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जो बोएं सो काटें

जो बोएं सो काटें

by हिंदी विवेक
in कहानी, विशेष, सामाजिक, साहित्य, सितम्बर २०२३
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हजारों व्यक्तियों की आशाएं, उम्मीदें पूरी करने हेतु, उन्हें उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए ट्रेन अपनी तीव्र गति से चल रही थी। हर यात्री को अपने गंतव्य पर पहुंचने का इंतजार था। कोई अपने माता-पिता से मिलने जा रहा था तो कोई किसी विशेष काम से, कोई भ्रमण के लिए, जितने व्यक्ति उतने लक्ष्य।

उन्हीं में से मनीषा तो दुल्हन बनी हजारों कामनाओं को मन में संजोए अपनी शादी के ख्यालों में खोई हुई थी। तभी उसकी एक सहेली ने छेड़ते हुए कहा, अरे कहां हो मेरी सखी? बस तन से यहां बैठी हो, पर मन तो अपने साजन के ख्यालों में ही खोया हुआ है। अरे भई हमसे भी तो बातें कर लो। एक घंटे बाद ट्रेन तुम्हें तुम्हारे साजन से मिलवा देगी। मनीषा के गाल गुलमोहर से लाल हो गए थे। उसका अपने पर कोई बस नहीं था। सभी सखियां और रिश्तेदार खिलखिलाकर हंसने लगे थे। मनीषा की बुआ तो गाने लगीं- ‘बन्नो मेरी चांद का टुकड़ा री।’

शादी के लिए जाते समय सबका मन आनंद और उल्लास से भरा हुआ था। ट्रेन की बोगी में थोड़ी ही देर में मनीषा के भाई सभी  मेहमानों को आलू की सब्जी, कचौड़ी और जलेबी प्लेट में रखकर परोसने लगे। सब मजे में खा रहे थे। हंसी मजाक चल रहा था।

अचानक बहुत तेज आवाज हुई जैसे कोई बम फटा हो। क्षण भर में सब कुछ तहस-नहस हो गया था। अगले ही पल में रेलगाड़ी के डिब्बे खिलौनों की तरह टूटकर बिखर गए थे। हंसी ठहाकों की आवाज चीत्कार में बदल गयी थीं। भयानक हादसा था वह। पल भर में जीते-जागते लोग कालकवलित हो गए थे। कुछ टूटे-फूटे डिब्बों में फंसकर तड़प रहे थे। कुछ के हाथ पैर कट गए थे। कुछ घायल थे। कुछ अंतिम सांसे गिन रहे थे, तो कुछ जिंदा व्यक्ति चिल्ला-चिल्लाकर अपनों को ढूंढ रहे थे। ऐसा भयानक दृश्य जिसकी कल्पना मात्र से दिल दहल जाए। जिन पर गुज़री होगी, उनकी व्यथा को कहने के लिए शब्द स्वयं रो उठे थे। कर्णभेदी हृदय को द्रवित करती चीखों के बीच अपनों को खोने का अपार दुःख व्याप्त था।

दुर्घटना के तुरंत बाद रेल विभाग, पुलिस, सरकार सभी अपने काम में जुट गए थे। बचाव दल जिन्दा, घायल और मुर्दा लोगों को निकाल रहे थे। सायरन बजाती एम्बुलेंस घायलों को अस्पताल पहुंचा रही थीं। लाशों को रखने के लिए जगह कम पड़ गयी थी। लहूलुहान घायलों की स्थिति हृदय विदारक थी। कोई-कोई व्यक्ति तो रेल के डिब्बों में फंस कर रह गया था। उसे निकालने के लिए बचाव दल को विशेष प्रयास करने पड़ रहे थे।

मनुष्य एक सामजिक प्राणी है। आस-पास के गांव वाले भी वहां पहुंचकर लोगों की सहायता करने लगे थे। वे भी चिल्ला रहे थे, जल्दी चलो जिंदा लोगों की जान बचाओ। घायल व्यक्तियों की कराहट उनकी चीख सुनकर लोग उनकी तरफ जा रहे थे  और दो-तीन लोग मिलकर उन्हें बाहर निकाल रहे थे। जहां अधिकतर लोग सहायता के लक्ष्य से दुर्घटना स्थल पर पहुंचे थे, वहीं मदन चोरी के उद्देश्य से वहां गया था। उसने बोगी में मनीषा के मेंहदी लगे हाथ देखे। उसने कई घायल लोगों एवं लाशों के गहने निर्ममता से खींचे, टॉप्स, झुमके आदि खींचने के कारण कई लोगों के तो कान भी कट गए। उसने उन लाशों की जेब से पर्स निकाले, एक बैग को खालीकर सब गहने आदि उसमें डाल लिये।

लहूलुहान मनीषा की सांसे चल रही थी। मदन ने उसके गोरे बदन पर अपनी कुदृष्टि डाली उसके अंगों को छुआ तो मरणासन्न मनीषा तड़प उठी थी। वह असहाय चीख भी न सकी थी। घायल लोग मदन की करतूत को देख रहे थे, वे चिल्लाने का प्रयास भी कर रहे थे, पर उस समय तक बोगी में बचाव दल नहीं पहुंचा पाया था। अचानक दूर से बचाव दल को उधर आते देख मदन ने अपना बैग उठाया और शांत भाव से घर की ओर ऐसे चल दिया जैसे उसने कुछ किया ही न हो।

उसने मोबाइल में म्यूजिक लगाया और शराब पीने लगा। थोड़ी सी ही शराब गले में उतरी थी कि अचानक विनीता की ससुराल से दामाद का फोन आया, नमस्ते पिता जी, विनीता को मैं उत्कल एक्सप्रेस में बिठाकर आया था। पर अभी समाचार सुना कि वह ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गयी है। यह सुनते ही मदन का सारा नशा उतर गया। विनीता उसकी लाड़ली, उसकी इकलौती बच्ची। उसका क्या हुआ होगा। वह अपना सब सामान छोड़ बदहवास सा भागा। वह चिल्ला रहा था, विनीता, विनीता तुम कहां हो? रात में कुछ नज़र नहीं आ रहा था। वह बचाव दल के सामने गिड़गिड़ा रहा था, मेरी बच्ची को कोई बचालो। ढूंढो मेरी लाडो कहां है। विनीता! विनीता बेटी। तुम कहां हो?

