पुराणों का रचनाकाल अट्ठारह सौ से दो हज़ार वर्ष पूर्व का रहा होगा ऐसा अनुमान लगाया जाता है। प्रस्तुत राजा मुचकुंद की कथा का उल्लेख विष्णु पुराण के पंचम अंश के तेईसवें अध्याय व श्रीमद्भागवत के दशम स्कंद के इक्यावनवें अध्याय में है। टाइम डाइलेशन जैसी जटिल विज्ञान अवधारणा पर आधारित इस विज्ञान कथा को पढ़कर हम अपने पूर्वजों की प्रखर मेधा से चमत्कृत हो उठते हैं।
आज उनका मन अधीर हो रहा था। यद्यपि उनका कर्तव्य पूर्ण हो चुका था। अपने विचार प्रवाह में डूबे वह स्नान-ध्यान व जलपान के बाद उठकर तैयार हो रहे थे। सुनहरी आभा लिए उनका गौरवर्ण मुख व लंबी-चौड़ी देह पिता मान्धाता के समान ही प्रतीत होती थी। कमर में रेशमी पटका बांधकर उन्होंने केशों में हाथ फिराया, दर्पण में मुख देखा और कुछ सोचते हुए मुस्कुरा दिए। वापस जाने का समय आ गया था। सुखद कल्पनाओं के इन्द्रधनुषी रंग उनके मानस को रंगने लगे थे।
दर्पण में अपनी छवि निहारते गर्व की भावना उनके मुखमंडल पर तैर गई। इक्ष्वाकुवंशी वीर होना गर्व की बात तो थी ही, तभी तो देवराज इंद्र ने उन्हें बुलाया था। असुरों के भीषण आक्रमण के सामने देवगण टिक नहीं सके थे। योग्य सेनापति के अभाव में सेना तितर-बितर हो गई थी। घबराए इंद्र ने उनसे सहायता की याचना की थी। देवलोक के अधिपति की पदवी इंद्र थी। उस परम वैभवशाली प्रशासक इंद्र की हताशा देखकर वह विचलित हो उठे थे। सहायता की हामी भर दी थी। याचक को इच्छित वस्तु प्रदान करना इक्ष्वाकु वंश की परंपरा जो ठहरी।
ठीक है मैं सहायता के लिए प्रस्तुत हूं। शीघ्र ही मैं देवलोक पहुंचता हूं। उन्होंने संदेश भेज दिया था।
नहीं महाराज मुचकुंद! आपके वायुयान इतने तीव्र नहीं है कि आप यथासमय देवलोक पहुंच सकें। मैं आपको लेने के लिए विमान भेजता हूं। इंद्र का कथन था। वह कुछ चकित हो गए। न जाने इंद्र का आशय क्या था।
वायुयान तो एक सीमित गति से वायुमंडल में ही यात्रा कर सकता है जबकि विमान एक विमा से दूसरी विमा में जा सकता है वह भी अत्यंत तीव्र गति से। अतः आपका विमान द्वारा आना ही उचित होगा। फिर शीघ्र ही इंद्र ने विचित्र सा दिखने वाला एक विमान भेज दिया था।
वह जाने की तैयारी करने लगे थे परंतु पत्नी अचानक उनके इस वियोग के लिए प्रस्तुत नहीं थीं। पूजा की थाली हाथ में लिये उन्हें विदा करती वह फफक उठी थीं।
वीर पुरुषों की पत्नियों की आंख में अश्रु शोभा नहीं देते। कुछ समय की ही तो बात है। युद्ध समाप्त होते ही मैं वापस आ जाऊंगा। बड़ी रुक्षता से मुचकुंद ने विजय तिलक लगाती पत्नी को प्रत्युत्तर दिया था और जाकर विमान में सवार हो गए थे। उफ़..कैसा अनुभव था वह। जैसे अनंत भार उनके शरीर पर आ पड़ा हो। संकरी सी अतल सुरंग और गहरे अंधेरे ने उन्हें संज्ञाशून्य सा कर दिया था।
आर्यपुत्र… महाराज इंद्र ने आपको सभामंडप में आमंत्रित किया है। देवी घृताची नृत्य प्रस्तुत करने वाली हैं। द्वारपाल ने आकर निवेदन किया तो वह चौंककर वर्तमान में आ गए। मन ही मन मुदित होकर वह चल दिए। आज वह इंद्र से अपने मन की बात कह देंगे।
