गुरु गोविंद सिंह: धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध अभियान

सिख गुरुओं ने इस्लामिक कट्टरता के विरुद्ध कड़ा प्रतिकार किया और भारत की सनातन संस्कृति तथा परम्परा के स्थायित्व के लिए सदैव प्रयासरत रहे। वर्तमान हिंदू-सिख पीढ़ी को उनसे सीख लेने की आवश्यकता है कि हम सब एक दूसरे के पूरक हैं, अलग नहीं।

देश के अंदर विभिन्न राजनीतिक कूटनीतिज्ञों ने जनता को बरगलाकर अपने धर्म, जाति, वर्ग, भाषा और जनसंख्या के आधार पर अलग राष्ट्र, अलग ध्वज, अलग प्रधान मंत्री, अलग संविधान तक की मांग करना शुरू कर दी है। इस अलगाववादी मानसिकता के कारण वर्तमान में स्थितियां विकट होती जा रही हैं। अपने-अपने धर्मों के प्रति श्रद्धा और विश्वास मानवता के सद्गुण हैं, लेकिन जब उनका स्थान कट्टरता ले लेती है तो धर्म अधर्म के मार्ग पर अग्रसर होने लगता है। केवल मेरा मार्ग ही श्रेष्ठ है, ऐसा आग्रह आपसी ईर्ष्या, द्वेष को बल प्रदान करता है।

मुस्लिम आक्रमण के खिलाफ प्रतिरोध में सिख समुदाय ने वीरता, साहस, और बलिदान का अद्भुत प्रदर्शन किया है। यह इतिहास है। दुर्भाग्य से इस इतिहास को कुछ कई लोगों ने भुला दिया है। यहां तक कि राजनीतिक सत्ता हड़पने वाले स्वार्थी हिंदुओं को भी इसकी जानकारी नहीं है। इसलिए वर्तमान में चिंताजनक स्थिति हम महसूस कर रहे हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षा की भूमिका से यह प्रश्न कभी हल नहीं होगा क्योंकि सत्ता की लालसा ही इस प्रश्न का मूल है। विभाजन के बीज तभी बोए गए हैं जब हमारे नेताओं ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने की बजाय उन्हें अलग-थलग करने की नीति अपनाई है। उसी से जहरीला पाकिस्तान पैदा हुआ। खालिस्तान का विचार भी इसी स्वार्थी राजनीति का फल है।

आक्रामक इस्लामी जनजातियों द्वारा सभ्य समाजों और संस्कृतियों के विनाश के इतिहास में कई उदाहरण दुनिया भर में हैं। इस्लामिक क्रूर अत्याचार भारत में भी फैल गया था, भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति को उखाड़ने के लिए

निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। भारत में निराशा, घबराहट और विफलता फैल गई। लेकिन सनातन हिंदू धर्म की विशेषता है, जब धर्म पर कोई आफत आती है तब एक नई नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का उदय होता है। स्व तत्व और स्व धर्म की रक्षा के हर समय लिए एक नया जागरण हिंदू समाज में निर्माण हो रहा था।

साल 1400 का काल हिंदू जागरण का काल है। उत्तर में गुरु नानक, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, दक्षिण में भागवत धर्म, गुजरात में नरसी मेहता ने समाज में नई प्रेरणा और जागरूकता पैदा की। इस प्रेरणा की विरासत को अनेक संतों और वीरों ने आगे बढ़ाया है। पंजाब का हिंदू समुदाय पांच सौ वर्षों से मुस्लिम उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष कर रहा था। लेकिन जातीय भेदभाव, अंधविश्वास, असंगठन, विभिन्न सम्प्रदायों के बीच विरोधी संवाद के कारण हिंदुओं ने इस संघर्ष में कदम पीछे खींच लिए। धर्म के प्रति उदासीनता विकसित हो गई थी। इस पतित काल में भक्तिमार्ग पर चलने वाले साधु संतों ने स्वधर्म के प्रति भक्ति को समाज में फिर से जगाया। गुरु नानक का जन्म 1468 में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रतिभा से एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया। जिसमें कोई जातिगत भेदभाव नहीं था, श्रेष्ठता और हीनता की कोई धारणा नहीं थी। उन्होंने अपने मधुर भजनों और उपदेशों से शुद्ध भगवद् भक्ति की लड़खड़ाती धारा को पुनर्जीवित कर दिया।

