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पूर्वांचल की जीवन-दृष्टि

पूर्वांचल की जीवन-दृष्टि

by जितेंद्र नाथ सिंह
in जनवरी २०१६, सामाजिक
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पूर्वांचल’ शब्द के उच्चारण मात्र से मन में एक पवित्र भाव भर जाता है। चारों दिशाओं में पूर्व सबसे पवित्र है। इसी दिशा में प्रकाश की पहली किरण फूटती है। यह इसलिए भी        महनीय है कि यह अंधकार से ड़रता नहीं। अंधेरा देखकर यह हाय तौबा नहीं मचाता, बल्कि धीरज के साथ समय काट लेता है। वह जानता है कि अंधेरा सच नहीं है। सच है प्रकाश, जिसकी किरणें उसके आंचल में फूटेंगी, यह अटल सत्य है।

‘आंचल’ शब्द भी बड़ा मनमोहक है। आंचल की छांह जिस प्राणी को नसीब होती है वह निर्भय हो जाता है। जो छाया दे, वह मां की गरिमा से मंडित होती है। पूर्व के लोग धरती को मां मानते हैं। ‘माता भूमि: पुत्रोऽहम् पृथिव्या:’ यह वेदवाक्य पूरबिया लोगों के जीवन का मंत्र है। शय्या-त्याग के बाद पूर्व का आदमी जमीन पर पैर रखने के पूर्व उसकी मिट्टी के कण माथे से लगता है। बच्चे का जन्म होता है तो सबसे पहले मिट्टी जगाई जाती है। यह मिट्टी जगाना अपनी जमीन और उसकी परंपरा से जुड़ना ही है।

इस तरह पूर्वांचल की संस्कृति अनेकानेक मोहक विशेषताओं से समन्वित है और एक प्रकार से देखा जाए तो जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसके विकास की भूमि यही है। भौगोलिक दृष्टि से सीमा बांधनी पड़ती है, अन्यथा सच तो यही है कि पाश्चात्य संस्कृति के तुलनात्मक संदर्भ में जिस महनीय भारतीय संस्कृति का बखान किया जाता है उसकी विकासभूमि पूर्वांचल ही है। उत्तर प्रदेश देश का हृदय प्रदेश है और उ.प्र. का हृदय उसका पूर्वीभाग ही है, जिसका केंद्र काशी है। इस तरह काशी की जीवन-दृष्टि ही व्यापक रूप में पूर्वांचल की जीवन-दृष्टि के रूप में मान्य है।

देश के नक्शे में काशी एक नगर विशेष ही है किन्तु कभी काशी राज्य हुआ करता था। काशी राज्य की चौहद्दी कहां से कहां तक थी और कितनी बार यह चौहद्दी बढ़ी, घटी या बदली इसका विवेचन करना हमारा विषय नहीं है। हमें केवल सांस्कृतिक दृष्टि से बात करनी है और इस दृष्टि से इसका दायरा बहुत बड़ा है। जिसे हम पूर्वांचल कहते हैं वह सांस्कृतिक दृष्टि से संपूर्णत: काशी के अंतर्गत है। वैसे तो काशी को देश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है लेकिन केवल भावात्मक दृष्टि से ही नहीं बल्कि भौतिक दृष्टि से भी वह व्यवहारत: पूर्वांचल की राजधानी है।

पूर्वांचल की संस्कृति को हम दूसरा नाम देना चाहें तो इसे भोजपुरी संस्कृति भी कह सकते हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने जो भाषा-भूगोल बनाया है, उसके अनुसार वे भोजपुरी और अवधी आदि में अलगाव देखने के अभ्यस्त हैं। इसलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश या पूर्वांचल को भी वे भाषा के आधार पर बांटकर देखते हुए ‘भोजपुरी संस्कृति’ प्रयोग पर आपत्ति उठा सकते हैं। यह भी सही है कि भौगोलिक दृष्टि से भोजपुर बिहार के अंतर्गत आता है। अत: जो लोग पूर्वांचल का दायरा पूर्वी उ.प्र. तक ही सीमित रखते हैं, वे भोजपुरी संस्कृति के नाम पर आपत्ति करेंगे ही, किंतु संस्कृति सदैव भूगोल की सीमा का अतिक्रमण करती आई है। रोहतास और आस-पास के अंधिकांश क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से बिहार में होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही अंतर्गत हैं और उनकी राजधानी राजनीतिक दृष्टि से पटना हो तो हो किंतु व्यवहारत: काशी ही है। इसीलिए वर्तमान समय में काशी का जो विस्तार हुआ है, उसमें बिहार का हिस्सा सबसे अधिक है। बिहार का प्रमुख पर्व छठ अब काशी सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश का भी एक बड़ा पर्व बन चुका है, इससे अधिक प्रमाण क्या चाहिए?