सभामंडप की शोभा निराली थी। सोने व चांदी से बने सिंहासनों पर देवगण व अप्सराएं विराजमान थे। मंडप के खंभों व छत पर रंगीन-सुनहरी सुंदर चित्रकारी विस्मित कर रही थी। मधुर-मदिर सी मंद सुगंध चारों ओर छाई हुई थी। सबके हाथों में सोमरस से भरे पात्र थे, जिसके छोटे-छोटे घूंट भरते हुए वे वार्तालाप में व्यस्त थे। सोमरस एक विशिष्ट प्रकार का पेय था, जिसे सोमलता नामक एक अद्भुत गुणों वाली वनस्पति से तैयार किया जाता था। स्फूर्ति और शक्ति बढ़ाने वाला यह पेय वृद्धावस्था को रोकने में अत्यंत प्रभावी था। सोमरस का पान करने वाले सभी देवगणों के चिकने, सौम्य, तेजोमय मुख और ह्रष्ट-पुष्ट शरीर इसके प्रमाण थे। वह स्वयं भी तो इसका प्रभाव अनुभव कर चुके थे। दिनों-दिन वह स्वयं को अधिक युवा, फुर्तीला व बलशाली होता पाते थे। क्या यही वह बहुश्रुत अमृत था…? जो भी हो उन्होंने सिर झटका।
आइए महाराज स्वागत है आपका। इंद्र ने गले लगाकर उनका स्वागत किया और अपने साथ वाले आसन पर बिठा लिया।
अतुलनीय रूपवती अप्सरा घृताची नृत्य भंगिमा बनाए अन्य नृत्यांगनाओं के साथ प्रतीक्षा में खड़ी थीं। उनके बैठते ही इंद्र ने संकेत किया और वाद्य बज उठे। नृत्य प्रारंभ हो गया। कैसा अलौकिक संगीत था और अप्रतिम नृत्य। चपल दामिनी सी वह थिरक रही थी। लयबद्ध, तरंगित शरीर और मुदित-मुग्धा नायिका से हावभाव। पूरी सभा मंत्रमुग्ध थी। राजा मुचकुंद तो जैसे सम्मोहित हो गए थे नायक-नायिका के मिलने-रूठने-मनाने का प्रसंग चल रहा था। मानो पूरी सृष्टि उनके साथ झूम उठी थी। नृत्य के अंत में नायक जाने लगा और नायिका उससे ठहरने का अनुरोध करती आंसू बहाती रह गई। छनाक की ध्वनि के साथ नृत्य समाप्त हो गया। करतल ध्वनि से सभा मंडप गूंज उठा। उन्हें झटका सा लगा। सम्मोहन टूट गया। अपनी पत्नी की कातर दृष्टि उनके सामने तैर गई। वह अन्यमनस्क से तालियां बजाने लगे। देवराज इंद्र से यह छिपा नहीं रहा।
‘क्या बात है मित्र? नृत्य अच्छा नहीं लगा क्या?’ इंद्र ने उनसे पूछा।
नहीं देवराज! देवी घृताची का नृत्य तो अद्भुत था। पृथ्वी की किसी नृत्यांगना से इनकी तुलना नहीं की जा सकती।
आप कहते हैं तो मान लेता हूं। परंतु आपकी व्याकुलता आपके मुख पर झलक रही है। कोई रहस्य है जिसने आपको इस नृत्य का आनंद उठाने से वंचित कर दिया है। कहिए मित्र वह क्या है? हमारे आतिथ्य में कोई कमी रह गई है? इंद्र के बार-बार पूछने पर मुचकुंद टाल नहीं सके। अपनी व्यथा उंड़ेल बैठे।
मैं अब पृथ्वी पर वापस जाना चाहता हूं देवराज। विजय श्री मिलने के साथ युद्ध समाप्त हो चुका है। शिव-पुत्र कार्तिकेय के रूप में आपको साहसी, युद्ध कौशल में प्रवीण और चतुर सेनापति मिल गया है। अब मेरी आवश्यकता नहीं है यहां। एक वर्ष से अधिक हुआ मुझे परिवार वालों से बिछुड़े हुए। पत्नी मेरी प्रतीक्षा करती होंगी। बंधु-बांधव, बालक-बच्चे सभी मुझे याद करते होंगे। सच कहूं तो अब मुझे उन सबका वियोग सताने लगा है। मुझे शीघ्र ही प्रस्थान की अनुमति दें देवराज।
उन्होंने कहा तो इंद्र गंभीर हो उठे।
इतना सरल परिदृश्य नहीं है मित्र। समय के साथ बहुत से परिवर्तन आते हैं। कुछ भी पहले जैसा नहीं रहता। जिन क्षणों को आज आपने स्मृति में संजोकर रखा है वह कल भी उसी रूप में विद्यमान रहें, यह आवश्यक नहीं। इंद्र के कथन का आशय न जाने क्या था।
प्रेम की भावना दूरी की आश्रित नहीं होती देवराज। मुझे विश्वास है कि मेरी पत्नी आज भी उसी उत्कंठा के साथ मेरी प्रतीक्षा में पल-पल गिन रही होंगी। राजा मुचकुंद के मुख पर स्निग्धता छा गई। मन में मधुर स्मृतियां उमड़ आईं।
