आखिर कहां जाता है परमाणु बिजली घरों का कचरा?

सालोंसाल बिजली की मांग बढ़ रही है, हालांकि अभी हम कुल ४७८० मेगावाट बिजली ही परमाणु से उपजा रहे हैं जो कि हमारे कुल बिजली उत्पादन का महज तीन फीसदी ही है। लेकिन अनुमान है कि हमारे परमाणु ऊर्जा घर सन २०२० तक १४६०० मेगावाट बिजली बनाने लगेंगे और सन २०५० तक हमारे कुल उत्पादन का एक-चौथाई परमाणु-शक्ति से आएगा। भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती है, सुरक्षित है और स्वच्छ यानि पर्यावरण हितैषी है। जबकि सच्चाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है बल्कि तीनों झूठ हैं। यह भी बात सही नहीं है कि देश में बिजली की बेहद कमी है और उसे पूरा करने के लिए कार्बन पदार्थ जल्दी ही खतम हो जाएंगे। यह किसी से छुपा नहीं है कि महज कुछ हजार लोगों के मनोरंजन के लिए स्टेडियम में इतनी बिजली फूंक दी जाती है जिससे एक साल तक कई गांव रोशन हो सकते हैं। मुंबई में एक २८ मंजिला इमारत में रहने वालों की संख्या पांच भी नहीं है, लेकिन उसकी महीने की बिजली खपत एक गांव की चार साल की खपत से ज्यादा है।

विकास के लिए एक महत्वपूर्ण घटक है बिजली और उसकी मांग व उत्पादन बढ़ना स्वाभाविक ही है। लेकिन जो सवाल सारी दुनिया के विकसित देशों के सामने है, उस पर भारत को भी सोचना होगा- परमाणु घरों से निकले कचरे का निबटान कहां व कैसे हो? सनद रहे परमाणु विकिरण सालों-दशकांें तक सतत चलता है और एक सीमा से अधिक विकिरण मानव शरीर व पर्यावरण को कैसे नुकसान पहुंचाता है उसकी नजीर जापान का हिरोशिम व नागासाकी है। वैसे तो इस संवेदनशील मसले पर १४ मार्च २०१२ को एक गैरतारांकित प्रश्न के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने लोकसभा में जवाब देकर बताया था कि परमाणु कचरे का निबटान कैसे होता है। लेकिन कहां होता है व कब होता है, जैसे सवाल बेहद संवेदनशील बता कर अनुत्तरित ही रहते हैं। यह बात कई सालेंा पहले भी सुगबुगाई थी कि ऐसे कचरे को जमीन के भीतर गाड़ने के लिए उपेक्षित, वीरान और पथरीले इलाकों को चुना गया है और उसमें बुंदेलखंड का भी नाम था।

