फ्रांस के दंगों का यथार्थ

फ्रांस की सेक्युलर एवं उदार नीति ने देश का बेड़ा गर्क करवा दिया। फ्रांस में गैर कानूनी रूप से आव्रजकों की आज भी घुसपैठ हो रही है जो मुख्यतः पश्चिमी अफ्रीकी देशों से स्पेन और इटली के रास्ते फ्रांस पहुंचते हैं। घुसपैठिए और शरणार्थी, फ्रांसीसी समाज-राष्ट्र के लिए एक बड़ा संकट व चुनौती बन चुके हैं। जिसका दुष्परिणाम हम आए दिन फ्रांस में भीषण दंगों के रूप में देख रहे हैं।

ऐसा लगता है फ्रांस मौजूदा वर्ष 2023 को दंगों से निबटने का वर्ष घोषित करने वाला है। इस वर्ष के शुरु में फ्रांस के कर्मियों की रिटायरमेंट की अवधि 62 से बढ़ाकर 64 करने के निर्णय के भारी विरोध व इससे जनविद्रोह जैसे हालात से फ्रांस अभी उबरा भी नहीं था कि गत 27 जून को अफ्रीकी मूल के एक युवक नाहेल मरजूक की पुलिस की गोली से मौत के बाद पूरा देश मानो दंगों की आग में झुलसने लगा।

सरकारी सम्पत्तियां, पुलिस के वाहन, डिपार्टमेंट स्टोर इस तरह जलाने- लूटने का गजब का दृश्य देश भर में अचानक पैदा हो गया। ऐसा दृश्य अमूमन हम गरीब विकासशील देशों में देखते हैं, जहां दंगा जनजीवन का एक हिस्सा सा बन गया है। लेकिन दुनिया के सबसे अमीर, जनतांत्रिक सोच व मूल्यों का पालन करने वाले देश में ऐसा माहौल देखा जाना पूरी दुनिया के लोगों को हैरान कर रहा था।

फ्रांस के जिस संविधान ने अपने लोगों को आजादी, भाईचारा और समानता की गारंटी प्रदान की है और जिसके जरिये फ्रांस का समाज और राजनीति संचालित होती रही है, उसी देश में जनतांत्रिक मान्यताओं और मूल्यों व समानता की भावनाओं का घोर उल्लंघन अक्सर देश की पुलिस व्यवस्था पर करने के आरोप लगाए जाते रहे हैं।

फ्रांस में अश्वेत मूल की आबादी 20 से 50 लाख की यानी करीब 3.3 से करीब 5 प्रतिशत मानी जाती है। इसका निश्चित आंकड़ा सरकार इस वजह से नहीं बताती है कि सिद्धांत के तौर पर फ्रांस में इस नजरिए से कभी जनगणना नहीं की गई। अनुमान है कि फ्रांस में पांच में से चार अश्वेत नागरिक अफ्रीकी मूल के हैं। ये मूलतः सबसहारा वंश के हैं जिन देशों पर फ्रांस का औपनिवेशिक शासन रहा है।

फ्रांस ने 17 वीं सदी में अफ्रीकी देशों पर उपनिवेश बनाने शुरु किए लेकिन अफ्रीका में प्रभावी औपनिवेशिक शासन 19वीं सदी के अंत में ही होने लगा। 1900 के बाद से फ्रांस ने आज के सेनेगल, मारीटेनिया, माली, नाइजर, बुर्कीना फासो, गिनी, आइवरी कोस्ट, बेनिन आदि देशों पर उपनिवेश बनाए और आज भी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर फ्रांस का औपनिवेशिक राज चल रहा है। हिंद महासागर का द्वीप रियूनियन आईलैंड आज भी फ्रांस के शासन में है जहां से वह अपने सामरिक, राजनीतिक हितों की पूर्ति करता है। अफ्रीका में ब्रिटेन के बाद फ्रांस एक प्रमुख औपनिवेशिक ताकत के तौर पर खड़ा हुआ है।

स्वाभाविक है कि इन पूर्व अफ्रीकी औपनिवेशिक देशों से अश्वेत लोगों का पलायन फ्रांस में गुलामों के तौर पर होने लगा। फ्रांस के लोगों ने इनका शोषण किया और अपने ऐशोआराम के लिए इनका दोहन किया। बाद में अश्वेत अफ्रीकी लोगों को फ्रांस में समानता के पूरे अधिकारों के साथ पूर्ण नागरिकता प्रदान की गई। आज यही अश्वेत फ्रांसीसी नागरिक फ्रांस के संविधान में प्रदत्त गारंटी को अपना मौलिक अधिकार मानते हुए फ्रांस के अन्य श्वेत लोगों के साथ किसी तरह के भेदभाव की अपेक्षा नहीं करते हैं।

