तेईसवीं शताब्दी में एक दिन

उठो आज ऑफिस नहीं जाना है क्या? माधुरी रमन को झिंझोड़ कर उठा रही थी। अब तक वह उसे तीन बार उठा चुकी थी पर हर बार रमन चादर में मुंह घुसा कर सो जाता था।

मालूम है तुम्हें! आज टैक्सीकॉप्टर की हड़ताल है। अपनी गाड़ी से जाना पड़ेगा। ज्यादा टाइम लगेगा। उठ जाओ, नहीं फिर बाद में हड़बड़ी करोगे। कमीज पहन लोगे तो पेंट के बटन नहीं लगाओगे। उठ जाओ। माधुरी ने फिर रमन को झिंझोड़ा।

बदन को तोड़ता हुआ रमन उठ कर बैठा। घड़ी की ओर देखा, बाप रे! नौ बज गए। अभी तो मुझे नहाना-धोना और तैयार भी होना है।

टैक्सीकॉप्टर के चालक आज हड़ताल पर रहेंगे यह मैसेज रमन को एक दिन पहले ही मिल चुका था। इस पूर्व प्राप्त सूचना के आधार पर तो रमन को रोज से 2 घंटे पहले ही बिस्तर छोड़ देना चाहिए था क्योंकि अब उसे अपनी चालक रहित इलेक्ट्रिक कार से जाना होगा। ट्रैफिक जाम में दो घंटे से अधिक तो लगने ही वाले थे। बार-बार ‘उठता हूं, उठता हूं’ करते-करते एक घंटा बीत गया था। वैसे तो इस सब से बचने के लिए अधिकतर लोग घर से ही काम करते हैं पर सारे काम तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ नहीं हो सकते हैं। इस वर्क फ्रॉम होम कल्चर के बावजूद भी बहुत सारे काम ऐसे बच जाते हैं जिनके लिए बाहर निकलना अनिवार्य हो जाता है।

अब निरंतर दोहन और पानी की बर्बादी से पृथ्वी पर जल स्तर इतना गिर गया है की पानी की किल्लत होने लगी है। इससे लोग रोज-रोज नहाने की ‘विलासिता’ बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। और नहाना भी कैसा? वह इक्कीसवीं शताब्दी वाले नल और बाल्टी तो कब के गायब हो चुके हैं। अब तो नल में टोंटी की जगह ‘एटोमाइजर’ लगाए जा रहे हैं। जिन्हें खोलते ही पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदों का एक फुहारा निकलता है। इससे एक गिलास पानी में ही पूरा शरीर भीग जाता है। इसके बाद दूसरे एटमाइजर से ‘लिक्विड सोप’ शरीर पर लग जाता है। अब साबुन भी ऐसे बनाए जाने लगे हैं कि जिन को शरीर से छुड़ाने में बहुत कम पानी लगता है। ज्यादातर लोग तो अब घर में बाथरूम बनवाते ही नहीं है। बाहर हर स्तर के व्यक्ति के लिए बहुत सारे ‘बाथ-क्लब’ उपलब्ध हैं। जितने पैसे दो, उस स्तर का बाथरूम प्रयोग करो। ज्यादातर लोग साप्ताहिक छुट्टी के दिन ही नहाना पसंद करते हैं। इसलिए इन स्नान-क्लबों में साप्ताहिक छुट्टी के दिन काफी भीड़ हो जाती है। कुछ संपन्न लोग ही अपने घरों में बाथरूम बनवाते हैं। क्योंकि इसके लिए पानी का अलग से कनेक्शन लेना होता है। चूंकि नहाने को एक विलासिता (लग्जरी) माना जाता है इसलिए नहाने वाले पानी का प्रति यूनिट बिल पीने के पानी से कई गुना होता है। इसलिए इसमें कुछ लोग बेईमानी भी कर लेते हैं। इसमें वे पीने के पानी को स्नान के लिए प्रयोग कर लेते हैं। हालांकि पकड़े जाने पर उनसे प्रयुक्त पानी के मूल्य का दस गुना दंड के रूप में वसूला जाता है। कपड़े धोने के लिए पानी का प्रयोग करना अब करीब-करीब पूरी तरह बंद हो गया है। अब तो विशेष प्रकार के ‘नैनोटेक्नोलॉजी युक्त स्मार्ट कपड़े’ बनने लगे हैं जो अपने ऊपर पड़ी धूल और गंदगी को स्वयं साफ कर लेते हैं। ज्यादा गंदे होने पर उन्हें विशेष प्रकार की मशीनों में डालकर हवा के तीव्र प्रवाह और कुछ रसायनों से साफ कर लिया जाता है। यहां स्नान क्लबों में ‘टोकन-सिस्टम’ चलता है कुछ धनराशि देकर एक टोकन मिलता है। टोकन बाहर की मशीन में डालते ही उस व्यक्ति को आवंटित बाथरूम की टंकी में पानी की एक निश्चित मात्रा आ जाती है। नहाने के लिए यहां भी ऑटोमाइजर लगे हैं। यदि किसी व्यक्ति का एक बार दिए गए पानी में काम नहीं हो पाता है तो वह एक टोकन और खरीद कर अतिरिक्त पानी ले सकता है। पर सामान्यतः किसी व्यक्ति को भी एक स्नान में दो टोकन से अधिक नहीं दिए जाते हैं।