सरकार का लोकसभा में दिया गया जवाब बताता है कि परमाणु बिजली घर से निकले कचरे को पहले अतिसंवेदनशील, कम संवेदनशील तथा निष्क्रिय में छांटा जाता है फिर खतरनाक कचरे को सीमेंट, पॉलीमर, कॉंच जैसे पदार्थों में मिला कर ठोस में बदलने को रखा जाता है। इनके ठोस में बदलने तक कचरा बिजली घरों में ही सुरक्षित रखा जाता है। इसे दोहरी परत वाले सुरक्षित स्टेनलेस स्टील के पात्रों में रखा जाता है। जब यह कचरा पूरी तरह ठोस में बदल जाता है और उसके रेडियो एक्टिव गुण क्षीण हो जाते हैं तो उसे जमीन की गहराई में दफनाने की तैयारी की जाती है। सनद रहे, पश्चिमी देश ऐसे कचरे को अभी तक समुद्र में बहुत गहरे में दबाते रहे है। उधर जर्मनी के हादसे पर कम ही चर्चा होती है, जहां परमाणु कचरे को जमीन के भीतर गाड़ा गया, लेकिन वहां पानी रिसने के कारण हालात गंभीर हो गए व कचरे को खोद कर निकालने का काम करना पड़ा। इस पर पौने चार अरब यूरो का व्यय आया। अमेरिका में छह स्थानों पर भूमिगत कचरा घर हैं जिन्हें दुनिया की सबसे दूषित जगह माना जाता है। इनमें से हैनफोर्ड स्थित कचरे में रिसाव भी हो चुका है, जिसे संभालने में अमेरिका को पसीने आ गए थे।
परमाणु ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलने के लिए यूरेनियम नामक रेडियो एक्टिव को बतौर ईंधन प्रयोग में लाया जाता है। न्यूट्रान की बम वर्षा पर रेडियो एक्टिव तत्व में भयंकर विखंडन होता है। इस धमाके से भयंकर गर्मी और वायुमंडलीय दवाब उत्पन्न होता है। सो मंदक के रूप में साधारण जल, भारी जल, ग्रेफाइट और बैरेलियम आक्साइड का प्रयोग होता है। शीतलक के रूप में हीलियम गैस संयत्र में प्रवाहित की जाती है। विखंडन प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए केडमियम या बोरोन स्टील की छड़ें उसमें लगाई जाती हैं। बिजली पैदा करने लायक ऊर्जा मिलने के बाद यूरेनियम, प्यूटोनियम में बदल जाता है। जिसका उपयोग परमाणु बम बनाने में होता है। इसके नाभीकिय विखंडन पर ऊर्जा के साथ-साथ क्रिप्टान, जिनान, सीजियम, स्ट्रांशियम आदि तत्व बनते जाते हैं। एक बार विखंडन श्ाुरू होने पर यह प्रक्रिया लगभग अनंत काल तक चलती रहती हैं। इस तरह यहां से निकला कचरा बहेद विध्वंसकारी होता है। इसका निबटान सारी दुनिया के लिए समस्या है।

भारत मे हर साल भारी मात्रा में निकलने वाले ऐसे कचरे को हिमालय पर्वत, गंगा-सिंधु के कछार या रेगिस्तान में तो डाला नहीं जा सकता, क्योंकि कहीं भूकंप की आशंका है तो कहीं बाढ़ का खतरा। कहीं भूजल स्तर काफी ऊंचा है तो कहीं घनी आबादी। यह पुख्ता खबर है कि परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिकों को बुंदेलखंड, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश का कुछ पथरीला इलाका इस कचरे को दफनाने के लिए सर्वाधिक मुफीद लगा और अभी तक कई बार यहां गहराई में स्टील के ड्रम दबाए जा चुके हैं।

परमाणु कचरे को बुंदेलखंड में दबाने का सबसे बड़ा कारण यहां की विशिष्ठ ग्रेनाइट संरचना है। यहां ५० फीट गहराई तक ही मिट्टी है और उसके बाद २५० फीट गहराई तक अभेदतेलीया(ग्रेनाइट) पत्थर है। भूगर्भ वैज्ञानिक अविनाश खरे बताते हैं कि बुंदेलखंड ग्रेनाइट का निर्माण कोई २५० करोड़ साल पहले तरल मेग्मा से हुआ था। तबसे विभिन्न मौसमों के प्रभाव ने इस पत्थर को अन्य किसी प्रभाव का रोधी बना दिया है। यहां गहराई में बगैर किसी टूट या दरार के चट्टाने हैं और इसी लिए इसे कचरा दबाने का सुरक्षित स्थान माना गया है।

परमाणु कचरे से निकलने वाली किरणें ना तो दिखती हैं और ना ही इसका कोई स्वाद या गंध होता है। लेकिन ये किरणें मनुष्य के शरीर के प्रोटिन, इंजाइम, आनुवांशिक अवयवों में बदलाव ला देती हैं। यदि एक बार रेडियो एक्टिव तत्व मात्रा से अधिक शरीर में प्रवेश कर जाए तो उसके दुष्प्रभाव से बचना संभव नहीं है। विभिन्न परमाणु बिजली घरों के करीबी गांव-बस्तियों के बाशिंदों में शरीर में गांठ बनना, गर्भपात, कैंसर, अविकसित बच्चे पैदा होना जैसे हादसे आम हैं क्योंकि जैव कोशिकाओं पर रेडियो एक्टिव असर पड़ते ही उनका विकृत होना श्ाुरू हो जाता है। खून के प्रतिरोधी तत्व भी विकिरण के चलते कमजोर हो जाते हैं। इससे एलर्जी, दिल की बीमारी, डायबीटिज जैसे रोग होते हैं। पानी में विकिरण रिसाव होने की दशा में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। यह जानलेवा होता है।