आगे भविष्य में गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास ने पंजाब में सर्वत्र नानक का संदेश फैलाया। लंगर में सभी जातियों के लोग एक ही कतार में बैठकर भोजन करने लगे। समाज में भाईचारे की यह लहर निर्मित हुई। हिंदू समाज में हो रहे इस जागरण का विस्तार कश्मीर तक फैल गया। इसी भाईचारे के कारण महाराष्ट्र के संत नामदेव सिखों और नानक के शिष्यों के प्रिय हो गए। भक्ति में लीन हिंदुओं के इन नए धर्मपीठों पर धर्मांध मुगल शासकों का ध्यान गया। इन धर्मपीठों से हिंदुओं को स्वधर्म जागरण का समर्थन और सुरक्षा का आश्वासन मिल रहा था। यहीं पर संघर्ष निर्माण हुआ। उस संघर्ष के शुरू होते ही गुरु हरगोविंद ने तलवार उठा ली। उन्होंने हिंदुओं को आक्रांत करने वाले मुसलमानों के साथ प्रतिकार की भूमिका निभाई। गुरु हरदास और गुरु हरकिशन ने भी अपने शिष्यों को आत्मरक्षा और स्वावलम्बन की शिक्षा दी। लेकिन इस संघर्ष की असली धार तब आई जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन हुआ। औरंगजेब दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उसने एक व्यापक आदेश जारी किया। हिंदू पाठशालाओं, हिंदू मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। हिंदूओं के धार्मिक कथा, कीर्तन और पौराणिक उपदेशों पर प्रतिबंध लगाया। साधुओं और बैरागियों का वध करने का आदेश दिया। हिंदुओं पर जजिया कर लगाया। हिंदुओं को अपनी सम्पन्नता के प्रतीकों का प्रदर्शन ना करने का आदेश दिया। इन आदेशों के आधार पर मुगल अधिकारियों ने हिंदुओं के संस्कृति को बड़े पैमाने पर नष्ट करना शुरू कर दिया। काशी का विश्वेश्वर मंदिर तोड़ा गया। तैंतीस लाख रुपए की लागत से बना मथुरा का मंदिर तोड़ा गया। वहां की मूर्तियों का इस्तेमाल आगरा मस्जिद की नींव के लिए किया गया था। सोमनाथ का मंदिर एक बार फिर धराशायी हो गया। साधुओं का वध किया गया। हिंदुओं के खिलाफ यह विनाश पूरे भारत में जारी हुआ था।

कश्मीर के सूबेदार शेर अफगान ने पूरे कश्मीर का इस्लामीकरण करने की भावना से हिंदुओं के खिलाफ हिंसक हथियार उठाए। पीड़ित हिंदुओं ने कश्मीर के वास्तु देवता अमरनाथ की पूजा अर्चना की। किंवदंती है कि देवता ने ‘गुरु तेग बहादुर के पास जाओ’ का संकेत दिया। सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर एक महान संत थे। उनका नाम तब तक समस्त उत्तर भारत में फैल चुका था। राजपूत राजाओं में उनके लिए बहुत अधिक भक्ति और सम्मान का भाव था। पंजाब के किसान उनकी पूजा करते थे। उनके शिष्य गुरु नानक के भक्ति सूत्र का जप करते हुए सर्वत्र भ्रमण करते थे, जिनमें से एक सूत्र था,

भय काहू को देत नहीं

नहि भय मानत आन

कह नानक सुनरे मन

ज्ञानी ताहि बखान

(न किसी को डराओ और न किसी से डरो! हिंदु धर्म की रक्षा करो! )

