पर्यावरण का जो संकट और त्रासदी आज हम सबके सामने है, उसके प्रति सबसे ज्यादा ज़वाबदेही विकास की उस अवधारणा की है जिसमें हमने प्रकृति को केवल भोग की वस्तु बना लिया है। प्रकृति हमें जीवन का आलंबन नि:शुल्क देती है और हम उसका भरपूर दोहन कर रहे हैं। कंक्रीट के जंगल शहरों में ही नहीं,अब गांवों तक फैल गये है। यदि यही रफ्तार रही तो ४०-५० सालों में धरती पर वनस्पतियों का नामोनिशान मिट जायेगा। पर्यावरणीय समस्यायें जैसे प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन वग़ैरह मनुष्य को अपनी जीवन शैली के बारे में पुनर्विचार के लिए प्रेरित कर रही है। जीव और वनस्पति संतुलन बनाए रखने की जरूरत है लेकिन आज वह बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
वनौषधि जगत और मानवीय काया के परस्पर संबंधों की इस देश में स्वर्णिम परंपरा रही है। जड़ी बूटियों ने आदिकाल से आज तक मानव जगत को दीर्घायु, स्वास्थ्य अनुसंधान और रोगों से लड़ने का विलक्षण सामर्थ्य प्रदान किया है।मानव समाज की रोगग्रस्त परिस्थितियों के मद्देनजर बेनाम कायम कलेवर रूप में येन केन प्रकारेण जीवित समूलत: दिव्य जड़ी बूटियों पर आश्रित वनौषधि चिकित्सा विज्ञान की तरफ ध्यान आकृष्ट होना स्वाभाविक है। बदलते समय के साथ साथ लोग इस क्षेत्र की अपनी विशेषतायें खोते चले जा रहे हैं। अन्यथा पुराकाल में जनमानस में स्थान प्राप्त एक मात्र चिकित्सा पद्धति आज क्यों कर इतनी उपेक्षित रहती? बुढ़ापे की जीर्णावस्था से निजात दिलाने में सर्वथा समर्थ आयुर्वेद चिकित्सा आज भी किसी भी तरह अप्रासंगिक नहीं है। लोगों को मृत्यु से प्राण दिलाने वाली संजीवनी बूटी का भी प्रमाण शास्त्रों से प्राप्त होता है। आज पेड़, पौधे, वनस्पतियां आधुनिकता की शिकार हो रही है।
पर्यावरण संकट के कारण पृथ्वी विनाश के कगार पर है। अणुओं के विनाशकारी प्रयोगों से क्षुब्द आइंस्टीन ने कहा था – हम बैलगाड़ी युग की तरफ लौट रहे हैं।आज खतरा सिर्फ बैलगाड़ी युग तक लौटने भर का नहीं है, वरन् सभ्यता के विनाश तक के बिंदु उभर रहे है।आकाश से संकट बरप रहा है। जल स्तर नीचे जा रहा है। पेड़ पौधों के विनाश से लोगों की सांस फूल रही है। कभी एडगर माशेल (१९७१ में अपोलो १४ के चंद्र यात्री) की ” चमकीले नील श्वेत हीरे सी पृथ्वी, चारों ओर स्वच्छ धवल चादर से लिपटी, जैसे रहस्य से भरे घने काले समुंद्र के बीच छोटा सा मोती” अब बदरंग हो चुकी है। ३० के दशक में खोजी गई क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी एफ सी) ने सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणों से रक्षा करने वाली ओजोन परत में जो सेंध लगायी है, वह छेद अब एक फुटबॉल के मैदान से बढ़ता हुआ अफ्रीका के क्षेत्रफल के बराबर जा पहुंचा है।