मुझे भय है कि आप के भ्रम टूट जाएंगे। पृथ्वी पर समय प्रवाह अत्यंत तीव्र है। यह बड़ी शीघ्रता से सब कुछ बदल देता है। उसकी तुलना में यहां देवलोक में समय जैसे ठहरा हुआ है। इसलिए आप इस विसंगति को अनुभव नहीं कर सके हैं। इंद्र की बात सुनकर मुचकुंद हंस पड़े।
ठहरा हुआ समय! अच्छी उपमा दी आपने। क्या इसलिए पृथ्वीवासियों को लगता है कि देवता वृद्ध नहीं होते। सचमुच ऐसा ही है क्या? यद्यपि मुझे ऐसा नहीं लगा। युद्ध के कार्य में एक वर्ष कब बीत गया पता ही नहीं चला। मुझे रोकने के लिए अब बातें न बनाइए मित्र। मेरे जाने की व्यवस्था कीजिए।
ठीक है आप इतना हठ कर रहे हैं तो फिर मैं विवश हूं मित्र। परंतु पृथ्वी पर शायद पहले जैसा कुछ भी नहीं पा सकेंगे आप। फिर न कहियेगा मैंने बताया नहीं। इंद्रदेव ने चेतावनी के स्वर में कहा।
आभार देवराज! मेरे अनुरोध का मान रखने के लिए। मुचकुंद मुस्कुराए परंतु इंद्रदेव के अधरों पर स्मित नहीं छलका बल्कि मुखमंडल पर चिंता की लकीरें और गहरी हो गईं।
स्वर्गलोक का एक दिव्य वरदान लेते जाइए। पृथ्वी पर जाकर इसकी आवश्यकता पड़ेगी। संशयों को दूर कर यह आपके मस्तिष्क को शांत कर देगा। इंद्र ने उनके कानों में एक मंत्र सुनाया। राजा मुचकुंद ने ध्यान से सुना और स्मरण कर लिया।
जब आप इसका निष्ठापूर्वक उच्चारण करेंगे तो इसका प्रभाव शुरू हो जाएगा। मैं आपके जाने का प्रबंध करता हूं। कहकर इंद्र उठकर खड़े हो गए। सभा विसर्जित हो गई।
न जाने समय का यह कौन सा खंड था। सब कुछ अनजाना, अबूझ और अप्रत्याशित था। हैरान से मुचकुंद एक विशाल वृक्ष के पीछे खड़े चारों ओर का दृश्य देख रहे थे। विमान उन्हें पृथ्वी पर छोड़कर जा चुका था। कहां था उनका राज्य, राजधानी, प्रजा और प्रासाद? लघुकाय नर-नारियां और अन्य जीव-जंतु कितने विचित्र लग रहे थे। छोटे-छोटे घर, वृक्ष तथा अन्य वस्तुएं मानो बालकों की खेल सामग्री हों। क्या वह स्वप्न में थे अथवा उनका मस्तिष्क विक्षिप्त हो गया था? सहसा उनकी दृष्टि समीप लगे नामपट्ट पर पड़ी। इस पर ग्राम का नाम व उसकी स्थापना का वर्ष लिखा हुआ था। उन्होंने देखा कि उनके पृथ्वी से जाने के हज़ारों वर्ष बाद यह ग्राम बसाया गया था।
वह चकरा गए तो क्या देवलोक में बीते एक वर्ष के बदले पृथ्वी पर हज़ारों वर्ष व्यतीत हो चुके थे? तो यह था इंद्र का आशय। सचमुच कुछ भी पहले जैसा नहीं था। पत्नी और बंधुओं की स्मृति ने उन्हें विह्वल कर दिया। अश्रुधारा उनका मुख भिगोने लगी। यहां उनके लिए अब कुछ भी शेष नहीं था। कोई परिचित नहीं, सखा नहीं, कोई स्वजन नहीं। परंतु अब.कोई मार्ग शेष था क्या? कपटी…छली इंद्र। वह क्रोध में दांत पीसने लगे, परंतु कब तक? अश्रुधारा अंततः सूख चली। वह निरुपाय से खड़े इंद्र के बताए मंत्र का उच्चारण करने लगे। और कोई विकल्प था क्या? मंत्र की विशिष्ट ध्वनियों के प्रभाव से धीरे-धीरे उनका मस्तिष्क शिथिल होने लगा। युग-युगान्तर की थकान उन पर हावी होने लगी। मन संवेदनाशून्य हो चला।
वह मुड़े और लड़खड़ाते हुए वन क्षेत्र की ओर बढ़ गए। अंधेरी गहन गुफाएं जैसे उनका ही रास्ता देख रही थीं। वह एक गुफा में प्रवेश कर गए और उसकी पथरीली धरती पर गिर पड़े। निद्रा देवी ने बड़ी दयालुता से उन्हें अपने अंक में समेटकर चेतनाशून्य कर दिया। जाग्रत अवस्था की दुखद अनुभूतियों से परे वह अतीत के मनोरम स्वप्नलोक में विचरण करने लगे। अब एक युग बाद कालयवन की ठोकर से ही उनकी नींद टूटनी थी। तब तक चैन ही चैन था।
सब ओर पूर्ववत शांति छा गई थी।
कल्पना कुलश्रेष्ठ