हिंदू-सिख परम्परा जोड़ने का सेतु है राष्ट्रीय सिख संगत

वर्तमान समय में, जबकि पंजाब में खालिस्तान का मुद्दा फिर से उठ रहा है, सिख संगत जैसी साझी विरासत को समझने तथा उसे बनाए रखने वाली संस्थाओं का महत्व बढ़ जाता है। हिंदी विवेक को दिए साक्षात्कार में सिख संगत के राष्ट्रीय अध्यक्ष गुरुचरण सिंह गिल ने इससे जुड़े विषयों पर अपनी राय रखी।

राष्ट्रीय सिख संगत की स्थापना उद्देश्य क्या रहा?

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो दिल्ली में हुआ वह सारा प्रायोजित था। उसके कारण सिखों और हिंदूओं में दूरियां और बढ़ गई। ऐसे माहौल में लगा कि कहीं न कहीं संवाद का पुल बनाने का काम तो करना चाहिए। साथ में सिख समाज के घावों पर मरहम भी लगाना है। संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के विचार विमर्श के बाद निर्णय हुआ कि कोई ऐसा संगठन खड़ा किया जाए जो सिख समाज के मन को समझ सके, उनसे संवाद करे, गुरबाणी को आधार बनाकर सारे समाज को जोड़ सके। इसी विचार मंथन से राष्ट्रीय सिख संगत की स्थापना हुई।

 इतिहास काल से हिंदू-सिख समाज में आपसी सम्बंध कैसे थे?

पीढ़ी के सिख और हिंदू समाज में एकरूपता एवं समरसता थी। एक ही परिवार के अंदर कोई एक सिख था तो दूसरा सहजदारी यानी हिंदू।

 वर्तमान समय में राष्ट्रीय सिख संगत की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है?

6 जून वाली घटना और 1984 में दिल्ली के कत्लेआम को आधार बनाकर, अलगाववादी ताकतों ने ऐसा प्रचारित किया कि भारत में सिख सुरक्षित नहीं हैं। पंजाब में कभी उग्रवाद था। आज उग्रवाद नहीं है, लेकिन पंजाब के बाहर अलगाववाद बढ़ गया है। वो अपने आप को अलग मानने लगे हैं। ऐसे समय में राष्ट्रीय सिख संगत की आवश्यकता और प्रासंगिकता पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गई है। यदि सिख समाज के लोग अपने आप को स्वतंत्र मानते हुए कट्टरता की ओर बढ़ते हैं और हिंदू समाज सिख समाज को साथ लेकर नहीं चलना चाहेगा, तो निश्चित ही यह दूरी बढ़ जाएगी।

 अलगाववादी ताकतों को विफल करने के लिए राष्ट्रीय सिख संगत द्वारा किए गए प्रयासों का समाज पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है?

हमने अपने उद्देश्य में भी लिखा है कि, गुरबाणी हमारा आधार है। सारे देश में गुरबाणी और गुरु साहिबान को आधार बनाकर सैकड़ों कार्यक्रम किए गए, जिसमें साझी संगत यानी हिंदू सिख साथ-साथ आये। सिख इतिहास के विलक्षण पृष्ठों को समाज के सामने लाया। इस हेतु स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर पर अभ्यास वर्ग लगाये, जिससे संगठन भी खड़ा हुआ तथा उचित समझ भी विकसित हुई। समाज के प्रमुख लोगों से सतत संवाद बना। खासकर के पंजाब के बाहर तो लोगों को लगता है कि आज राष्ट्रीय सिख संगत के बिना हम अधूरे हैं क्योंकि बृहत्तर हिंदू समाज सहित सिख समाज को भी लगता है कि आपसी सम्बंध मजबूत करना है, सामंजस्य बनाना है, कार्यक्रम करना है। कोई भी आयोजन करना और भावनात्मक लगाव को बढ़ाना है तो सिख संगत एक बहुत ही सुदृढ़ माध्यम है।

 गुरु गोविंद सिंह के संदर्भ में आपके मन में जो भाव है, उसे स्पष्ट कीजिये?