विकास की आधुनिकता की जो अंधाधुंध भागदौड़ शुरू हुई है, उसने पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में ला दिया है। ज़मीन की बरबादी, जंगलों की कटाई, वायुमंडल का प्रदूषण, नदियों में गंदगी और समंदर में विषैले रसायन का कचरा तथा आणविक परीक्षण, इन सभी ने मिलकर पर्यावरण को जो क्षति पहुंचाई है, वह अभी भी थमती नज़र नहीं आती। विकसित और विकासशील देशों के मतभेद इस बिंदु पर जस के तस बने हुए हैं। अगर उनमें सुधार अथवा समझोते की गुंजाइश बनी भी तो निर्णयों को कारगर ढंग से अमल में लाने की इमानदारी से पहल नहीं हुई। इसका साफ कारण है –ऊर्जा के ठोस विकल्प का अभाव। मनुष्य तथा अन्य वनजीवों को अपने जीवन के प्रति संकट का सामना करना पड़ रहा है। प्रदूषित पर्यावरण का असर पेड़, पौधों तथा फसलों पर पड़ा है।समय के अनुसार बरसात नहीं होने पर फसलों का चक्रीकरण भी प्रभावित हुआ है। प्रकृति के विपरित जाने से वनस्पति और भूमिगत जल पर भी इसका बुरा प्रभाव देखा जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार २०५० तक प्रति वर्ष अनुमानित ३.६ मिलियन लोगों की मृत्यु हो जायेगी। अकेले वायु प्रदूषण प्रमुख हत्यारा होगा जो स्वच्छता की कमी और वैश्विक स्वास्थ्य के ख़तरे के रूप में स्वच्छ पेयजल की कमी को पीछे छोड़ देगा।
औद्योगिकीकरण को पर्यावरण संकट का मुख्य कारण माना जा रहा है। औद्योगिकीकरण के कारण पृथ्वी के वातावरण में कई प्रकार की जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे पर्यावरण को क्षति पहुंचती है। मनुष्य भौतिक पर्यावरण को कई तरह से प्रभावित करता है जैसे अत्यधिक जनसंख्या, प्रदूषण, जीवाष्म ईंधन को जलाना तथा वनों की कटाई। भारत में पर्यावरण को दो तरफ से खतरा है। एक तो गरीबी के कारण पर्यावरण का अपक्षय और दूसरा खतरा साधन संपन्नता एवं तेज़ी से बढ़ते हुए औद्योगिक क्षेत्र के प्रदूषण से।भारत में ताजे जल के सर्वाधिक स्रोत अत्यधिक प्रदूषित होते जा रहे है।इसकी सफाई में सरकार को भारी व्यय करना पड़ रहा है।जल जीवों की विविधता भी लुप्त होती जा रही है। शहरी क्षेत्रों में वाहनों से प्रदूषण है।
भारत विश्व का दसवां सर्वाधिक बड़ा औद्योगिक देश है, परंतु यह पर्यावरण की कीमत पर हुआ हैं। पर्यावरण का अपक्षय यह है कि निर्धन लोग गोबर के उपले तथा जलाऊ लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं।यह प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग ही है। औद्योगिकीकरण को पर्यावरण संकट का मुख्य कारण माना जा रहा है। औद्योगिकीकरण के कारण पृथ्वी के वातावरण में कई प्रकार की जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे पर्यावरण प्रभावित होता है। मनुष्य भौतिक पर्यावरण को कई तरह से प्रभावित करता है।
यह जरूरी है कि प्रकृति के साथ हमारा सहोदर भाव हो,सहअसस्तितव का रिश्ता हो। भारत जैसे बहुसंख्यक आबादी वाले देश में पर्यावरण का नित बदलता रुख खाद्यान्न सुरक्षा के लिए भी खतरे का संकेत कर रहा है। पृथ्वी जगत के प्राणियों की स्वास्थ्य रक्षा के लिए औषधियों को सम्हाल कर रखने के कारण पृथ्वी को “गृभि: औषधीनाम” भी कहा गया है। जरूरी है कि हम प्रकृति मित्र बन कर रहे। पर्यावरण सुरक्षा के लिए भी राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण होगा तो जीवन रहेगा।