देर हो गई थी इसलिए आराम से बैठ कर नाश्ता करना अब संभव नहीं था। एक सैंडविच मुंह में दबाए अपने शरीर पर डाली कमीज के बटन लगाते हुए रमन दरवाजे की ओर भागा, जहां उसकी ‘चालक रहित इलेक्ट्रिक कार’ आकर खड़ी हो गई थी। दरवाजे के पास पहुंचते ही सेंसर चलित दरवाजा ‘वेलकम’ कहकर अपने आप खुल गया। अपने मुंह में सैंडविच दवाए-दबाए रमन हड़बड़ी में कार में बैठ गया। जल्दी इतनी थी कि न तो उसने अपनी बिल्डिंग के दरवाजे का विदाई संदेश ‘सी यू अगेन’ सुना और न ही उसे याद रहा कि बालकनी पर खड़ी उसकी पत्नी माधुरी हाथ हिला कर उसे विदा कर रही है।

‘वेलकम मिस्टर रमन’ के साथ कार का दरवाजा अपने आप बंद हो गया। अब कार के शीशे पर एक पारदर्शी एल.ई.डी. स्क्रीन चमक रही थी। रमन ने इस स्क्रीन पर कुछ निर्देश बोलकर फीड किए, यथा गंतव्य स्थान, अधिकतम गति, पहुंचने का संभावित समय आदि।

कृपया अपनी सीट बेल्ट बांधें। कार के कंप्यूटर में निर्देश दिया। रमन के सीट बेल्ट बांधते ही कार रवाना हो गई। मुख्य सड़क पर आते ही रमन को परिस्थिति का अनुमान हो गया। टैक्सीकॉप्टर की हड़ताल के कारण आज सड़क पर कारों की भरमार थी। ट्रैफिक चल नहीं, रेंग रहा था।