गुरु गोविंद सिंह जी महाराज जिन परिस्थियों में जन्मे थे, उनका जो जीवन आदर्श है और व्यक्तित्व है वह तात्कालिक राजनीतिक एवं धार्मिक परिस्थियों का समाधान करने का निर्देश करता है (‘कोई न कोई हमें क्या हानि’)। ऐसा नहीं कि केवल क्षत्रिय ही देश की रक्षा करेंगे, गोविंद सिंह महाराज को लगा कि यह अधूरी सोच है। उन्होंने उदासी परम्परा के सन्यासियों को जोड़ा। साथ ही पिछले पायदान पर खड़े नाई समाज को भी जोड़ा। सभी को देश और धर्म के कार्य में लगाने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है। उस भूमिका के आधार पर उन्होंने समाज को तैयार किया। इन्हीं तथाकथित जातियों से पांच प्यारे सजाया और उन्हें सर्वोच्च स्थान देकर लोकतांत्रिक परम्परा को स्थापित किया।

 खालसा धर्म की परिभाषा क्या है?

गुरु साहब को लगा कि केवल योद्धा बनाकर हम काम नहीं चला सकते, पहले व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से उच्च मानसिकता तक जाना पड़ेगा। खालसा केवल वेशभूषा नहीं है, वेशभूषा तो उसका बाह्य प्रगटीकरण है। खालसा उच्च जीवन का आदर्श है। जो परमात्मा को निर्गुण ब्रह्म मानता हुआ केवल परमात्मा में आस्था रखकर देश और धर्म के लिए हमेशा अपने मन में पीड़ा रखता है, वो खालसा है। खालसा की जीवन पद्धति भी है। अमृत वेले (ब्रह्म मूहर्त) में जागना अनिवार्य ही है। उस समय व्यक्ति ब्राह्मण के रूप में होगा। लेकिन जब वह सारा दिन काम करेगा तो उसका रूप वैश्य का होगा। पहले वैश्य ही खेती करते थे। बाद में दुकानदार बन गए लेकिन शुरू में खेती वैश्यों का ही हिस्सा था। जब वह सेवा करेगा तो वह एक शुद्र के रूप में खड़ा रहेगा। इस भाव को रखने वाला व्यक्ति कभी ऊंच-नीच की बात नहीं सोचेगा और देश-धर्म पर आंच आई तो क्षत्रिय रूप में उसके विरुद्ध खड़ा होगा। चारों वर्णों को एक ही व्यक्ति में समाहित करना और उनका व्यक्तित्व खड़ा करना ही वास्तव में खालसा था।

पहिला मरण कबूलि जीवण की छडि आस।

होहु सभना की रेणुका तउ आउ हमारै पास॥

जब खालसा की स्थापना हुई तब कहा गया था कि आप पहले मरना स्वीकार करो पर उसमें अहंकार न हो। विनम्रता इतनी होनी चाहिए कि जैसे सबकी चरणधूलि होती है, वैसे हो जाओ।

 राष्ट्रीय सिख संगत ने अपनी कार्यप्रणाली में गुरबाणी का बहुत उपयोग किया है, इसका प्रमुख कारण क्या हो सकता है?

हमने आधार बनाया गुरबाणी को, गुरबाणी हमारी प्राचीन विरासत को मानती है। गुरबाणी में प्राचीन आख्यानों, महापुरुषों का जिक्र आता है, यानी हमारी प्राचीन विरासत को गुरबाणी में स्वीकार किया गया है। इसलिए राष्ट्रीय सिख संगत इसको आधार मानकर चला है।

 सिख समाज और हिंदू समाज एक दूसरे के लिए पूरक हैं, यह कैसे युवाओं को समझाया जाए?