आनंदपुर में एक दिन प्रातःकाल के समय खचाखच भरे गुरु दरबार में कश्मीरी हिंदुओं ने गुरु को अपनी करुण कहानी सुनाई और कहा कि, हमारे सहारा बनें और हिंदुत्व की रक्षा करने का निवेदन किया। तब गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी हिंदुओं को स्व-धर्म रक्षा के लिए मुस्लिमों के आक्रांत का विरोध करने का उपदेश दिया। जिससे कश्मीरी हिंदुओं में उत्साह की लहर निर्माण हुई। जिन हिंदुओं को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया गया था, वे दीक्षा लेकर वापस हिंदू धर्म में परिवर्तित होने लगे। सदा सतर्क रहने वाले औरंगजेब के कानों तक खबर पहुंची। गुरु तेग बहादुर जी को लोग ‘सच्चा पातशाह’ की उपाधि से पहचानने लगे थे। औरंगजेब यह बात सहन नहीं कर सका कि पंजाब-कश्मीर के हिंदू गुरु तेग बहादुर जी को अपना नेता मानते हैं। गुरु तेग बहादुर जी को पकड़ने के लिए दिल्ली से आदेश निकले। गुरु को अपने मृत्यु का भविष्य स्पष्ट दिखाई दे रहा था।  गुरु के लिए शक्तिशाली मुगल साम्राज्य की सेना से लड़ना असम्भव था। गुरु तेग बहादुर जी ने यह सोचा कि यदि यह अपरिहार्य मृत्यु हिंदू जाति के उत्थान के लिए उपयोगी है, तो ऐसी प्रभावशाली मृत्यु का वरण करना चाहिए। उन्होंने अपना मन बना लिया। एक छोटी झड़प के बाद गुरु तेग बहादुरजी और उनके शिष्यों भाई मतिदास जी, भाई सतीदास जी और भाई दयाल जी बंदी बना लिये गए।

दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर के साथ पकड़े गये सभी शिष्यों से ‘इस्लाम अथवा मृत्यु’ यह प्रश्न पूछा गया। सभी धर्म वीरों ने मृत्यु को स्वीकार किया। उन्हें बेरहमी से मार डाला गया। भाई दयाल जी को खौलते पानी की कड़ाही में फेंका गया। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन का अंत भी इसी तरह हुआ था। यह याद करते हुए कि ‘गुरु की मृत्यु जैसी पवित्र मृत्यु का मार्ग मुझे प्राप्त हुआ, मैं धन्य हो गया’ कहते हुए दयाल के चेहरे पर मुस्कान आ गई। काजी ने भाई मतिदास के शरीर को आरी से सीधा काटने का आदेश दिया। शरीर के टुकड़े- टुकड़े होते समय भाई मतिदास के मुख से काव्य की स्वतःस्फूर्त पंक्तियां फूट पड़ीं,

आरा प्यारा लगत है कारा करो बनाया।

शीस जाय तो जान दो मेरा

सिररनी सिदक न जाए।

औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर से पूछा, आप खुद को काफिर हिंदूओं का साधु कहते हैं। मैं आपको इस्लाम के साथ विश्वासघात करने के लिए मौत की सजा देने जा रहा हूं। यदि आप चमत्कारों का ज्ञान रखते हैं, तो अपने आप को मौत से बचा कर दिखाएं! गुरु ने उत्तर दिया, मैं प्रभु की भक्ति के सिवा कोई अन्य चमत्कार नहीं जानता। लेकिन यदि आप चमत्कार चाहते हैं, तो मैं एक पत्र लिखूंगा और इसे अपने गले में डाल दूंगा। जैसे ही मेरा सिर कटेगा, आप एक चमत्कार देखेंगे। औरंगजेब के आदेश पर गुरु का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। उस चिट्ठी में लिखा था,

‘सिर दिया, सार न दिया!’

