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फिर वो ही  ‘खासियत’ लायीं है…

फिर वो ही ‘खासियत’ लायीं है…

by दिलीप ठाकुर
in ट्रेंडींग, दीपावली विशेषांक-नवम्बर २०२३, फिल्म, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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भारतीय फिल्में फिर एक बार भारतीयता का चोला ओढ़ कर हमारे सामने प्रस्तुत हो रही हैं। भारतीय इतिहास को बिना तोेड़े-मरोड़े दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की चुनौती अब भारतीय सिनेमा बनाने वालों को स्वीकार करना होगा।

‘सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाये तो उसे भूला नहीं कहते….’ सत्तर के दशक के मसालेदार मनोरंजक हिंदी सिनेमा में यह एक फेवरेट डायलॉग हुआ करता था और थिएटर मेंं हाऊसफुल ऑडियन्स उसे तालियों से जबरदस्त रिस्पॉन्स देती थी। अभी कुछ साल पहले से हम हिंदी फिल्म का जो बदलता हुआ चेहरा देख रहे हैं, उसे लगता है कि वही डायलॉग आज के हिंदी सिनेमा को सूट करता है। एक जमाने में हिंदी सिनेमा में ऐसे कुछ निर्माता निर्देशक थे, जिन्होंने भारतीय मूल्य, परंपरा, सभ्यता, संस्कृती को फिल्मों और व्यवसाय से जोडे रखा था। उनकी फिल्मों की खासियत थी अपनी मिट्टी की कहानी, गीत, संगीत और नृत्य जो कि हमारी भारतीय संस्कृती है। भारत में कोई भी त्यौहार हो, उसमें गीत, संगीत, नृत्य काफी महत्वपूर्ण होता है और इसका ही चित्रण उन दिनों की फिल्मों में देखने को मिलता था। वी. शांताराम, राज कपूर, मेहबूब खान, के. आसिफ, अमिय चक्रवर्ती, बिमल रॉय, बी.आर. चोपडा, विजय आनंद, गुरुदत्त, चेतन आनंद, राज खोसला, रामानंद सागर ऐसे ही कुछ फिल्म निर्माता हैं, जिन्होंने उस समय हिंदी फिल्मों मेंं ‘भारतीयता’ को दिखाया।

70 के दशक में हिंदी फिल्म पर वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव पडा और  बढ़ा। इर्माला डूस की अंग्रेजी फिल्म से प्रेरित होकर शम्मी कपूर ने ‘मनोरंजन’ फिल्म का निर्देशन किया। कई और फिल्मों में भी कम ज्यादा परंतु वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव देखने मिला। उस जमाने में भी राजश्री प्रोडक्शन ने भारतीय संस्कृति को कायम रखा था। राजश्री प्रोडक्शन की उस वक्त की कोई भी फिल्म देखें ‘पिया का घर’, ‘उपहार’, ‘सौदागर’, ‘गीत गाता चल’, ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’, ‘अखियों के झरोखे से’, ‘नदिया के पार’, ‘पायल की झंकार’ इत्यादि। उस समय फिल्म के शीर्षक शुद्ध हिंदी भाषा में होते थे। फिल्म की कहानी भी हमारी भारतीय संस्कृति से जुडी होती थी। एक तरफ अगर राजश्री प्रॉडक्शन अपनी फिल्म के माध्यम से भारतीय संस्कृती, सभ्यता का अलख जगाती थी, उसके आधार पर चलती थी तो दूसरी ओर हिंदी सिनेमा में वेस्टर्न कल्चर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। खासकर अमेरिकन, यूरोपियन फिल्म का इंप्रेशन देखने मिला। फिल्मों की शूटिंग भी अब विदेशों में अधिक होने लगी थी।

अस्सी के दशक के आखिर में दूरदर्शन पर रामानंद सागर निर्देशित ‘रामायण’ और बी.आर. चोपडा निर्देशित ‘महाभारत’ ने भारतीय समाज को काफी प्रभावित किया। हर रविवार को सुबह यह धारावाहिक प्रदर्शित होते थे। तब रास्ते सुनसान हो जाते थे। समाज को इन धारावाहिकों ने बहुत प्रभावित किया था।