सिख समाज के लोगों को प्राचीनता भी स्वीकार करना चाहिए, और अपनी पहचान कोे अपनी विरासत के साथ स्वीकार करना होगा। इसी आधार पर दोनों के बीच में हमने सारे समाज का सामंजस्य किया। इसमें अलग की दृष्टि नहीं रखनी चाहिए क्योंकि ये है ही एक। हिंदू और सिख समाज के श्मशान अलग नहीं होते। रीति-रिवाज भी एक जैसे ही हैैैं। बहुत सारी समानताएं हैं, रिश्ते नाते सब समान ही हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कहा है,

सतिर्जुग ते मणिओ छलिओ बलि बावनं भाइओ।

त्रेतै ते मणिओ रामु रघुवंसु कहाइओ॥

दुआपरि कृसन मुरारि कंस किरतारथ किओ।

उग्रसैण कउ राजु अभै भगत जन दिओ॥

साझी वार्ता सामाजिक रूप से है ही। वैचारिक एवं अध्यात्मिक रूप से कहीं न कहीं परिवर्तन होता है, उसको स्वीकार करते हुए हमने कार्य आगे बढ़ाया। इसलिए एक दुसरे से पूरे समरस रहे हैं। जो भी लोग सिख संगत के साथ जुड़े हैं, उनकी सोच में भारी परिवर्तन आया है और आता रहेगा।

 श्री गुरुग्रंथ साहिब में हिंदू सिख एकात्मता की दृष्टि से कौन सा अमृत है?

श्री गुरुग्रंथ साहिब में जो चीजेें ली गई हैं, हमारी विरासत की बातें हैं। नामदेव का शब्द है, मदन मदान राम धन बाजे… जब हम इन शब्दों को पढ़ेंगे तो बहुत सारी चीजेें अपने आप समझ में आएंगी कि अंतर है ही नहीं। जब हम गुरबाणी को आधार बनाकर कार्य करेंगे तो स्वत: ही राष्ट्रीय एकात्मता भी आएगी और सामाजिक एकात्मता तो है ही। यह भी मानना ही होगा कि राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए गुरु साहब ने अपना जीवन दिया।

 वर्तमान में सिख समाज के सामने जो प्रश्न खड़े हो रहे हैं, उसके समाधान के लिए राष्ट्रीय सिख संगत किस प्रकार से कार्यरत है?

इसके लिए हम हर स्तर के कार्यक्रम करते रहते हैं। उदाहरणार्थ, हम गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान दिवस मनाते हैं। उसमें सिख समाज के लोग आते हैं, बृहत्तर हिंदू समाज के लोग भी आते हैं, सिंधी भी आते हैं और पंजाबी भी आते है। वहां आने वाले सभी वक्ता साझी वार्ता की बात करते हैं। तो कुछ बातें बोलनी नहीं पड़ती, स्वत: हो जाती हैं। हम उपदेशात्मक रवैया अपनाने की बजाय प्रस्तुतीकरण पर जोर देते हैं। इसके कारण स्वत: ही लोगों का मन बनता जाता है कि, हम सब एक ही हैं, हमें मिल-जुलकर समस्याओं का समाधान करना चाहिए। ऐसे प्रयास हम प्रारम्भ से कर रहे हैं। और वही हमारे कार्य का आधार बना हुआ है।

 राष्ट्रीय सिख संगत के अध्यक्ष के रूप में आपके कार्यकाल में कौन से महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए?