(सर दिया, पर धर्म नहीं छोड़ा)

गुरु तेगबदार के बलिदान ने भारत में एक महान संघर्ष के लिए मंच तैयार किया। गुरु की हत्या पर रचित गौरवशाली गीत पंजाब के हर हिंदू-सिख घर में गाए जाने लगे। धर्म के लिए त्याग करने वाली संस्कृति गौरवशाली है, यह मोक्ष प्राप्ति का दिव्य मार्ग लोगों के मन में बिठाया गया। गुरु तेगबहादुरजी की मृत्यु से हिंदुओं और सिखों के मन में समर्पण और प्रतिशोध की एक नई भावना प्रज्ज्वलित होने लगी।

गुरु तेग बहादुर जी की हत्या के बाद सिखों का नेतृत्व उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह के हाथों में आ गया। वर्ष 1675 में जिस गुरु गोविंद का उदय हुआ, दक्षिण में शिव छत्रपति का राज्याभिषेक हुआ था। बुंदेलखंड में राजा छत्रसाल ने मुगल सत्ता को चुनौती दी थी। भारत में एक सार्वभौमिक उत्थान हो रहा था। गुरु गोविंद ने सिखों को हिंदुओं की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया। धर्म की स्थापना, दुष्टों के विनाश और साधुओं के उद्धार का गीता का संदेश गुरु के मुख से प्रकट हुआ। गुरु गोविंद सिंह के नेतृत्व में पंजाब ने अलख जगाई। गुरु ने युद्ध के लिए निरंतर खड़ी सेना बनाने के इरादे से कई युवाओं को ‘खालसा’ में शामिल किया। खालसा यानी धार्मिक साम्राज्य! इस खालसा धर्म का नारा था,

सकल जगतमे खालसा पंथ गाजे।

 जगे धर्म हिंदू सकल भंड भाजे॥

गुरु गोविंद सिंह जी ने हिंदू धर्म की रक्षा, प्रतिरोध, साधुओं की रक्षा के लिए खड्ग का स्तोत्र गाया। यह एक जोशीला गीत था। सभी हिंदुओं को गुरु गोविंद सिंह के इन शब्दों से परिचित होना चाहिए। सभी सिख मूलतः हिंदू हैं। हम हिंदूओं के रक्षक हैं। यह महसूस करना आवश्यक है कि हमारी रगों में वही पारम्परिक हिंदू खून बहता है। तथाकथित सेक्युलर सर्वधर्मसमभाववादी विद्वान जो यह कहते हैं कि सिख एक पृथक् धर्म है और इसका इस्लाम से सम्बंध है, वे सदैव लोगों को भ्रमित करते हैं। उन्हें इस खड्गस्त्र का श्रवण करना चाहिए।

खंग खंड विहंडं खल दल खंडं अतिरण मंडं बरबंडं।

भुजदंड अखंड तेज प्रचंड जोति अमंडं भान प्रभं॥

सुख संता करणं दुरमति दरणं किल बिख हरणं अस सरणं।

जै जै जग कारण स्रिष्टि अबारण मम प्रतिपारण जै तेगं॥

जब चमकौर के किले को मुगलों ने घेर लिया तो खालसा सेना ने जमकर संघर्ष किया। उस युद्ध में गुरु जी के बेटे अजीतसिंह और झुंझारसिंह शहीद हो गए। वे पंद्रह और तेरह वर्ष के थे। दो अन्य बेटे, फत्तेसिंह और जोरावरसिंह, जो नौ और सात साल के थे। सरहिंद के सूबेदार ने उन्हें बेरहमी से मार डाला। जब गुरु गोविंदसिंह ने यह हृदय विदारक समाचार सुना तो उन्होंने आकाश की ओर देखकर कहा,

इन सुतनके कारणे वार दिये सुत चार।

चार दिये तो क्या हुवा  जब जीवित चार हजार ॥

मैंने अपने चार पुत्रों को हिंदू-सिख धर्म की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया। मुझे उसके लिए खेद नहीं है, क्योंकि मेरे कई हजार बेटे जीवित हैं!

