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शर्मनाक: पिता को बेटी का शव बाइक पर ले जाना पड़ा

शर्मनाक: पिता को बेटी का शव बाइक पर ले जाना पड़ा

by हिंदी विवेक
in विशेष, सामाजिक
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मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके शहडोल से मानवता को झकझोर देने वाली एक घटना सामने आई। यहां एक पिता को अपनी बेटी का शव बाइक पर ले जाना पड़ा! क्योंकि, अस्पताल प्रबंधन ने शव के लिए एंबुलेंस देने से इंकार कर दिया था। कल्पना कीजिए, कितना ह्रदयविदारक मंजर रहा होगा, उस पिता के लिए जिसने पहले तो अपनी 13 साल की बेटी की मौत का दर्द झेला। फिर जब उस बेटी को आख़री बार अपने घर, अपने गांव, अपने परिवार के बीच ले जाना चाहा ताकि गांव की मिट्टी में अपने कलेजे के टुकड़े को दफ़ना सके, तो उस बेटी को घर ले जाने के लिए साधन भी नसीब नहीं हो सका। ग़रीबी और लाचारी की मार ने पिता को इतना मजबूर कर दिया कि वो बेटी के शव को मोटरसाइकिल पर लेकर गांव के लिए चल पड़ा। इस घटना की तस्वीर जब सोशल मीडिया पर वायरल हुई, तब महिला कलेक्टर को जानकारी मिली, उनकी संवेदनाएं जागी और प्रशासन ने एम्बुलेंस मुहैया कराई।
ये घटना है शहडोल जिले के कोटा गांव की है, जहाँ की 13 साल की माधुरी गोंड, जो सिकल सेल अनीमिया से पीड़ित थी उसकी अस्पताल में मौत हो गई। माधुरी के माता-पिता ने बेटी के शव को अपने गांव तक ले जाने के लिए शव वाहन के इंतजाम की कोशिश की! लेकिन, अस्पताल ने एम्बुलेंस देने से इंकार कर दिया। गरीब परिजन निजी शव वाहन का खर्च नहीं उठा सकते थे। इसलिए वे मोटरसाइकिल पर ही शव रखकर चल पड़े। किसी ने सोशल मीडिया पर ये फोटो पोस्ट कर दिया। इससे घटना की जानकारी कलेक्टर वंदना वैद्य को लगी, तो उन्होंने इस पिता को रुकवाया और स्वयं वहां पहुंचकर शव वाहन की व्यवस्था की।
सवाल उठता है, कि जब इस तरह का मंजर सोशल मीडिया पर वायरल होता है क्या तभी प्रशासन की नींद खुलती है! ये कोई पहली घटना तो है नहीं, जब ऐसा अमानवीय व्यवहार देखा गया हो! इससे पहले भी प्रदेश के शहडोल में कई बार शवों को कभी खटिया पर, कभी लकड़ी के पटिए पर तो कभी साइकिल पर ले जाने की दर्दनाक और दुःखद तस्वीर सामने आती रही है। क्या सरकार गरीबों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सकती कि मज़बूरी में उसे किसी का मुंह नहीं देखना पड़े! निश्चित रूप से इसे अस्पताल प्रबंधन की निष्ठुरता ही माना जाएगा, जो एक गरीब का दर्द नहीं समझ सका।
जिस मध्यप्रदेश सरकार को जनता का हितेषी कहा जाता है, जब उसी प्रदेश में ग़रीब तबक़ा अपने हक़ से महरूम रहे तो शासन और प्रशासन पर उंगली उठना लाज़मी है। चंद महीनों पहले भी मध्यप्रदेश के मुरैना की वह घटना भला कौन भुला होगा। जब आठ साल के एक बच्चे की गोद में दो साल के भाई के शव का फोटो सामने आया था! पिता बच्चे का शव ले जाने के लिए सस्ता वाहन ढूंढ रहा था, क्योंकि एम्बुलेंस कम पैसे में मिल नहीं रही थी! मुरैना के अम्बाह का यह वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ! लोग टिप्पणी तो कर रहे थे, पर उस वक़्त इस घटना को देखकर भी अनदेखी करने वाले कहां थे!