इसके बावजूद कोई पूर्वांचल की इस परिभाषा को नहीं मानना चाहता, तो न माने। इस संबंध में मेरा कोई आग्रह नहीं है। यहां यह मेरे विचार का विषय भी नहीं है। मुझे तो पूर्वांचल की जीवन-दृष्टि और उसकी संस्कृति के सम्बंध में विचार करना है जिसके कारण यह क्षेत्र एक ओर तो भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है तथा दूसरी ओर विकास के क्षेत्र में यह सबसे पीछे है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो अपने पिछड़ेपन पर भी गर्व करता रहा है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद अब जब बेरोजगार एवं कुंठित पीढ़ियां सामने खड़ी हैं, तब उसे थोड़ी-थोड़ी ग्लानि अवश्य होने लगी है, थोड़ी-थोड़ी महत्वाकांक्षा इसके भीतर भी अब कुलबुलाने लगी है किंतु अभी भी मोल-भाव तथा देन-लेन की चालाकी इसके भीतर नहीं आ पाई है। खुश हो गया तो यह तुरंत किसी को सिर पर बैठा लेता है तथा नाराज हुआ तो निगाह से उतार देने में इसे देर नहीं लगती।

पूर्वांचल छल-छद्म नहीं जानता। जो भीतर है, वही बाहर। वह जैसा है, वैसा ही दिखना चाहता है। बनावट से उसे परहेज है। इसलिऐ बुद्धिमान, विद्वान और कार्यकुशल होने के बावजूद दिखावे की दुनिया में वह प्राय: पिछड़ जाता है। जमाना पालिश का है। पालिश किया हुआ चमचमाता पीतल बाजार में सोने को मात दे सकता है। सोना मूल्यवान है तो उसे मूल्यवान दिखना भी चाहिए। अन्यथा बाजार में वह पिट जाएगा। पूर्वांचल के नए लोग दूसरे क्षेत्रों के लोगों के संपर्क में आकर अब इस कटु सत्य को थोड़ा-थोड़ा समझने लगे हैं और इसके विकास की दृष्टि से यह शुभ संकेत है। जमाने की चाल-ढाल में चलना और ढलना आगे बढ़ने के लिए जरूरी है। लेकिन उससे भी जरूरी यह है कि कंधे पर लदी हुई पुरानी गठरी को उतार फेंका जाय। भारी गठरी उतारे बिना दूसरों के साथ कदम मिलाकर चलना भी संभव नहीं होता, आगे बढ़ने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती।

बतलाना जरूरी नहीं है कि यह गठरी रीति-रिवाजों, परंपराओं, मान-मर्यादाओं तथा नैतिक एवं मानवीय मूल्यों की है। पूर्वांचल के लोगों ने इसे कस कर पकड़ रखा है। इसकी सड़कों पर २१वीं सदी के कीमती वाहन चल रहे हैं तो पुरानी बैलगाड़ी को भी यह बनाए एवं बचाए हुए है। सभी पुराने पर्व-त्योहार और रीति-रिवाज बदस्तूर कायम हैं तथा उनके साथ नऐ-युग के ताम-झाम में भी वह कोई कमी नहीं रहने देता। विवाह-शादी, मरनी-करनी और न्योता-हंकारी सब में पूर्वांचल की इस विशेषता को लक्षित किया जा सकता है।

आजकल जिसे ‘नास्टेल्जिया’ (अतीतजीविता) कहते हैं, पूर्वांचल के लोगों के लिए आज भी वह गर्व का विषय है। बाप-दादों से जैसा होता आया, वैसा न करने पर नाक कट जाएगी, ऐसा उनका विश्वास है। यह नाक भी बड़ी अजीब चीज है। जरा-जरा सी बात पर कट जाती है। आज भी इसे बचाने के लिए भारी ब्याज पर कर्ज लिए जाते हैं। नाक रखने के लिए पुश्तैनी जमीन का हिस्सा बेच दिया जाता है। महाजन से कर्ज लेने में इसकी नाक नहीं कटती लेकिन तेरही पर सात गांव का भोज नहीं करा सके तो इसका कटना निश्चित है।