इसका मतलब आज कम से कम दो घंटे तो लेट होना ही है। उसने सोचा। दो घंटे लेट होने का मतलब अब कुछ और होता है। रमन जैसे लोगों के लिए उनके पूरे दिन के काम के घंटे तय होते हैं। उनके काम का दैनिक कोटा भी तय होता है। काम पर लेट होने पर न तो बॉस की डांट खानी होती है न कोई और शिकायत ही करता है। हर व्यक्ति को अपने लिए निर्धारित कार्य पूरे करना होता है। अगर कोई दो घंटे लेट है तो वह ऑफिस से दो घंटे लेट छूटेगा। आगे के लिए (पेंडिंग) कार्य छोड़ने का कोई प्रावधान नहीं होता है। यदि कोई कार्य उस दिन पूरा नहीं हो सकता है तो उसका कारण लिखकर उसे अगले दिन के लिए छोड़ा जा सकता है पर यह अतिरिक्त कार्य अगले दिन के निर्धारित कार्य में जुड़ जाएगा। इससे कार्यालय में आने वाले या ‘वर्क फ्रॉम होम’ करने वाले दोनों प्रकार के कर्मचारी अपना ध्यान इधर-उधर न भटका कर काम में लगे रहते हैं। काम का समय इधर-उधर की बातें करने या नाश चाय-नाश्ता करने में व्यर्थ नहीं गंवाते। कुछ लोग तो ‘लंच ऑर’ में भी कार्य करते रहते हैं ताकि शाम को ऑफिस से समय पर या कुछ पहले छूट सकें। अगर किसी ने उस दिन का निर्धारित कार्य निपटा लिया है तो वह आफिस से दिन में कभी भी जा सकता है। हर हाल में एक निश्चित समय तक आफिस में उपस्थित रहने की बाध्यता नहीं है। हर रोज उस रोज का निर्धारित कार्य पूरा करके ही कार्य दिवस की एंट्री होती है जिसके आधार पर उनका वेतन बनता है। इसलिए ऑफिस में किसी के आने-जाने पर समय की पाबंदी नहीं है। हर कर्मचारी जानता है कि उसको महीने के अंत में मिलने वाली धनराशि उसके द्वारा किए गए कार्य के आधार पर निर्धारित होगी न कि उसकी उपस्थिति के घंटों से। तकनीकी भाषा में इसे ‘वर्क इकोनॉमिक्स’ और काम करने के तरीके को ‘वर्क-आउटपुट कल्चर’ कहते हैं। इसमें उन लोगों को परेशानी होती है जो चापलूसी करके समय बिताना चाहते हैं या कार्य किए बिना समय काटना चाहते हैं। कोई भी किसी की चापलूसी करने में समय बिता सकता है पर उसे उस दिन का निर्धारित कार्य पूरा करके ही जाना होगा। अन्यथा कंप्यूटर अपने आप उस व्यक्ति की उस दिन की प्रतिकूल प्रविष्टि दर्ज कर देगा, इससे उन्हें माह के अंत में मिलने वाली धनराशि, जिसे अब सैलरी या तनख्वाह नहीं ‘रिन्यूमरेशन’ या ‘पारिश्रमिक’ कहा जाता है, भी प्रभावित होगी। हर कर्मचारी का ऑफिस में एक अकाउंट होता है। इस अकाउंट का पासवर्ड उस कर्मचारी को ही पता होता है हर रोज उसके द्वारा किए गए कार्य का पारिश्रमिक उसके खाते में जमा होता है जिसे वह अपना पासवर्ड लगाकर कभी भी निकाल सकता है। इसलिए तनख्वाह या पारिश्रमिक मिलने की कोई विशेष तारीख निर्धारित नहीं है। इस प्रणाली में कार्यालयों व कारखानों में होने वाले कार्य करने के तरीके में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। रमन को भी आज लंच ऑवर मिस करने के बावजूद दो घंटे देर से छूटना था। इसलिए अपने देर तक सोने को कोसते हुए वह अपना डिब्बाबंद (पैक्ड) नाश्ता कार में ही खाने लगा। एक क्रासिंग पर ट्रैफिक में उनकी कार करीब एक घंटे से फंसी थी। उसने घूम कर देखा, पीछे कारों का एक समुद्र था। यही हाल आगे ही भी था। प्रदूषण के कारण अब वायुमंडल में ऑक्सीजन का स्तर गिरने लगा है। इसलिए ऐसे स्थानों पर भीड़ में फंस जाने पर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। ऐसे में सांस लेना मुश्किल होने लगता है। इसलिए लोग ऑक्सीजन के माइक्रो सिलेंडर अपने साथ रखते हैं। रवि को भी सांस लेने में परेशानी महसूस होने लगी क्योंकि जाम में फंसे होने के कारण उसकी कार का इलेक्ट्रिक इंजन बंद था। रमन ने कार में फंसा माइक्रो सिलेंडर खींचा और अपने मुंह पर लगा लिया इससे उसे कुछ राहत मिली। ऑफिस पहुंचने में करीब तीन घंटे लगे। टैक्सीकॉप्टर से तो आधे घंटे से कम का समय लगना था।