90 के दशक में दो ऐसी फिल्में आईं, जिन्होंने फिर से भारतीय सभ्यता और संस्कृती को हिंदी फिल्म से जोडा। एक फिल्म ऑगस्ट 1994 में रिलीज हुई राजश्री प्रॉडक्शन की सूरज बडजात्या निर्देशित ‘हम आपके हैं कौन’। इस फिल्म में हमारे यहां की शादी को ग्लॅमरस तरीके से, ज्यादा खर्चीला, ज्यादा कलरफुल तरीके से पेश किया गया था। कुछ लोगों ने इस फिल्म का मजाक उड़ाया। किसी ने इसे शादी का व्हिडिओ कैसेट कहा, किसी ने कहा यह छायागीत लगता है, किसी ने ‘ये भी कोई फिल्म है’ कहकर मजाक उडाया। लेकिन उस फिल्म का हमारे पूरे भारत पर प्रभाव रहा और शादियों की परम्परा में जो बदलाव आया, उसका सबसे ज्यादा श्रेय ‘हम आपके हैं कौन’ को जाता है। फिर 1995 की दिवाली में यशराज फिल्म की आदित्य चोपडा निर्देशित दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे फिल्म में अलग तरीके से भारतीय सभ्यता को दिखाया गया। डीडीएलजे ने यह संदेश दिया कि विदेशों मेंं रहने वाले भारतीय आज भी अपने देश यांनी हिंदुस्तान को भूले नहीं हैं। यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई। इस पूरी फिल्म में लंडन की अलग-अलग जगहों पर शूटिंग की गई है। लेकिन फिल्म का क्लायमैक्स हिंदुस्तान में खासकर के पंजाब फिल्माया गया है। शादी पंजाब में होती है और दर्शकों को फिल्म यह संदेश देती है कि दुनिया मेंं आप कहीं भी रहें, लेकिन भारतीय सभ्यता, मूल्य, परंपरा को भुलाना नहीं चाहिये। इस तरह की फिल्मों का भी एक दौर आया। जिसमें ‘परदेस’, ‘कभी खुशी कभी गम’ जैसी फिल्में आयी। विदेश में रहनेवाले भारतीय भी अपनी संस्कृती से जुडे हुये हैं, लेकिन उसके बाद क्या हुआ कुछ समझ में नहीं आया। 2005 या 2007 के बाद हमारी हिंदी फिल्मों में पाश्चात्य संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव दिखने लगा। दुनियाभर कीफिल्मों की थीम, आयडिया, दृश्य, संगीत की कॉपी होने लगा। उसकी वजह से हमारी पारम्परिक हिंदी फिल्मों का रूप और रुख बदलता गया और दर्शक भी हिंदी फिल्म से दूर रहने लगे। ऐसे में ‘दंगल’ जैसी फिल्म को लोगों ने पसंद किया क्योंकि उसमें अपनी मिट्टी की कहानी थी। हमारे भारतीय दर्शकों को अपनी भाषा, अपनी संस्कृती, अपनी मिट्टी से जुडी कहानियां ज्याादा पसंद आती है। फ्लैशबैक में जाकर देखें तो 70 के दशक में मनोज कुमार की देशभक्ति वाली फिल्मों का दौर था जिसमें ‘उपकार’, ‘शोर’, ‘रोटी कपडा और मकान’, ‘क्रांती’ जैसी फिल्मों से लोगों को देशभक्ति की शिक्षा मिली। आम दर्शकों ये फिल्में अपनी लगती थीं। आम दर्शक ऐसी फिल्म से जुडा, उसका कहना था कि मनोज कुमार की फिल्म हममें देशप्रेम जगा रही हैं….परंतु यह सब 70 के दशक में हुआ था।

