दशगुरु परम्परा : उदय और विकास

एक समय था जब पंजाब के हिंदू परिवारों में पहला बेटा सिख बनता था, लेकिन बीसवीं शताब्दी से सरकारों ने अपने स्वार्थ के लिए दोनों के बीच इतनी बड़ी खांई पैदा कर दी कि आज दोनों तरफ कुछ लोग अपने आप को एक दूसरे से पूरी तरह अलग मान लिए हैं।

 

इक ओंकार सतिनाम

करता पुरखु निरभउ निरवैर

अकाल मूरति अजूनी सेभं गुरु प्रसादि

अर्थात

वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, कालातीत है, वैर से रहित है, अजोनि है, स्वयम्भू है, गुरु की कृपा से प्राप्त है। गुरु नानक देव ने, जो कि सिख धर्म के पहले गुरु थे, यह परिभाषा दी है उस परमात्मा की, अगर इसे परिभाषा कहा जाए तो क्योंकि नानक जी ने परमात्मा को गा गाकर पाया था। उनका शिष्य मर्दाना बजाता था और वे गाते थे, उसे पाने की कोई वैज्ञानिक विधि नहीं थी। नानक जी दशगुरु परम्परा के आधार स्तम्भ हैं, ये धारा यही से शुरू होती है। नानक जी एक बार तीन दिन तक एक नदी किनारे बिल्कुल चुप बैठे रहे, अपने शिष्य मर्दाना के साथ। इसके बाद उन्होंने जो पहली बात कही या पहला उदघोष किया वह ‘जपुजी साहब’ है। 15 वीं शताब्दी के वर्ष 1469 से सिख धर्म का जन्म माना जाता है। सिख शब्द शाब्दिक अर्थ के रूप में संस्कृत के शिष्य शब्द से बना है। सिख वह है जो सीखने को तैयार है, जो किसी की सिखावन सुनने को राजी है। जो अकड़ में है, कुछ सुन नहीं रहा, वह सिख नहीं। इसके अलावा सिखावन सुनने का माध्यम भी जिसका हृदय है, क्योंकि हृदय से सुना गया ही आपके अस्तित्व का हिस्सा बन पाएगा। दूसरा सिख वह है जिसे गुरु पर अडिग विश्वास है, जो यह मानता है कि गुरु ही वह साधन है जिससे परमात्मा तक की यात्रा हो सकती है। इसलिए सिख धर्म में गुरु पर इतना अधिक बल दिया गया है। इस समय पूरी दुनिया में तीन सौ से अधिक धर्म और तीन हजार से अधिक सम्प्रदाय हैं लेकिन जिनमें गुरु पर बहुत अधिक बल है, वही अपना वजूद बचा पाए हैं। गुरु नानक जी ने अपने इस एकेश्वरवाद को फैलाने के लिए हजारों किलोमीटर की पैदल धार्मिक यात्राएं की हैं। उनके बाद गुरु अंगद ने लंगर व्यवस्था की शुरुआत की क्योंकि मित्रता या सम्बंध स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भोजन है। तीसरे गुरु अमरदास जी ने विवाह संस्कार और अन्य सामाजिक नियमों को विकसित किया, गुरु रामदास जी ने सिखों के मुख्य धार्मिक केंद्र हरमिंदर साहब की स्थापना की, जो आज भी उसी प्रतिष्ठा से कायम है। इसके बाद पांचवें गुरु अर्जुन देव को दी गयी फांसी से सम्पूर्ण घटनाक्रम बदल गया, जिसका कारण गुरु जी द्वारा जहांगीर के बेटे खुसरो को संरक्षण देना था। इस घटना से सिखों और मुगल साम्राज्य के बीच संघर्ष शुरू हुआ। इस घटना के बाद कह सकते हैं सिख धर्म का सैन्यीकरण होना शुरू हुआ जिसे गुरु हरगोविंद जी ने प्रारम्भ किया। उन्होंने अकाल तख्त की भी स्थापना की, जहां से सिख धर्म से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं। उन्होंने अपने शिष्यों से घोड़े और हथियार दान में लेने शुरू किए। इसके आगे गुरु हरिराय और गुरु हरकिशन जी के समय शांति स्थापित रही। लेकिन फिर गुरु तेगबहादुर जी के समय धर्मांतरण एक गम्भीर मुद्दा बन गया। मानवता और धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राण दिए। इसके बाद अगले गुरु गोविंद सिंह ने खालसा धर्म की स्थापना की। खालिस शब्द का अर्थ होता है शुद्ध, खालिस्तान का अर्थ है मन और आत्मा से शुद्ध लोगों का स्थान इसका अर्थ केवल सिख धर्म, सिख राज या केवल सिखों के राष्ट्र से नहीं है जैसा कि आज के समय अपने राजनीतिक फायदों के लिए प्रचलित किया जा रहा है।