फ्रांस में इस तरह अश्वेतों की अपनी स्वतंत्र पहचान व हैसियत बनने लगी। श्वेत फ्रांसीसियों की तरह अफ्रीकी फ्रांसीसी भी समान सुविधाएं और अधिकारों के हकदार बन गए। लेकिन फ्रांस की कानून पालक एजेंसियों के लोगों का मानना है कि अश्वेत लोग देश में होने वाली अधिकतर आपराधिक गतिविधियों के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिस वजह से पुलिस व अन्य सरकारी एजेंसियों को इन अश्वेतों के साथ सख्ती बरतनी होती है।

अश्वेतों का कहना है कि सख्ती बरतने के बहाने उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है और उनके साथ जुल्म किया जाता है।

इस जुल्म से मुक्ति पाने के लिए 1789 में 14 जुलाई को बास्तील पर धावा बोलने वाले एतिहासिक दिवस के मौके पर फ्रांस में हर साल बास्तील दिवस मनाया जाता है। इसी दिन फ्रांस का जनतांत्रिक मूल्यों का आदर करने वाले संविधान को लागू किया गया। इसी मौके पर फ्रांस की सरकार सैनिक परेड का आयोजन करती है जिसमें मुख्य अतिथि के तौर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आमंत्रित कर भारत को सम्मानित किया गया।

इस तिथि की एक और अहमियत है कि इसी दिन भारत औऱ फ्रांस ने आपसी सामरिक साझेदारी के रिश्तों की स्थापना की जिसकी 25 वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। इस विशेष मौके पर फ्रांस को सम्मानित करने के लिए भारत ने अपनी सेना की पंजाब रेजीमेंट की एक टुकड़ी विशेष तौर पर भेजी। भारत के लिए यह विशेष सम्मान की बात इस अर्थ में होगी कि प्रधानमंत्री मोदी फ्रांसीसी सैन्य परेड की सलामी के मौके पर राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रोन के साथ मौजूद रहे।

बहरहाल फ्रांस आज जिस तरह के दौर से गुजर रहा है उसके लिये फ्रांस के औपनिवेशिक शासकों को ही जिम्मेदार ठहराया जाए तो गलत नहीं होगा। फ्रांस में जिस तरह से अश्वेत मूल के लोग जातीय, आर्थिक भेदभाव व सामाजिक अलगाव महसूस करते हैं वह एक बड़ी वजह है कि फ्रांस को आज अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजरना पड़ रहा है। फ्रांस की औपनिवेशिक नीति की वजह से ही अश्वेतों को फ्रांस लाकर बसाया गया। आज ये ही अश्वेत फ्रांस की सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो रहे हैं।

रिटायरमेंट की अवधि 64 की उम्र किए जाने का विरोध नौ जनवरी से शुरु हुआ तो इसने थमने का नाम ही नहीं लिया। राष्ट्रपति मैक्रोन की सरकार ने इस व्यापक राष्ट्रव्यापी जनविद्रोह के आगे झुकने से इनकार कर दिया। लेकिन इसके 6 महीने बाद 27 जून से फ्रांस में राष्ट्रव्यापी दंगों का नया दौर नये सिरे से शुरु होने के लिये फ्रांस की मैक्रोन सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। केवल फ्रांस ही नहीं पूरी दुनिया कोविड महामारी के दो साल तक चले अभूतपूर्व दौर से प्रभावित हुई, जिससे फ्रांस भी अछूता नहीं रहा। फ्रांस में खासकर अश्वेतों के बीच बेरोजगारी की समस्या सबसे अधिक देखी गई। इस तरह कोविड की मार झेलने के बाद फ्रांसीसी अश्वेतों को जब यूक्रेन-रुस युद्ध की आर्थिक मार भी झेलनी पड़ी तब उनका गुस्सा सरकार की कथित भेदभाव वाली नीतियों और रवैये के खिलाफ फूटा।

फ्रांस में गैर कानूनी कहे जाने वाले आव्रजकों की आज भी घुसपैठ हो रही है जो मुख्यतः पश्चिमी अफ्रीकी देशों से स्पेन और इटली के रास्ते फ्रांस पहुंचते हैं। फ्रांस चूंकि अश्वेतों के साथ सबसे उदार नीति रखता है इसलिए अफ्रीकी किसी तरह फ्रांस में ही घुसपैठ करने की कोशिश करते हैं। वहां वे फ्रांस की उदारवादी जातीय नीति का लाभ उठाकर अपने समाज के और भी सदस्यों को फ्रांस में बसने को प्रेरित करते हैं। अनुमान है कि केवल 2020 में ही फ्रांस में 46 हजार लोगों को नागरिकता मिली लेकिन इनके साथ सबसे बड़ी समस्या यह हमेशा बनी रहती है कि ये लोग फ्रांस के अन्य श्वेत समुदाय के लोगों के बीच घुलमिल नहीं पाते। इस वजह से समाज में तनाव की स्थिति बनी रहती है। श्वेत फ्रांसीसी भी इस वजह से इनके साथ सामाजिक दूरी बनाए रखते हैं। जिसका नतीजा आज हम फ्रांस में व्यापक दंगों की शक्ल में देख रहे हैं।

           रंजीत कुमार 

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