आज जितने जोर-शोर से पत्रकारिता दिवस मनाए जा रहे हैं, उतनी ही तेजी से पत्रकारिता गर्त में भी जा रही है। मीडिया चैनलों के कार्यालय और अखबार छोटी सी खबर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और चीखने-चिल्लाने को ही पत्रकारिता बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
मई का महीना पत्रकारों के नजरिए से बड़ा खास होता है क्योंकि हर साल 3 मई के दिन ‘विश्व प्रेस आजादी दिवस’ और 30 मई को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ मनाया जाता है। विश्व स्तर पर प्रेस की आजादी को सम्मान देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा प्रतिवर्ष 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी। 30 मई, 1826 को हिंदी भाषा का पहला अखबार ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित होना शुरू हुआ था, इसलिए उस दिन को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाने के लिए चुना गया। अब यह दोनों दिन मनाए तो बड़े धूमधाम से जाते हैं, बड़े-बड़े आयोजन होते हैं, जलसे-सेमिनार होते हैं, पत्रकारिता के उठते-गिरते स्तर पर, उसकी वर्तमान स्थिति पर चर्चा-परिचर्चा भी होती है लेकिन दुर्भाग्य से उसका कोई नतीजा निकलता नहीं है।
अगले दिन आप फिर किसी फेक खबर, झूठी अफवाह और मन मुताबिक नेताओं-अभिनेताओं, सेलेब्रिटीज से जुड़ी खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए अखबारों और टीवी माध्यमों में आसानी से पा जाएंगे। अच्छा, इसमें सबसे रोचक बात यह है कि इस तरह की खबरों के प्रस्तुतीकरण की जिम्मेदारी भी वही महानुभाव निभा रहे होंगे जो 3 मई या 30 मई को बड़े-बड़े आयोजनों में शब्दों की लफ्फाजी करते हुए पत्रकारिता के गिरते स्तर का रोना रोते मिले होंगे। यह कहने में संकोच नहीं कि लोकतंत्र में जिस मीडिया की भूमिका लोगों को जागरूक और शिक्षित बनाना होता है, वर्तमान में वही मीडिया आत्म-जागरूकता और शिक्षा की कमी से पीड़ित है। पत्रकारिता के इस गिरते स्तर के जिम्मेदार प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों की भूख और विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टीआरपी की अंधी स्पर्धा है, जिसने मानवीय संवेदनाओं को कुचलने में भी कोई कमी नहीं छोड़ी है।
आप किसी भी अखबार को उठा कर देख लें, या किसी भी टीवी चैनल का बारीकी से अवलोकन करें तो पाएंगे वहां अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रदेशीय, लोकल, क्राइम, शिक्षा, व्यापार इत्यादि के लिए पृष्ठ या स्लॉट तो हैं लेकिन दिखाएंगे या लिखेंगे क्या, बस सनसनी। बड़े-बड़े कथित राष्ट्रीय अखबार भी उसी भेड़चाल में शामिल हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की गंध पर तो न बोलना ही बेहतर है। अब उसमें कुकुरमुत्ते की तरह उग आए यूट्यूब चैनलों ने तो बेड़ा ही गर्क कर रखा है। अब जरा अंदाजा लगाइये, अतीक ने कहां पेशाब किया, कितनी देर किया, उसके हावभाव क्या थे इस खबर से किस राष्ट्रीय समस्या पर चर्चा की जरूरत पूरी हुई? छपास का रोग पाले बैठी गुमनाम रहने वाली अनेकों मॉडल्स अश्लील ऑउटफिट पहनकर पापराजी को पोज देते हुए रातों रात सेलिब्रिटी बन जाती हैं। मजे की बात यह कि हमारा कथित मुख्यधारा का मीडिया भी उनके सम्मोहन से बच नहीं पाता और उसी खबर को जस का तस परोस देता है। उर्फी जावेद, पूनम पांडेय, शर्लिन चोपड़ा या इस तरह की मॉडल्स/एक्टर्स क्या पहनेंगी यह उनकी पसंद है, लेकिन चटखारे लेकर जब पत्रकार उस खबर को परोसते हैं तो पत्राकारिता के गिरते स्तर का अंदाजा होता है।