इसके बाद इतिहास में कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम पंजाब के संदर्भ में दर्ज हैं। अहमदशाह अब्दाली के अनेक आक्रमण हुए जिसे पंजाब ने प्राथमिकता से बर्दाश्त किया। करनाल में महत्वपूर्ण युद्ध हुआ। लेकिन इन सबके बावजूद हिंदू सिख भाईचारा बना रहा, वे कभी अलग नहीं हुए। यह परम्परा रही कि हिंदुओं के परिवार का सबसे बड़ा बेटा सिख बनता था। इस सम्पूर्ण दशगुरु परम्परा ने मानवता और समाज को एक आध्यात्मिक सूत्र में पिरोने का काम किया। लेकिन बाद में 19वी शताब्दी में अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंदू और सिखों में वैचारिक दुराव बनाने की प्रकिया शुरू की। वर्ष 1871 की जनगणना में हिंदू और सिखों में भेद तक करना मुश्किल था। वहीं 1911 की जनगणना मेें बहुत बड़ी संख्या मेें सिख और जैन स्वयं को हिंदू धर्म से अलग बताने लगे। 1931 आते-आते एक नया आदेश जारी हुआ कि कोई स्वयं को हिंदू सिख नहीं कह सकता था। बेशक इसका प्रारम्भ अंग्रेज अधिकारियों ने किया था किंतु आज भी स्वतंत्रता के बाद देश के केंद्रीय नेतृत्व ने इस खाई को भरने की बजाय और चौड़ा कर दिया। राजनीतिक बांट का आलम तो यह है कि जो बात दशगुरु परम्परा से शुरू हुई थी वह और अनेक धाराओं में बंट गयी है। सिख धर्म मेें अब केवल केशधारियों को ही सिख माना जा रहा है। जो वैष्णव धारा से लगाव रखने वाले सहजधारी और उदासी सम्प्रदाय हैं उन्हें सिख नहीं माना जा रहा या फिर उन्हें उतना पसंद नहीं किया जाता। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि गुरुग्रंथ साहिब मे अनेकों महान संतों-ज्ञानियों की वाणियां संकलित हैं। प्रोफेसर कपिल कपूर के शब्दों में, ‘श्री गुरुग्रंथ साहिब जी पंजाब को सम्पूर्ण भारत की देन हैं। जैसे कि ऋग्वेद आदिकालीन पंजाब की सम्पूर्ण भारत को देन है।’

नानक जी कहते हैं –

आपे बीजी आपे ही खाहु

नानक हुकमी आवहु जाहु

हम सोचते हैं कि हमें दुख दूसरे देते हैं, जबकि सफल हम होते हैं। असफलता दूसरों की देन है। अच्छा हम करते हैं, जबकि बुरा होने का कारण दूसरे हैं। जबकि ऐसा नहीं है। नानक कहते है, मनुष्य स्वयं बोता है और स्वयं ही खाता है मगर उसे यह बीज बोने के समय और परिणाम के समय के बीच लम्बे अंतर से यह भाव ही नहीं रहता, यह होश ही नहीं रहता कि यह तूने ही चाहा था। मनुष्य में समग्र दायित्व का भाव नहीं होता जो कि होना बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि वास्तव में उसी से जीवन संचालित है।

                                                                                                                                                                                         सुमित दहिया 

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