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गुरु गोविंद सिंह जीवनगाथा

गुरु गोविंद सिंह जीवनगाथा

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग, राष्ट्र- धर्म रक्षक विशेषांक -जुलाई-२०२३, विशेष, सामाजिक
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दसवें गुरु गोविंद सिंह का व्यक्तित्व अद्भुत था। उन्होंने समाज को जीवन के हर क्षेत्र में ऊपर उठाने के लिए प्रयास किया। उनकी सोच कालातीत थी, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण उनके द्वारा मुगल बादशाह को लिखा गया पत्र ‘जफरनामा’ है।

गुरु गोविंद सिंह को सब लोग सिखों के दसवें गुरु के तौर पर जानते हैं। गुरु गोविन्द सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वह स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओ के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वह विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। वह भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। शौर्य, साहस, पराक्रम और वीरता के प्रतीक गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को पंच ककार धारण करने का आदेश दिया था। वे एक शूरवीर और तेजस्वी नेता जाने जाते थे। उन्होंने खालसा धर्म की स्थापना की थी। गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसम्बर 1666 को बिहार की राजधानी पटना में हुआ था। उनके बचपन का नाम गोविंद राय था। उनके पिता नौवें गुरु तेग बहादुर जी कुछ वक्त के बाद पंजाब वापिस आ गए थे।

पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होंने अपने प्रथम चार वर्ष बिताए , वहीं पर अब तखत श्री हरिमंदर जी पटना साहिब स्थित है। गुरु गोविंद सिंह बचपन से ही स्वाभिमानी व वीर थे। घोड़े की सवारी लेना, हथियार पकड़ना, मित्रों की दो टोलियां को एकत्रित करके युद्ध करना और शत्रु को हराने के लिए खेल में शामिल थे। उनकी बुद्धि काफी तेज थी। उन्होंने बहुत ही सरलता से हिन्दी, संस्कृत व फारसी का पर्याप्त ज्ञान हासिल किया था। 1670 में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। चक्क नानकी ही आजकल आनंदपुर साहिब कहलाता है। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। गोविंद राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहिब में आध्यात्मिक आनंद बांटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहां पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गुरु गोविंद  सिंह जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे। कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाए जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर कश्मीरी हिंदू समाज गुरु तेग बहादुर जी के पास आया।

उस समय गुरु गोविंद सिंह नौ साल के थे। कश्मीरी पंडितों की फरियाद सुन उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवम्बर 1675 को औरंगज़ेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। गुरु तेग बहादुर जी समाज को संदेश देना चाहते थे कि धर्म परिवर्तन करने की बजाय अपने प्राणों का त्याग ही कर देना देना चहिए। इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को गोविंद सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। 10 वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अंतर्गत उन्होने पंडित कृपा दत्त से लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा सैन्य कौशल सीखे। 1684 में उन्होंने ‘चंडी दी वार’ की रचना की। आप की तीन पत्नियां थीं। 21 जून 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आंनदपुर में हुआ। गुरु गोविंद सिंह और माता सुंदरी के एक बेटा हुआ जिसका नाम अजीत सिंह था। 15 अप्रैल 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। गुरु गोविंद सिंह का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया लेकर आया। 27 दिसम्बर सन 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह व फतेह सिंह जी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा धर्म तैयार हो गया है। 8 मई सन 1705 को ‘मुक्तसर’ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन 1706 में गुरुजी दक्षिण गए जहां पर औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था (गुरुजी), वो फतहनामा लिख रहे थे। वहीं जिसके पास सब कुछ था (औरंगजेब), वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे, न कि अपने निजी लाभ के लिए। औरंगजेब की मृत्युके बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की।

गुरुजी व बहादुरशाह के सम्बंध अत्यंत मधुर थे। इन सम्बंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खां घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 को गुरुजी (गुरु गोविंद सिंह) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय में आपने सिखों को श्री गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिन्हेें गुरुजी ने सिख बनाकर बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों पर जीत प्राप्त की। 1699 मेें बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा धर्म की स्थापना की। इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पांच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात उन पांच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया। सतगुरु गोविंद सिंह ने ‘खालसा महिमा’ में खालसा को काल पुरख की फौज पद से नवाजा है। तलवार और केश तो पहले ही सिखों के पास थे, गुरु गोविंद सिंह ने खंडे बाटे की पाहुल तैयार कर कच्छा, कड़ा और कंघा भी दिया। इसी दिन खालसे के नाम के पीछे सिंह लग गया। शारीरिक देख में खालसे की भिन्नता नजर आने लगी। पर खालसे ने आत्मज्ञान नहीं छोड़ा, उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी उठाते रहे। गुरु गोविंद सिंह जयंती, सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोविंद सिंह की याद में हर साल विश्व भर में मनाया जाता है। इस दिन गुरुद्वारों को सजाया जाता है। लोग अरदास, भजन, कीर्तन के साथ गुरुद्वारे में मत्था टेकने जाते हैं।

इस दिन नानक वाणी पढ़ी जाती है और दान पुण्य आदि लोक कल्याण के तमाम कार्य किए जाते हैं। इस दिन देश-विदेश में स्थापित सभी गुरुद्वारों में लंगर रखा जाता है।  वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं, ‘भैकाहू को देत नहि, नहि भय मानत आन।’ वह बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि, धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।

      संजीव कुमार 

 

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