जैसा कि मैंने बताया, समाज में सामंजस्य-साझीवार्ता और समरसता के प्रयास तो प्रारम्भ से ही रहे थे, लेकिन कुछ ऐसे भी कार्य थे जो पहले सम्भव नहीं थे। परंतु 2014 में सरकार आने के बाद सिखों को भी अपेक्षा थी कि अपनी सरकार आई है तो कुछ अपने भी काम होने चाहिए। जैसे काली सूची का विषय था, वह सारा प्रयास कर के लगभग खत्म करवाया। जो किसी कारण विदेशों में चले गए थे, लेकिन आज भारत में आना चाहते हैं। जफर्वाल और सुरजीत सिंह चौहान जैसे लोग जो खालिस्तान के कट्टर समर्थक थे, वह भी यहां पर आकर चुप हो गए और मुख्यधारा में आ गए। हमारे प्रयास से ही काली सूची का विषय हल हुआ। 1984 के बाद बहुत सी कमेटियां बनीं, आयोग बने, एसआईटी का गठन किया, इसमें नए केसों को भी जोड़ा गया और साथ में पुनर्वास का विषय भी जोड़ा गया, क्योंकि जो लोग वहां पर बर्बाद हो गए, जिनकी सारी सम्पत्ति लूट ली गई, उनके लिए सरकार ने आंसू पोेंछने जितनी भी सहायता नहीं की थी। पुनर्वास का कार्य हमारे द्वारा हुआ। 65 वर्ष के ऊपर के बुजुर्ग कैदी, जो 20 साल से जेलों में बंद थे, उनको भी मुक्त किया गया, जिससे उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सके। हमारे प्रयास से बुजुर्ग फिर से अपने परिवार में आ पाए। अरुण जेटली जब मंत्री थे तब पंजाबी में दूरदर्शन चैनल शुरू कराने हेतु उनसे आग्रह किया था, उसमें भी हमें सफलता मिली। ऐसे ही सिखों और पंजाबियों से सम्बंधित जो कार्य हैं, उन पर हमारे प्रयास लगातार चलते रहते हैं। जब प्रधानमंत्री से हम मिले थे तब हमने उनसे निवेदन किया कि गुरु गोविंद सिंह जी का 350 वां प्रकाश पर्व मनाया जाये। उन्होंने मनाया। इसके बाद गुरुनानक जी का 550 वां प्रकाशपर्व, गुरु तेगबहादुर जी का 400 वां प्रकाशपर्व मनाया गया। यह उपलब्धि सरकार की है। लेकिन उसके लिए हमने निवेदनकर उनके सामने विषय रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार किया।

खालिस्तान की मांग अलगाववादी मुद्दा है, इस मुद्दे पर आम सिख समाज की भावना क्या है?

महाभारत की एक कथा है। एक राक्षस से अर्जुन जितना लड़ते वह उतना ही बड़ा होता गया और भगवान् कृष्ण ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया तो वह छोटा होता गया। हम जानबूझकर खालिस्तान को हाईलाईट करते हैं? जो भारतीय सिख समाज है वो बहुत अच्छी तरह से जनता है कि जितना सम्मान सिखों का भारत में है, चाहे पंजाब हो या पंजाब के अलावा अन्य राज्य, वह कहीं और नहीं है। इसलिए कहीं भी उनके दिमाग में खालिस्तान नहीं है। मेरा तो स्पष्ट कहना है कि ये विषय कभी चर्चा में आना ही नहीं चाहिए। उन्हें इग्नोर कीजिये। देखिये, अपने आप वह स्वत: अपनी मौत मर जाएगा।

 कोरोना काल में सिख समाज ने बहुत सेवा कार्य किए, उसके सम्बंध में अपने विचार और अनुभव बताइए?

सिख अपने आप को सिख धर्म का फोलोअर नहीं मानते बल्कि वो अपने आपको गुरु साहिब का प्रतिनिधि मानते हैं। प्रतिनिधि मानने का तात्पर्य यह है कि, वे मानते हैं कि जो गुरु साहिब हमारे काम कर सकते थे तो हम भी कर सकते है। इस आत्मबल और विश्वास के साथ वो अपनी जान हथेली पर रखकर सेवा कार्यों में जुट गए। अमेरिका की सरकार ने वहां के गुरुद्वारों से सम्पर्क किया। सिख धर्म में सेवा, सिमरन और सत्संग ये 3 स्तम्भ हैं। उसी से प्रेरणा लेकर सिख समाज ने सेवा सहायता की। सेवा में बलिदान भी आता है, कोई भी व्यक्ति यदि सेवा नहीं करता है तो उसका जीवन बेकार है। इसलिए हमारे यहां सेवा का बहुत ही उच्च स्थान माना जाता है।

 राष्ट्रीय सिख संगत के कार्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सहयोग किस तरह से मिलता है?

