुकाबला तिकोना ही होगा क्योंकि जेडीएस भी एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में मैदान में है। फिर भी केंद्रीय प्रश्न यही रहेगा कि चुनाव बाद सरकार बीजेपी के प्रभाव वाली बनती है या कांग्रेस के प्रभाव वाली। वहीं, जेडीएस यही उम्मीद कर रही होगी कि इतनी सीटें मिल जाएं, जिससे उसके सपोर्ट के बगैर राज्य में कोई सरकार न बने। जाहिर है, अगर बीजेपी या कांग्रेस की अपने दम पर सरकार नहीं बनती है तो जेडीएस के समर्थन से किसी एक की सरकार बनेगी या फिर हो सकता है कि इनमें से किसी के समर्थन की बदौलत जेडीएस सरकार बना ले। 2018 में आई त्रिशंकु विधानसभा के बाद सरकार गठन के जितने प्रयोग हुए- पहले येदियुरप्पा ने सरकार बनाई और बहुमत परीक्षण से पहले इस्तीफा दे दिया, फिर कुमारस्वामी ने सरकार बनाई और 14 महीने बाद इस्तीफा देने को मजबूर हुए और फिर बीजेपी की ओर से येदियुरप्पा ने सरकार बनाई – उसके मद्देनजर तो सबसे बड़ी उम्मीद यही होनी चाहिए कि वोटर स्पष्ट जनादेश दें ताकि राज्य को कम से कम राजनीतिक अस्थिरता से न गुजरना पड़े। कर्नाटक के चुनावी नतीजे कहीं न कहीं उनके पक्ष में जनमत सर्वेक्षण भी माना जाएगा। माना जाता है कि जो इस चुनाव में सफल रहेगा, 2024 की सफलता उसी को मिलेगी।

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Tags: karnatakkarnataka election 2023vidhansabha

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