गुरु गोविंद जैसा योद्धा होना मुश्किल है जो अपने हर तीर पर एक तोला सोना लगवाया करते थे। जब उनसे इसका कारण पूछा गया कि, ‘जिसे मारते हो वह शत्रु ही तो होता है फिर शत्रु के लिए सोना क्यों? गुरु साहिब का उत्तर था, मेरा कोई शत्रु नहीं है। मेरी लड़ाई इस्लामी जुल्म के खिलाफ है। किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं। मेरे तीर से जो कोई घायल होता है वह इस सोने से अपना उपचार करवा सकता है। और अगर मृत्यु को प्राप्त हुआ तो यह सोना उसके अंतिम संस्कार के काम आ सकता है। गुरु गोविंद सिंह देश धर्म की चिंता करते हुए भी दुश्मन के मृत्यू के बाद उसकी चिता तक की चिंता थी। यह तत्वज्ञान भारतीय सनातन संस्कृति का है।

1699 की बैसाखी भारतीय इतिहास का एक ऐसा सुनहरा पन्ना है जिसने डरकर मौन रहने वाली कौम को एक ही झटके में इस्लामी अत्याचार के विरूद्ध सिंह की तरह दहाड़ने की शक्ति प्रदान की। खालसा यानी शुद्ध, पवित्र धर्म और देश की रक्षा हेतु बलिदान देने को तत्पर। जब उत्तर में प्रतिरोध असम्भव हो गया, तो गुरु गोविंद सिंह दक्षिण में उभरते हिंदू राजवंश का समर्थन करने के लिए नांदेड़ आए। अफगान पठानों के जानलेवा हमले में चोटों के कारण उनकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने प्रार्थना की, उसमें भारत की प्राचीन अवतरण परम्परा के सूत्र समाहित हैं। यह सूत्र गुरु गोविंद सिंह पुराण हरि अवतार सूत्र है। धार्मिक और राष्ट्रीय उत्थान के लिए गुरु की वीरता की प्रेरणा सिखों और हिंदूओं के दिलों में निरंतर गुंजती रही। बंदा बहादुर और उनके तेजस्वी अनुयाईयों की शौर्य गाथा भी अलौकिक है। जिस अमानवीय क्रूरता के साथ औरंगजेब ने छत्रपति सम्भाजी महाराज को जान ली थी वही अमानुष क्रूरता बंदा बहादुर के भी हिस्से में आयी।

सिखों का शौर्य और बलिदान सभी हिंदुओं के लिए ऐतिहासिक धरोहर है। इस भावनात्मक एकता का प्रमाण महाराजा रणजीत सिंह के प्रतिशोध में मिलता है। जब रणजीत सिंह ने काबुल में अपनी विजयी सेना का नेतृत्व किया और पठानों को हराया तो सोमनाथ के मंदिर के द्वार, जो एक हजार साल पहले गजनी के महमूद द्वारा विजय के प्रतीक के रूप में काबुल लेकर गया था। महाराजा रणजीत सिंह हिंदुओं के सोमनाथ मंदिर के पवित्र दरवाजे अपनी जीत का जश्न मनाते हुए वापस ले आए। अपने विजय का आनंद उत्सव मनाते वक्त महाराजा रणजीत सिंह ने काशी में विश्वेश्वर मंदिर के शिखर पर स्वर्ण का कलश बिठाया। ‘खालसा धर्म के संस्थापक गुरु गोविंद सिंह से एक बार सवाल पूछा गया था कि, आप गुरु नानक को वैदिक कैसे कहते हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया वेदों को मानने वाला प्रत्येक व्यक्ति वैदिक है। जब उनसे पूछा गया कि आपके पिता ने किस लिए और किसके लिए शहादत दी, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा उन्होंने हिंदू धर्म के स्वाभिमान की रक्षा के लिए, हिंदू धर्म के लिए खुद को बलिदान कर दिया।