बड़ा उत्सवप्रिय है हमारा पूर्वांचल। ‘सात बार नौ त्योहार’ यह कहावत नहीं, अपितु पूर्वांचल का जीवन-सत्य है जिसका सबसे जीता जागता स्वरूप काशी में दिखलाई पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों के अपने कुछ विशिष्ट आयोजन भी हैं। नियमित अंतराल पर यज्ञ अनुष्ठान, भजन-कीर्तन, रामायण तथा अन्यान्य उत्सव परंपरागत रूप में होते ही रहते हैं। जो कुछ भी होता आया है, उसे पकड़े रहना पूर्वांचल का स्वभाव है। साथ ही साथ इसके भीतर देश-दुनिया में जो हो रहा है, उसे भी तुरंत अपनाने की पूरी उदारता भी कूट-कूट कर भरी हुई है। यही कारण है कि विभिन्न प्रकार के वादों, विचारों, मतवादों और सिद्धांतों के विकास तथा प्रचार-प्रसार की दृष्टि से पूर्वांचल की भूमि बहुत उर्वर रही है। इसके यहां सभी का स्वागत है। यह सबको सुनता है तथा सभी की अच्छी लगने वाली बातों को ग्रहण करता है। इसीलिए इसके भीतर कट्टरता नाम की चीज कहीं नहीं मिलेगी।

जैसा पहले कहा गया अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण पूर्वांचल विकास की दौड़ में सबसे पिछड़ा हुआ है। तथाकथित स्मार्ट समाज के मानदंडों पर खरा न उतर पाने के लिए इसकी प्राय: आलोचना की जाती है। पूर्वांचल इस तरह की आलोचना का प्रतिवाद नहीं करता। वह बस मुस्कुराकर रह जाता है क्योंकि इसकी दृष्टि में स्मार्टनेस से बहुत बड़ी चीज है मनुष्यता जिसकी दीक्षा लेने के लिए लोगों को यहीं आना पड़ता है।

पूर्वांचल की बोलियों में ‘मैं’ प्राय: होता ही नहीं। यहां ‘मैं’ की जगह ‘हम’ ने ले ली है। भाषा के व्याकरण की यह विशेषता वस्तुत: जीवन के व्याकरण को प्रतिबिंबित करती है। पूर्वांचल के आदमी की सोच कभी संकुचित या इकहरी नहीं होती। वह स्वयं को अपने दायरे में आने वाले लोगों के साथ रखता है और हमेशा आत्मीयता के प्रसार का अभिलाषी रहता है। नाक की सीध में चलना वह जानता ही नहीं। वह अगल-बगल, आगे-पीछे के लोगों के साथ स्वयं को सम्बद्ध करके सबके अंग के रूप में स्वयं को मानता और व्यवहार करता है।

इसीलिए पूर्वांचल की संस्कृति में औपचारिकताओं के लिए बहुत कम स्थान होता है। मध्यम पुरुष के सर्वनाम प्रयोगों पर ध्यान दें तो यह बात साफ हो जाएगी। ‘तू’ या ‘तैं’ शब्दों पर जरा ध्यान दें। सामान्यत: ये शब्द उपेक्षा या तिरस्कार के वाचक लगते हैं तथा अपने से कम उम्र के लोगों के लिए प्यार से प्रयोग किए जाते हैं। किन्तु पूर्वांचल के लोग दैनंदिन व्यवहार में माता-पिता या दादा जैसे वरिष्ठ लोगों के लिए भी इन्हीं सर्वनामों का प्रयोग करते हैं। अभिन्न एवं आत्मीय सम्बंधों में बनावट की क्या जरूरत? तुलसीदास तो भगवान के लिए भी ‘तू’ का प्रयोग करते हैंA-

 तू दयालु दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी।

हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप  पुंज  हारी॥

विशेष अवसरों पर जहां सम्बोधन की जरूरत होती है वहां आदरणीयजनों के लिए ‘रउवां’ या ‘आप’ जैसे सर्वनामों का प्रयोग करते हुए क्रिया के बहुवचन रूप का प्रयोग किया जाता है जैसे, रउवां कब अइलीं? यही संस्कृति परंपरा है जिसे पूर्वांचल ने अंगीकार कर रखा है। मां को संबोधित करते हुए जब बेटा पूछता हैA ‘माई, तैं खइली?’ तो इस प्रयोग में जो आत्मीयता का भाव है वह ‘माता जी आपने आहार ग्रहण कर लिया क्या?’ वाक्य में नहीं पाया जा सकता।