हिंदू-सिख समाज में सामंजस्य बनाने के लिए संघ के बहुत सारे समर्पित प्रचारक लगे हुए हैं। अनके कार्यकर्त्ता हमसे जुड़े हुए हैं, जो हमें सहयोग करते हैं। बालासाहब देवरस और पू. रज्जू भैया ने यह बात कही थी कि सिख समाज के जख्मों पर मरहम लगाने का काम भी होना चाहिए। इसे बाद में पू. सुदर्शन जी ने आगे बढ़ाया। संघ का मानना था कि सिखों के साथ जो हुआ वह अच्छा नहीं हुआ। इसलिए सिख समाज के आहत मन कोे प्यार से जीतना होगा। इस बात को ध्यान में रखकर ही राष्ट्रीय सिख संगत को बनाया गया।

 सिख समाज के विषयों के प्रति मोदी सरकार का दृष्टिकोण कैसा है?

नरेन्द्र भाई सिख समाज के प्रति प्रारम्भ से ही सकारात्मक रहे क्योंकि उनका कार्यक्षेत्र ही राजनीति में आने के बाद उत्तर भारत रहा है। उत्तर भारत में सिख समाज काफी बड़ी संख्या में रहता है। सिख गुरुओं का महत्व क्या है, सिख मानसिकता कैसी है, इसके बारे में उन्हें अच्छी जानकारी है क्योंकि उन्होंने इसका बारीकी से अध्ययन किया है। वे बहुत कोशिश कर रहे हैं कि सिख समाज को मुख्यधारा में ही रहना चाहिए और उनको प्यार से ही जीता जा सकता है। सिखों को दबाव से नहीं जीत सकते। इस बात को समझकर सिख समाज के हित में उन्होंने 26 प्रकार की घोषणाएं की हैं। गुरुओं के बारे में, लंगर के बारे में, जीएसटी हटाने के मामले में, और भी विविध प्रकार की बातों जैसे तीर्थ यात्रा के लिए भी एक सर्किट तैयार करने का विषय चल रहा है। हेमकुंड साहब पर रोप वे बना है। उन्हें लगता है कि सिख समाज की जो आवश्यकताएं हैं, उनकी चिंता हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? इस मानसिकता के साथ वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। बुद्धिजीवी सिख समाज इसको बहुत ही सकारात्मक रूप से ले रहा है। देश और विदेश के प्रबुद्ध लोगों से मेरी बात होती रहती है, वेे इसे बहुत सकारात्मक रूप से ले रहे हैं।

 सिख और हिंदू समाज को आप कौन सा संदेश देना चाहते हैं?

मैं सभी से सामूहिक रूप से विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि जो मार्ग हमको श्री गुरु नानकदेव महाराज, उनके बाद के 9 गुरुसाहिबान और श्री गुरु ग्रंथ साहब ने सामाजिक उत्थान, अंधविश्वासों से मुक्त होकर सात्विक जीवन जीने, धार्मिक आस्था बनाकर देश समाज की सेवा करने का और गरीबो की सेवा करने हेतु दिखाया है उनको हमें अपने जीवन में आत्मसात करना चाहिए। इसी से देश का कल्याण होगा, इसी से देश ऊंचा उठेगा। देश की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहने का भाव मन में रखना चाहिए।

सरदार गुरुचरण सिंह गिल

राष्ट्रीय अध्यक्ष-राष्ट्रीय सिख संगत

 

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