जब महाराजा रणजीत सिंह सत्ता में आए तो उन्होंने अपने मांडलिक को स्थापित करने के लिए काबुल पर आक्रमण करना चाहा। वे काबुल विजय से भारत और हिंदुओं पर हुए अनेक इस्लामी आक्रमणों का बदला लेना चाहते थे। काबुल के नए मांडलिक शासक के लिए उनकी केवल दो शर्तें थीं, जब आप काबुल के सिंहासन पर बैठेंगे तब आपको दो काम करने होंगे। एक, वहां गोहत्या बंद होनी चाहिए। दूसरी, आप सोमनाथ मंदिर के उन दरवाजों को वापस कर दें जिन्हें एक हजार साल पहले महमूद गजनवी ने छीन लिया था। यह सुनकर मांडलिक हैरान रह गए। आज जब सिख और हिंदू के बीच सम्बंधों पर विरोध में चर्चा की जाती है तो ये उदाहरण बहुत कुछ कहते हैं।

इस भारत भूमि में सहस्त्रों धर्म प्रचारक तथा लाखों देश संरक्षक राजा-महाराजा हुए, परंतु हिंदू धर्म पर आती हुई अनेक तरह की आपत्तियों से हार कर, मृतप्राय हुए हिंदू समाज के पुनः प्राण-संचारक यदि कोई महापुरुष हैं तो सिख धर्म के दशम गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज ही हैं।

जहां मनुष्य को समान नहीं समझा जाता। जब अपने धर्म की श्रेष्ठता हावी हो जाती है, तब औरंगजेब जैसे दूसरे विचारों को सहन न करने वाले जालिम जनमते और पनपते हैं। धर्म का काम जो बंटे हुए हैं उनको मानवता के नाम पर जोड़ना है लेकिन जब धर्म ही दिलों को बांटने का काम करने लगे तो समझो वह अपनी राह भटक चुका है। आज विश्व में जो संकीर्णता दिखाई दे रही है वह धर्म के नाम पर हो रहा भटकाव है। वैसे यह भटकाव उस काल से जारी है जब गुरु तेग बहादुर जी ने हिंसा से युक्त इस्लामी आक्रमण को ठुकराते हुए हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। उन्हीं के सुपुत्र गोविंद को इन्हीं परिस्थितियों से जूझने के लिए स्वयं गोविंद सिंह बनने और अपने समस्त समाज को सिंह और सिंहनी बनने के लिए प्रेरित करना पड़ा था। गुरु गोविंद सिंह की जीवनी भारत सहित सम्पूर्ण विश्व के लिए धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध अभियान की प्रेरणा देती है। गुरुजी ने कभी किसी धर्म का विरोध नहीं किया। वे तो इस्लामी जुल्म और अन्याय के विरूद्ध थे। लेकिन आज की कट्टरता ने उन्हें अनसुना किया, उसी का परिणाम है कल तक मुस्लिम धर्म की क्रूरता, हीनता के विरुद्ध लड़ने वाले आज स्वधर्मी बंधुओं को भी धर्मांधता की दृष्टि से देख रहे हैं।

आज की आवश्यकता है कि हम अपनी भावी पीढ़ी को गुरु गोविंद सिंह की विद्वता, संतत्व का परिचय दें। साथ ही, उनके शौर्य और मानवता के लिए हृदय में प्रेरणा उत्पन्न करने की क्षमता से परिचित करायें। हमें सोचना होगा कि आधुनिक विज्ञान की जानकारी और अनेक भाषाओं के ज्ञान के बावजूद आखिर आज का मनुष्य संकीर्ण क्यों हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने महापुरुषों के चरित्र और लोक व्यवहार को भूल रहे हैं।  जो विचार हमें भेदभाव की ओर धकेले वह न तो मानवता है और न ही आदर्श। यही गुरुओं की सीख भी है।

 

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