ऐसे कचरे को बुंदेलखंड में दफनाने से पहले वैज्ञानिकों ने यहां बाढ़, भूचाल, युद्ध और जनता की भूजल पर निर्भरता जैसे मसलों पर शायद गंभीरता से विचार ही नहीं किया। इस इलाके में पांच साल में दो बार कम वर्षा व एक बार अति वर्षा के कारण बाढ़ आना मौसम चक्र बन चुका है। श्री अविनाश खरे बताते हैं कि बुंदेलखंड का जल-स्तर श्ाून्य से सौ फीट तक हैं। बुंदेलखंड ग्रेनाइट में बेसीन, सब बेसीन और माइक्रो बेसीन, यहां के नदियों, नालो के बहाव के आधार पर बंटे हुए हैं। लेकिन ये किसी ना किसी तरीके से आपस में जुड़े हुए हैं। यानि पानी के माध्यम से यदि रेडियो एक्टिव रिसाव हो गया तो उसे रोक पाना संभव नहीं होगा। नदियों के प्रभाव से पैदा टैटोनिक फोर्स के कारण चट्टानों में ज्वाईंट प्लेन, लीनियामेंट टूटफूट होती रहती है, जिससे विकिरण फैलने की संभावना बनी रहती है।

बुंदेलखंड के ललितपुर व छतरपुर जिले में यूरेनियम अयस्क भारी मात्रा में पाया गया है। वहीं छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना के भूगर्भ में आयोडीन का आधिक्य है। दोनों तत्व परमाणु विकिरण के अच्छे वाहक हैं। गौरतलब है कि यह इलाका भयंकर गर्मी वाला है जहां ४७ डिग्री तापमान कई-कई दिनों तक होता है। ऐसे में रेडियो एक्टिव विकिरण यदि फूटा तो बहुत तेजी से फैलेगा। अब तो यहां केन-बेतवा नदी जोड़ने की योजना भी श्ाुरू हुई है, जो यहां के भू संरचना को प्रभावित करेगी।

हालांकि परमाणु ऊर्जा विभाग विकिरण को खतरनाक नहीं मानता है। विभाग के एक परिपत्र के मुताबिक विकिरण सदैव पर्यावरण का हिस्सा रहा है। अंतरिक्ष किरणें, मिट्टी, ईंट, कंक्रीट के घरों आदि में १५ से १०० मिलीरिम सालाना का विकिरण उत्सर्जित होता है। पर परमाणु भट्टी से निकलने वाले कचरे का विकिरण इससे कई-कई हजार गुणा होता है।

यह भी अब खुल कर सामने आ गया है कि परमाणु बिजली ना तो सस्ती है और ना ही सुरक्षित और ना ही स्वच्छ। हम परमाणु रियेक्टर व कच्च्ेा माल के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं, वहां से निकलने वाले कचरे के निबटारे में जब जर्मनी व अमेरिका को कोई विकल्प नहीं दिख रहा है तो हमारे यहां यह कचरा निरंकुश संकट बनेगा ही। फिर जादुगोड़ा, रावतभाटा, और पोकरण गवाह हैं कि परमाणु बिजली के लिए किए जा रहे प्रयास किस तरह आम लोगो व प्रकृति के लिए नुकसान पहुंचा रहे हैं।
भले ही वैज्ञानिक खतरनाक कचरे के निबटान के लिए बुंदेलखंड के भूविज्ञान को माकूल मानते हों, लेकिन असलियत यह है कि यहां की जनता की अल्प जागरूकता और उनके जन प्रतिनिधयों का जन सरोकार से विमुख होना ही मूल कारण है कि सरकार इस तरह के खतरनाक प्रयोगों को सबसे कम प्रतिरोध वाला इलाका मानती रही है।

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