यह सब करने के बावजूद भी जाम में फंसे रहने के कारण ऑक्सीजन की कमी से रमन की सांस फूल रही थी। हालांकि ऑफिस जाकर काम शुरू करने की हड़बड़ी थी पर उसे लगा के जैसे उसके पैर काम ही नहीं कर रहे हैं। उसके कदम ‘ऑक्सीजन पार्लर’ की ओर मुड़ गए।

बढ़ते कल-कारखानों ने, गरमाती धरती ने, तरह-तरह के पर्यावरण प्रदूषण ने, पृथ्वी के वायुमंडल का सत्यानाश कर दिया है। जो व्यक्ति जितना संपन्न होता था वह उतने ही अधिक उपकरणों का प्रयोग करता था, जिससे उसकी ऊर्जा खपत उतनी ही बढ़ जाती थी। अतिरिक्त ऊर्जा पैदा करने में पर्यावरण प्रदूषण और बढ़ जाता है। पर तब उन्हें इसकी परवाह नहीं थी। जो लोग सुख सुविधाएं खरीद सकते थे, भोग सकते थे उन्होंने बिना यह सोचे अपने पैसों के बल पर इनका दुरुपयोग किया कि इसका खामियाजा उनकी आगे आने वाली पीढ़ी को उठाना पड़ेगा। आज उनकी पर्यावरण से छेड-छाड़ के कारण क्षमताविहीन लोग परेशानियां भुगत रहे हैं। पेड़ कटने से जंगल करीब-करीब समाप्त हो गए है। इससे वातावरण में ऑक्सीजन का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। अत्यधिक प्रदूषण की स्थिति में वायु में ऑक्सीजन स्तर घटकर करीब बीस या कभी-कभी 19.5 प्रतिशत रह जाने की घटनाएं होने लगी थी। तब कोई श्रम का कार्य करना तो दूर सामान्य कार्य करना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए सरकार ने यह नियम बनाया है कि हर ऑफिस में ‘ऑक्सीजन पार्लर’ स्थापित किए जाएं जहां कर्मचारियों को इन स्थितियों में ऑक्सीजन दी जा सके।