2005/2007 के बाद हिंदी फिल्म अपनी मिट्टी की कहानी को भूल चुकी थी, लेकिन फिर कुछ फिल्में आईं जैसे छपाक, थप्पड, गुंजन सक्सेना, उरी, सूरज पर मंगल भारी, शकुंतलादेवी, गुलाबो सीताबो तो लगा कि अब हालात थोडे बदल रहे हैं। लोगों को लगने लगा है कि किसी विदेशी थीम या विदेशी कल्पना को लेकर फिल्म बनाने से अच्छा है कि अपने यहां की कहानी पर कुछ फिल्में बनाई जाएं। पिछले दो-तीन साल में देखेंगे तो रामायण से प्रेरित अभिषेक शर्मा निर्देशित ‘राम सेतु’, ओम राऊत निर्देशित ‘आदिपुरुष’ जैसी कुछ फिल्में आईं। दूसरी ओर देखा जाए तो हमारे देश में जो घटित होने वाली घटनाओं पर कुछ फिल्में आईं। ‘कश्मीर फाईल’ को  निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने 1989/1990 में कश्मीरी पंडितों पर पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा किए गए अत्याचार का आधार लेकर बनाया था। फिल्म से लोग काफी प्रभावित हुए थे। एक सच्चाई लोगों के सामने आई। हालांकि कुछ लोगों ने यह भी कहा कि जो दिखाया गया वह थोडा लाऊड है, किसी ने कहा कि फिल्म के लिए काफी लिबर्टी ले ली गई है। लेकिन इसका फिल्म के ‘हिट’ होने पर कोई प्रभाव नहीं पडा। सुदीप्तो सेन निर्देशित ‘द केरल स्टोरी’ फिल्म की भी काफी चर्चा रही। यह केरल के एक गांव के कॉलेज हॉस्टल मेंं रहनेवाली तीन छात्राओं को कैसे मुस्लिम धर्म की ओर धकेला जाता है, उनका माईंड सेट बदल दिया जाता है और अंतत: उनको किस तरह मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है, इसका एकदम अलग अनुभव देने वाली फिल्म थी। ये भी  बहुत चर्चा में रही। दोनों फिल्मों को देखते समय ऐसा लगता है कि हमारे देश में जो हुआ, जो हो रहा है, इन सभी को सामने लानेवाली फिल्में आना चाहिए। जब फिल्म केवल सपनों का सौदागर या ड्रीम फैक्टरी न रहकर वास्तविकता से जुडती है तो भारतीय दर्शक प्रभावित होता है। उसको वास्तविकता का पता चलता है। इनके साथ अगर और भी कुछ फिल्मों के नाम लिए जाने चाहिए जिन्होंने भारतीय सभ्यता, परंपरा, मूल्यों को स्वीकार किया। अयान मुखर्जी निर्देशित ‘ब्रह्मास्त्र’, रमेश थेटे दिग्दर्शित ‘भीमा कोरेगाव की लडाई’, फरहान रामजी निर्देशिक किसी का भाई किसी की जान, राधिका राव और विनय सप्रू निर्देशित यारीयां, एटली कुमार निर्देशित जवान, समीर विध्वंस निर्देशित सत्य प्रेम की कथा, हर्षवर्धन कुलकर्णी निर्देशित ‘बधाई हो’, संजय लीला भंसाली निर्देशित ‘गंगूबाई काठीयावाडी’, नागराज मंजुळे निर्देशित ‘झुंड’, राधाकृष्ण कुमार निर्देशित ‘राधेश्याम’, आर माधवन अभिनीत और निर्देशित ‘रॉकेट द नांबी इफेक्ट’, आनंद एल. राय निर्देशित ‘रक्षाबंधन’, अव्दैत चंदन निर्देशित ‘लालसिंह चड्ढ़ा, आर.एस.प्रसन्न निर्देशित ‘शुभमंगल सावधान’ जैसी फिल्मों ने भारतीय परंपरा, मूल्य, सभ्यता, संस्कृती को याद दिलाया। हिंदी सिनेमा फिर से बदल रहा है। हिंदी फिल्म अपने पुराने ‘ट्रैक’ पर आ रही है। इसमें कुछ कहानियां नये समाज का चेहरा सामने ला रही हैं। ‘देस बदल रहा है’ यह सूचित कर रही हैं। ऐसे में एक ऐसी फिल्म आती है, जिसे हम बायोपिक या चरित्रपट कहते हैं, रणदीप हुडा निर्देशित और अभिनित स्वातंत्र्यवीर सावरकर जो स्वा. सावरकर के विचारों को लेकरआई। अगर हमारी संस्कृति मिट्टी से जुडी हो तो लोगों को उसमें अपनापन लगता है। समझ में नहीं आता कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री जिसे हम बॉलीवुड कहते हैं, क्या वह इसका महत्व भूल गयी थी? हमारे फिल्म वाले क्यों विदेशी कल्पना को लेकर क्राईम स्टोरी और बोल्ड थीम लेकर आए? ऐसा लगता है कि हमारे दर्शक ऐस फिल्मों को ज्यादा पसंद नहीं करते, जो विदेशी संस्कृति को लेकर बनती हैं। यूरोपियन संस्कृति, अमेरिकन संस्कृति अलग है। उस संस्कृति की कहानी को हमारे देश के दर्शक देखना नही चाहते। हम अपने इतिहास से सम्बंधित फिल्मों में ज्याादा रुचि रखते हैं। यह संजय लीला भंसाली निर्देशित देवदास, बाजीराव मस्तानी, पद्मावती ऐसी ऐतिहासिक फिल्मों ने लोगों को एक दिलासा दिया।  ओम राऊत निर्देशित ‘तानाजी: द अनसंग वॉरीयर, आशुतोष गोवारीकर निर्देशित ‘पानिपत’ जैसी कुछ फिल्में थीं जिन्होंने ऐतिहासिक फिल्मों के माध्यम से लोगों का इतिहास के प्रति आकर्षण बढ़ता गया। ऐसी फिल्मों नेे बदलाव की नींव रची। यह बदलाव एक सकारात्मकता लेकर आया है और फिर एक बार हिंदी सिनेमा भारतीय मूल्य, परंपरा, सभ्यता की ओर मुड गया। दिवाली के शुभ अवसर पर ऐसी भारतीय संस्कृतिक मूल्यों को लेकरआने वाली फिल्मों का स्वागत करना चाहिए।

 

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