वह ढूंढते-ढूंढते उसी डिब्बे के पास पहुंचा जिसमें मनीषा थी। विनीता बेटी! बोलो तुम कहां हो। वह रोते-रोते चिल्ला रहा था। वह सीट के नीचे झांक-झांक कर देखने लगा। तभी अचानक सुबक-सुबक कर रोने की आवाज सुनाई दी। मदन ने देखा ऊपर की सीट पर अध टंगी बहुत ही डरी सहमी घायल विनीता रो रही थी। उसका हाथ सीट में फंसा हुआ था।

मदन ने उसे निकालने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, तभी  बुरी तरह घायल विनीता चिल्लाई, मुझे मत छूना। मुझे बेटी मत कहना। घायल व्यक्तियों और लाशों के गहने उतारने वाला, घायल असहाय लड़की को छेड़ने वाला व्यक्ति मेरा पिता नहीं हो सकता। चले जाओ यहां से। मदन लाख गिड़गिड़ाता रहा, किंतु विनीता ने एक न सुनी। अपने पिता के ऐसे कृत्य को देखकर विनीता का दिल टूट गया था। वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से घायल होकर तड़प रही थी। उसे अपने पिता से घृणा हो रही थी। एक बचाव दल ने विनीता को निकाला। बचाव दल के व्यक्ति ने पूछा, आपकी सूचना किसे दें? विनीता ने अपने पति का नाम लिया। पिता की ओर देखा तक नहीं। विनीता को पास वाले अस्पताल में भेजा गया। मदन भी वहां गया किन्तु विनीता ने डॉक्टर से कहा कि इस व्यक्ति को मेरे पास न आने दें। अगर मैं मर जाऊं तो भी मेरी लाश इन्हें न दी जाय। मेरा इनसे कोई संबंध नहीं है।

मदन अपनी ही बेटी के सम्मुख अपराधी बना गुमसुम खड़ा था। बेटी की भर्त्सना से वह टूट गया था। उसे अपने कुकृत्य पर आत्मग्लानि हो रही थी। आत्मग्लानि की अग्नि में उसका जीवन जलकर राख हुआ जा रहा था। कुछ घंटे बाद विनीता का पति रमेश घायल पत्नी के पास पहुंच गया था। विनीता की सांसे टूट रही थीं। उसने सुबकते हुए रुक-रुक कर कहा, अब बाऊजी से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मेरे मरने पर उन्हें मत बुलाना न तुम उनसे कोई संबंध रखना, तुम्हें मेरी कसम।

रमेश ने आश्चर्य चकित होते हुए पूछा, ऐसा क्या हो गया? तुम ऐसा क्यों कह रही हो। तुम तो अपने बाबूजी को सबसे अधिक प्यार करती हो। विनीता की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई थी, पर वह कुछ न बोली। कुछ समय में ही उसे लंबी-लंबी दो हिचकी आईं। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। रमेश विनीता की लाश को अपने गांव ले गया।

मदन सब कुछ छुपकर देख रहा था। उसके तन-मन की शक्ति क्षीण हो गई थी। वह व्यथित मन से घर पहुंचकर जमीन पर गिर पड़ा और जोर-जोर से रोने लगा। कहने को तो उस दिन उसने बहुत धन, गहने आदि चुराए थे, पर वह अपनी और अपनी बेटी की दृष्टि में गिरकर कंगाल हो गया था। उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो गया था।

उसकी आंखों के सामने जीवन के वे सभी पल तांडव कर रहे थे, जब शराब और लोभ-लालच में फंस कर उसने बहुत से नीच कामों को अंजाम दिया था। तब हर बार उसकी अंतरात्मा ने उसे रोका था, समझाया था, पर वह तो धन के लोभ में ऐसा फंसा कि उसे सही गलत का भान होना ही धीरे-धीरे बंद हो गया।

उस दिन जब मदन की बेटी ने उसकी आंखों से पट्टी हटाकर उसके पापों को दिखाया, तब उसके पापों के बही-खाते खुलकर उसे चिढ़ाने लगे थे। लेकिन तब तक सब कुछ नष्ट हो गया था, उसने अपनी पत्नी की बात अनसुनी कर उसे तो बहुत पहले ही खो दिया था। उसके अशांत मन ने उसे बेचैन कर दिया था। अपने ही कुकृत्यों के माया जाल में फंसा वह पागल-सा बदहवास हुआ सोच रहा था कि अपने पापों का प्रायश्चित कैसे करे। उसे भौतिक सुख साधनों से, शराब आदि नशे से वितृष्णा हो रही थी। उसने निर्णय कर लिया था कि वह समाज में दीन-दुखियों की सहायता करके ही अपना जीवन व्यतीत करेगा। उसकी राह तो बदल गई थी पर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को नकारते-नकारते बहुत देर हो गई थी। उसने अपने पापों के भोग यहीं भोग लिए थे।

                                                                                                                                                                                    सुनिता माहेश्वरी 

 

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