इन उदाहरणों से भी स्पष्ट है कि पूर्वांचल की संस्कृति में शब्द नहीं, अर्थग्राह्य है। नए मिलने वालों से भी यहां के लोग इतनी बेतकल्लुफी से बातचीत करने लगते हैं कि प्रथम दृष्ट्या वह बाहरी लोगों को बड़ा नागवार लगता है। दूर होते ही वे आपस में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैंA ‘कैसे गंवार लोगों से पाला पड़ गया है। ये जाहिल जैसे मैनर्स जानते ही नहीं’ पूर्वांचल के लोग इस तरह की प्रतिक्रियाएं सुनकर भी मजा लेते हैं। वे मौन रहते हुए मुस्कराते हैं मानो बतलाना चाहते हैंA ‘बेटा ‘मैनर’ की नहीं ‘मैटर’ की परवाह करो।’ मैटर की इच्छा हो तो आओ कुछ दिन हमारे साथ ‘बाटी चोखा’ खाओ और शराफत का ओढ़ा हुआ लबादा कुछ समय के लिए उतार कर आदमीयत की अनुभूति को जागृत करो। बाहर से पूर्वांचल में आने वाले जब सचमुच मैटर की पहचान कर लेते हैं तो वे हमेशा-हमेशा के लिए यहीं के हो जाते हैं। आदमी की बिरादरी में ‘मैटर’ तो आदमीयत ही है जिसके रहने पर ही सारे मैनर्स कोई कीमत रखते हैं।

मोटे तौर पर पूर्वांचल की संस्कृति श्रम की संस्कृति है। यहां के लोगों में परिश्रम की अद्भुत क्षमता है। श्रम इनकी विचारपद्धति में ताजगी लाती है। परिणामस्वरूप इन्हें तृष्णा अधिक नहीं सताती। ये अपने घर-परिवार के बीच अपनी जमीन पर रहते हैं तो जीवन का पूरा आनंद उठाते हैं और उतने में ही संतोष कर लेते हैं जितने से जिन्दगी की सामान्य जरूरतें पूरी हो जाएं तथा किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। कभी कोई भूखा-दूखा आ गया तो उसकी मदद करने भर का प्रबंध हो जाय तो फिर चाहिए क्या? पूर्वांचल का आदमी अपनी छोटी सी दुनिया का राजा होता है। उसका स्वाभिमान अखंड होता है किंतु अभिमान से वह स्वयं को बचाता है।

संतोष के साथ वह अपने घर-परिवार के बीच रहना चाहता है। ईश्वर की कृपा से ‘चना चबेना’ का जुगाड़ हो जाय तो वह घर से बाहर जाने की बात ही न सोचे। यह भी है कि घर-परिवार में रहते हुए वह आराम से ही जिंदगी बसर करेगा। वह उतना ही हाड़ घिसेगा जितना जरूरी है। लेकिन अभावों की मार से त्रस्त होकर यदि उसे घर छोड़ना पड़ा तो उसकी कार्यक्षमता देखकर लोगों को दांतों तले उंगली दबाना पड़ता है। देश के महानगरों में या मारिशस, सूरीनाम, गुयाना या दूसरे देशों में जहां भी पूर्वांचल के लोग गए उन्होंने अपने परिश्रम से बंजर धरती को हरा-भरा करके दिखा दिया।

इस तरह की तमाम विशेषताओं के लिए पूर्वांचल विशिष्ट रहा है, लेकिन अब तो अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण उसे पछताना पड़ रहा है। विकास की दौड़ में वह पिछड़ चुका है और विडम्बना यह है कि वह चाहे भी तो दूसरों की तरह ‘स्मार्ट’ बन नहीं सकता। फिर भी उस दिशा में लगातार कोशिश तो कर ही रहा है। देखना है कि उसके हाथ कुछ लगता है या वह उस संचित निधि से भी हाथ धो बैठता है जिसका बखान ऊपर किया गया है।

 

जितेंद्र नाथ सिंह

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