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जी 20 : सनातन का प्रतिपादन

जी 20 : सनातन का प्रतिपादन

by pallavi anwekar
in देश-विदेश, पनवेल विकास विशेष अक्टूबर-२०२३, विशेष, संपादकीय
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भौतिक शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार जब प्रिज्म पर सूर्य की किरण पड़ती है तो वह सात रंगों में विभाजित हो जाती है, अर्थात उससे इंद्रधनुष तैयार होता है। भौतिक शास्त्र का यह नियम अगर समाज शास्त्र या यूं कहें आज के समाज पर लगाया जाए तो सूर्य से निकलने वाली उस किरण की जगह होगी भारत की वर्तमान वैश्विक आभा से निकलने वाली किरण। परंतु इसके बीच जब प्रिज्म रखा गया तो उससे तैयार होने वाले इंद्रधनुष से जो रंग निकले वे थे सनातन पर बवाल, भारत बनाम इंडिया बहस और जी-20 का सफल आयोजन।

पिछले दिनों जब जी-20 के समापन समारोह में भाग लेने के लिए विभिन्न देशों के राष्ट्र प्रमुख भारत आए थे तो उन्होंने भारतीय संस्कृति से सराबोर आदरातिथ्य का न सिर्फ आनंद उठाया अपितु उसमें सहभागी भी हुए थे। भारत की राष्ट्रपति द्वारा दिए गए भोज में कई विदेशी महिलाएं साड़ी या अन्य भारतीय परिधानों में दिखाई दीं।

समापन कार्यक्रम के दौरान एक ओर जहां विदेशी लोग भारतीय संस्कृति, सभ्यता और उसकी प्रस्तुति पर मोहित हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर कुछ भारतीय इस बात पर बहस कर रहे थे कि निमंत्रण पत्र पर देश का नाम इंडिया की जगह भारत क्यों लिखा गया? भारत शब्द पर आपत्ति जताने वाले लोग तरह-तरह के तर्क दे रहे थे। विरोधी पक्ष के नेताओं का कहना था कि इंडिया नाम से जो नया गठबंधन बना है उससे डरकर मोदी सरकार ने यह कदम उठाया है। कोई कयास लगा रहा था कि अब सरकार आधिकारिक रूप से इंडिया नाम हटाकर केवल भारत रखना चाहती है। कुछ लोग तो मन ही मन इस बात से भी कुढ़ रहे थे कि अब भारत फिर से हिंदू राष्ट्र की अवधारणाओं से सम्बद्ध हो जाएगा और उसे तोड़ने के उनके इरादों पर पानी फिर जाएगा। भारत नाम से जल-भुन जाने वाले इन लोगों को संविधान का पन्ना भी दिखाया गया जिसमें साफ लिखा है कि इंडिया और भारत एक ही हैं, परंतु उनकी जलन कम नहीं हुई क्योंकि वे जानते हैं कि देश का नाम जब भारत पुकारा जाता है तो वह तुरंत देश की अस्मिता, संस्कृति और इतिहास से जुड़ जाता है, जबकि इंडिया शब्द विदेशियों द्वारा दिए जाने का अहसास  कराता है, जिसका भारतीयता की मूल संकल्पना से कोई मेल नहीं है। अगर भारत नाम प्रचलित हो गया तो भारतवासियों की राष्ट्र प्रेम की भावना अधिक प्रबल हो जाएगी। अत: भले ही सरकार ने आधिकारिक रूप से कोई कार्रवाही न की हो परंतु कुढ़ने वाले लोग यह सोचने को विवश हैं कि किस तरह से इस नाम को आधिकारिक होने से बचाया जा सके।

जब इन लोगों से कहा जाता है कि भारत का नाम ‘भारत’ तो सनातन पहचान का द्योतक है तब तो इनकी खीज देखते ही बनती है। उदयनिधि स्टालिन जैसे कुछ लोग भारत में रहने वाले ऐसे ही लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये लोग ‘सनातन उन्मूलन कार्यक्रम’ जैसे कार्यक्रमों में जाकर सनातन की तुलना बीमारियों से करते हैं परंतु उनके बोल और विचार स्वयं उनकी ही मानसिक बीमारी का परिचय देते हैं। स्टालिन जिस विचारधारा से सरोकार रखते हैं वह तो हमेशा से ही सनातन विरोधी रही है परंतु स्टालिन की बातों का समर्थन करने वाले कांग्रेसी नेता किस विचारधारा से आते हैं? क्या उनको स्टालिन की बातों का विरोध नहीं करना चाहिए था? उनकी यह विवशता दुर्भाग्यपूर्ण है।

वस्तुत: स्टालिन तथा उनका समर्थन करने वालों को सनातन का अर्थ ज्ञात ही नहीं है। सनातन का अर्थ जड़ता नहीं है वरन जो नित्य नूतन है वह सनातन है। सनातन केवल संकल्पना नहीं है, यह आचार, विचार और व्यवहार है। इसका आचरण हमें अंतर्मुख होकर स्वयं को ढूंढ़ने की प्रेरणा देता है। सनातन भारत की आत्मा है। सनातन वह संस्कार है जो वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा को प्रतिपादित करता है। सनातन व्यक्तिगतजीवन की संकुचितता से ऊपर उठकर समष्टि के साथ व्यक्ति के तादात्म्य का बोध कराता है। सनातन उस शांति के मार्ग पर अग्रसर करता है, जिसे आज हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है।

ये सारी बातें स्टालिन और उनके समर्थकों को रास नहीं आती। उन्होंने अपनी आंखों पर द्वेष की पट्टी बांध रखी है। वे या उनके जैसे कई लोग आए और चले गए परंतु किसी की इतनी हैसियत नहीं थी कि सनातन का उन्मूलन कर सके। हां, इस बात को अनदेखा इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि इनकी बातें भारत की एकता और अखंडता पर वैचारिक आघात करती रहती हैं। ऐसी बातों से अंतर्क्लेश निर्माण होगा जो कि भारत को अंदर से खोखला कर देगा।

भारत आज जिस गति से विश्व में आगे बढ़ रहा है उसकी झलक सभी ने जी-20 में देखी। जी-20 में जिस प्रकार विचारों का मंथन हुआ उससे ये सिद्ध हो गया कि नया भारत किसी बाहरी एजेंडे पर काम न करके विशुद्ध राष्ट्रहित की भावना के साथ काम करेगा। चूंकि भारत सनातन विचारों का संवाहक है, अत: वही वसुधैव कुटुम्बकम् को धरातल पर प्रत्यक्ष रूप से उतार सकता है, उतार रहा है और इसीलिए यह विश्व उसकी ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। अब भारत का यह कर्तव्य है कि वह विश्व की अपेक्षाओं पर खरा उतरे।

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