इसके अतिरिक्त हर इमारत पर ‘वर्टिकल गार्डन’ बनाने का नियम है। पर इन नियमों की मात्र खानापूर्ती ही की जाती है। केवल बड़े कार्यालय और कारखानों में इसकी समुचित व्यवस्था होती है। इन ऑक्सीजन पार्लरों में स्वचालित बड़े-बड़े ऑक्सीजन कंसंट्रेटर लगे होते हैं जो वायु से ऑक्सीजन अलग कर इसे कार्बन स्टील के बड़े-बड़े बेलनाकर सिलेंडरों में भरते रहते हैं। यह ऑक्सीजन पार्लर इक्कीसवीं शताब्दी के ऑक्सीजन पार्लर से भिन्न होते हैं। तब इन्हें जहां शरीर को डिटॉक्स करने हेतु या अन्य लाभ पहुंचाने हेतु प्रयोग किया जाता था या फिर इन्हें पार्टी में फैशन की तरह, तरह-तरह की सुगंध मिला कर लिया जाता था। अब तेईसवीं शताब्दी में इसे उखड़ रही सांस को थामने के लिए अति आवश्यक उपाय की तरह प्रयोग किया जाता है। इसमें एक पारदर्शी पदार्थ का बना 6 फुट गुना 6 फुट माप का चैंबर होता है। इसमें एक टोकन मशीन लगी रहती है। इस मशीन में पार्लर के मैनेजर से एक टोकन खरीद कर डालना होता है। टोकन मशीन में डालते ही बाईस प्रतिशत ऑक्सीजन और अठत्तर प्रतिशत वायु का मिश्रण चैंबर में भरने लगता है। चैंबर में आराम कुर्सी पर बैठकर आराम करते हुए या लेट कर ऑक्सीजन लेने की व्यवस्था होती है। एक टोकन पर बीस मिनट तक यह सुविधा मिलती है। सामान्यजन इसे एक स्फूर्तिदायक, जीवनदायी, आयु बढ़ाने वाले डिटॉक्स करने वाले उपाय की तरह मानते हैं। पर इसके विरोधियों का कहना है कि इस तरह ऑक्सीजन के अधिक प्रयोग से फेफड़ों को स्थाई नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए ऐसे पार्लर में यह अक्सीजन सुविधा आमतौर पर एक बार में बीस मिनट के लिए उपलब्ध कराई जाती है। हर गली-मोहल्ले में, सामान्य दुकानों में, टैक्सीकॉप्टर स्टेशनों में यहां तक कि कार्यालयों में भी यह आक्सीजन पार्लर खुल रहे हैं और अच्छा व्यवसाय कर रहे हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें धीरे-धीरे इस ऑक्सीजन की लत लगती जा रही है। वे जिस दिन ऑक्सीजन सहायता नहीं लेते हैं उन्हें बेचैनी, अनिद्रा से लेकर हंफनी तक होने लगती है। चिकित्सकों का मानना यह था कि ऑक्सीजन पर उनकी निर्भरता (डिपेंडेंस) मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजिकल) होती है। पर लंबे समय तक प्रतिदिन ऑक्सीजन लेने से फेफड़ों के ऊतकों में खराबी आने लगती है। जिसे ऑक्सीजन आघात या (ऑक्सीजन ट्रॉमा) कहा जाता है। इसके बाद उनकी यह मनोवैज्ञानिक निर्भरता (साइकोलॉजिकल डिपेंडेंस) ऑक्सीजन की शारीरिक निर्भरता (फिजिकल डिपेंडेंस) में बदल जाती है। तब बिना ऑक्सीजन लिए उनका काम नहीं चलता है। ऑक्सीजन पर उनकी निर्भरता इसके बाद उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।

रमन ने पार्लर के मैनेजर से हड़बड़ी में टोकन लिया। ऑक्सीजन की कमी से रमन की बेचैनी इतनी अधिक थी कि मैनेजर के औपचारिक अभिवादन का भी उत्तर दिए बिना ही रमन अपना टोकन उठाकर पास के ही एक ऑक्सीजन चैंबर में चला गया। टोकन डालते ही बाईस प्रतिशत ऑक्सीजन और अठत्तर प्रतिशत वायु का मिश्रण चैंबर में तेजी से भरने लगा। रमन को जैसे इससे संतुष्टि न थी। उसने दीवार पर फंसा मास्क खींच कर अपने मुंह पर लगा लिया ताकि ऑक्सीजन की अधिक से अधिक मात्रा उसके फेफड़ों में शीघ्र से शीघ्र भर जाए। हालांकि यह आपातकालीन प्रक्रिया थी पर रमन उस समय बेचैन था। ऑक्सीजन की मात्रा फेफड़ों में जाते ही वह अपने आप को हल्का महसूस करने लगा। आनंद अतिरेक में उनकी आंखें मुंदने लगी। उसने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया। शरीर रुई के फाहों जैसा हल्का लगने लगा।

चैंबर में आ रही यांत्रिक आवाज से उसकी तंद्रा टूटी जो कह रही थी, ‘डियर कस्टमर डू यू नीड सेकंड शॉट?’ उसने आंखें खोली। उसकी नजरें सामने बने फायर के निशान पर टिक गईं। उसने हाथ के इशारे से मैनेजर को ऑक्सीजन के दूसरे शॉट के लिए मना किया। रमन कुर्सी से उठकर चैंबर के दरवाजे तक पहुंचा तो चैंबर का एयरटाइट दरवाजा अपने आप खुल गया। रमन का चित्त बहुत प्रसन्न था। वह अपने आगे के कार्य के लिए अपने आपको तरोताजा महसूस कर रहा था।

                                                                                                                                                                                           डॉ. अरविंद दुबे 

Leave a Reply