दरअसल, ये हमारी संवेदनाओं के भोथरा होने का चरमोत्कर्ष है! अब ऐसे दृश्य देखकर दिल नहीं कचोटता, पर सोचिए उस 8 साल के बच्चे के दिल पर डेढ़ घंटे क्या गुजरी होगी! जिसकी गोद में अपने उस छोटे भाई का शव था, जिसके साथ उसकी कई यादें जुड़ी होगी। अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बोझ दिल पर लिए वो मासूम अपने पिता की लाचारी और दुनिया से मदद की उम्मीद लिए क्या देख और सोच रहा होगा! आज फिर इस घटना को देखकर उस लाचार पिता का दर्द आंखों में कचोट रहा है। कितनी बेवसी रही होगी उस पिता की जिसकी बेटी की मौत पर उसकी ग़रीबी का दर्द कहर बनकर टूटा! बाप का दिल भी निश्चित रूप से पत्थर हो गया होगा।
भूगोल के मुताबिक, मध्य प्रदेश को देश का दिल कहा जाता है। लेकिन, जब इस तरह के दर्द भरे दृश्य सामने आते हैं, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज दोनों की कलई खुलते देर नहीं लगती। वैसे हमारी मानवीय संवेदना भी निष्ठुर होती जा रही है। तभी तो आए दिन ऐसी खबरें मीडिया की सुर्खियां बनती है। लेकिन, मजाल है कि कोई व्यक्ति मदद के लिए आगे आता हो! क्या हमारी संवेदनाएं सिर्फ सोशल मीडिया पर पोस्ट और कमेंट करने तक ही सीमित रह गई! क्या कोई दरियादिली दिखाकर उस पिता के लिए एम्बुलेंस की व्यवस्था नहीं कर सकता था! बेशक़ कर सकता था, इससे उस पिता का दर्द कम हो जाता जो अपनी बेटी की लाश से ज्यादा अपनी ग़रीबी और लाचारी पर रो रहा होगा।
यह देश की पहली और आख़िरी द्रवित करने वाली तस्वीर नहीं है। लेकिन, कमजोर होते मानवीय मूल्य और शासन-सत्ता से उठते विश्वास की यह एक बड़ी बानगी तो है। जिस पर सवाल उठने लाजिमी भी हैं। आज हम बड़ी-बड़ी इमारतों पर इतराते हैं। मानवीय सभ्यता अपने विकास के शीर्ष पर होने को लेकर इठलाती है, लेकिन इन बुलंदियों के बाद भी जब हम मानवीय स्तर और संवेदनाओं की बात करते हैं। फिर एक इंसान के रूप में अपने- आपको सबसे निचले स्तर पर पाते हैं।
एक पिता के लिए कितना मुश्किल वक़्त रहा होगा। अपने ही कलेजे के टुकड़े की मौत होना। उस मौत पर दो आंसू भी न बहा पाना और गरीबी, लाचारी में मदद की गुहार लगाना। ऐसे में एक बात स्पष्ट है कि दर्द तो उस पिता को भी हुआ होगा, लेकिन विडंबना देखिए की गरीबी के पीछे अपने दर्द को छुपा लिया। हमारा समाज भी बड़ा निर्दयी हो गया है। यहां संवेदनाएं भी अब हैसियत देखकर जाहिर की जाने लगी है। बड़े आदमी का कुत्ता भी बीमार हो जाए तो उसकी सुर्खियां बन जाती है। लेकिन, एक गरीब का दर्द किसी को नजर नहीं आता। आज की युवा पीढ़ी में समय के साथ परिवर्तन जरूर आ गया है। किसी भी घटना का वीडियो बनाओ और उसे सोशल मीडिया पर वायरल कर दो। ताकि, लोग उस वीडियो को लाइक कर सके, अपनी प्रतिक्रिया दे सके। ज्यादा हुआ तो गुस्सा ज़ाहिर कर दे। लेकिन, मुद्दा यही है कि जब ऐसी घटना घटती है तो मदद के लिए कोई क्यों आगे नहीं आता!
पिता की तो अपनी मजबूरी थी जो उसने अपने दर्द को गरीबी के पीछे छुपा लिया। पर छिन्न होते हमारे मानवीय मूल्यों का क्या? आज मानव संवेदनाएं भी सरकारी तंत्र की तरह हो गई है। जिसे न कुछ दिखाई देता है न सुनाई देता है। बात रहनुमाई व्यवस्था की करें, तो उसके लिए यह घटना शायद मायने ही न रखती। क्योंकि, गरीब का दर्द सरकार को न तो सुनाई देता है और न दिखाई! उसके लिए तो मानो उनकी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर उन्हें कौन कहे कि ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावे किताबी है। ऐसे में जिस दिन हमारी रहनुमाई व्यवस्था गरीब का दर्द समझ जाएगी उस दिन सही मायनों में देश विकास की बुलंदियों को छू लेगा, वरना सियासतदां अव्यवस्था को ही विकास कहते रहेंगे और ग़रीब अपनी जिंदगी पैसों के अभाव में गंवाता रहेगा।
– सोनम लववंशी 

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