आजकल तो कुछ टीवी चैनलों के एंकर लोगों का ध्यान खींचने के लिए बोलते कम हैं, शोर ज्यादा मचाते हैं। अगर मामला सीमा सुरक्षा, सीमा पर तनाव या सेना से किसी भी रूप में जुड़ा हुआ हो तो स्टूडियो को क्रोमा के माध्यम से पूरा युद्धक्षेत्र में बदल देते हैं। और तो और एंकर खुद फौज के कपड़े पहनकर आ जाता है। धरती पर भुखमरी, किसानों की समस्या, मजदूर आंदोलन, मूलभूत समस्याओं और आर्थिक बदहाली पर चर्चा-परिचर्चा छोड़ आसमान पर उड़ते हुए चुनावी नतीजों की रिपोर्टिंग होने लगी है। आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कई एंकर खुद कई पार्टी के प्रवक्ता बन गए हैं। किस एंकर का राजनीतिक झुकाव किस पार्टी की ओर है इसका अंदाजा उसके कार्यक्रम से लग जाता है। जो बड़े मीडिया संस्थानों से किसी न किसी कारण अलग होकर अपना डिजिटल चैनल चला रहे हैं वह भी इसी भेड़िया घमासान का हिस्सा बन गए हैं।
अगर नामचीन पत्रकारों की यह हालत है तो फिर सड़क छाप बूम पकड़े हुए, मोबाइल या डीएसएलआर कैमरे से शूट करते हुए जाहिल पत्रकारों के लिए तो ‘सबय भूमि गोपाल की’ हो गई है। कुछ भी, कहीं से भी, किसी भी विषय पर तथ्यहीन खबरें और समीक्षाएं परोसने में ये कथित पत्रकार पीछे नहीं रहते। अतीक के पेशाब वाली खबर जब चल रही थी तब मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर के दौरान मैंने खुद यह अनुभव किया कि कई सुधी नागरिक निहायत गम्भीरता से उस खबर को यूट्यूब पर देख रहे हैं। मानो अतीक का बीच रास्ते पेशाब करना राष्ट्रीय खबर हो। हालांकि यह सभ्य भाषा नहीं है, लेकिन जब सोशल मीडिया पर पत्रकारों को मूत्रकार कहकर संबोधित किया गया तो लगा बहैसियत पत्रकार हम शर्म से गड़ क्यों नहीं गए।
एक दौर था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से पत्रकारिता के नाम पर जंगल में जानवर, पाताल में भगवान की खोज, सास-बहू की साजिश जैसी नौटंकियां भी देखने को मिलती थीं। बाबाओं के किस्से भी होते थे। हालांकि अब उसमें थोड़ी कमी तो आई है लेकिन उसकी जगह अफवाहों, अनर्गल बहसों और पार्टी प्रवक्ताओं की चीख पुकार ने ले ली है। मीडिया संस्थान सर्वे के खेल भी खूब खेलते हैं। ‘सर्वे’ करने वाले पत्रकार अगर ‘सरोकारों’ की पत्रकारिता करते तो कम से कम ‘पत्रकारिता की रूह’ तो बचती। ब्रिटिश शासन के दौरान एक अखबार के मालिक ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया था कि उन्हें अखबार के लिए पत्रकारों की जरूरत है। विज्ञापन में साफ लिखा था कि मेहनताने के रूप में दो सूखी रोटी, दाल और अंग्रेजी हुकूमत के डंडे मिलेंगे।
आज तो पत्रकारों से सनसनीखेज ब्रेकिंग खबरें कितनी दे सकते हो, विज्ञापन ला सकते हो, पीआर कर सकते हो, मंत्रालय में कैसे सम्बंध हैं, किस राजनेता से घनिष्ठता है जिसका संस्थान को लाभ दिला सकोगे जैसे सवाल पूछे जाते हैं। मीडिया की यह भूमिका पत्रकारिता के लिए घातक होती जा रही है। मूत्र विसर्जन करते अतीक अहमद की कवरेज करने वाली पत्रकारिता का अंत भी अतीक की तरह हो तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि हत्यारों ने भी तो आड़ मीडिया की ही ली। यह भी एक कड़वा सच है कि जिस तरह से आज की पत्रकारिता चल रही है, अगर उसकी यही रफ्तार चलती रही तो वह दिन दूर नहीं, जब पत्रकारिता भी भ्रष्ट नेताओं की तरह जनमानस में अपना विश्वास खो देगी। फिर पत्रकार केवल ‘विश्व प्रेस आजादी दिवस’ और ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ का झुनझुना बजाते हुए मात्र मजाक बनकर रह जाएंगे।
– सैयद सलमान