भाषा के नाम पर अलगाववाद क्यों?

भारत की राष्ट्रीय एकात्मता के लिए आवश्यक है कि भाषा, प्रांत, धर्म के नाम पर अलगाववाद की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के नेताओं को नकार दिया जाए और इसके लिए दक्षिण भारत के जागरूक नागरिकों को समाज सुधार हेतु पहल करनी होगी।

भारत की सार्वभौमिकता की जब भी चर्चा की जाती है तो लद्दाख से कन्याकुमारी और कच्छ से कोहिमा को शामिल कर ही किया जाता है। हमारे देश के राज्यों की भाषाओं, बोलियों और जीवनशैली में एकरुपता तो नहीं मिलती है परंतु देश के नागरिकों में राष्ट्रभक्ति का स्वरूप एक ही होता है।

भारत के सभी राज्यों के नागरिकों में अपने राज्य, अपनी संस्कृति और अपनी भाषा के प्रति श्रद्धा और उससे भी अधिक आत्मसम्मान की भावना देखी जा सकती है लेकिन जब राजनीतिक लाभ के लिए इन भावनाओं को दोहन किया जाने लगता है तो विभिन्न राज्यों के नागरिकों में आपसी सहअस्तित्व की भावना का लोप होने लगता है। अपनी भाषा और संस्कृति तथा जीवनशैली को सर्वोपरि कहने की होड़ ही वैमनस्यता का महत्त्वपूर्ण अस्त्र बन जाता है। अपने राज्यों की सीमा में रहते हुए क्षेत्रीय राजनीतिक दल सत्ता को प्राप्त करने के लिए इन्हीं भावनाओं का रणनीतिक रूप से उपयोग करते हैं, जो राजनीतिक दल इस रणनीति में सफल होते हैं वही सत्ता हासिल कर लेते हैं।

क्षेत्रीयता की यही भावनात्मक रणनीति क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को सत्ता में पहुंचाने का उत्तम साधन बन गई है लेकिन इस भावनात्मक रणनीति का लाभ नागरिकों के हितों में कम देखा गया है, क्योंकि राज्यों में जीविकोपार्जन के लिए सरकारें इतने संसाधन को उपलब्ध नहीं करा पाती है, एक सामान्य व्यक्ति अपने जीवनयापन के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर हो जाता है।

भारत के उत्तरी राज्य हो या दक्षिणी राज्य, कमोबेश सभी राज्यों के लोगों को रोजगार के लिए विस्थापन का दंश सहना पड़ता है।

तमिलनाडु की राजनीति में विस्थापितों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है उसे किसी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। हमने देखा है कि तमिलनाडु के लोग अन्य राज्यों में रोजगार की तलाश में जाते हैं जहां वे अपनी जीवनशैली को अपनाते रहते हैं, उन पर कहीं भी किसी तरह का दबाव नहीं रहता है। यह जरूर देखा गया है कि भारत के दक्षिणी राज्यों में शिक्षा और रोजगार के अधिक अवसर मिलते है लेकिन क्या सभी को, उन्हीं के राज्यों में रोजगार मिल जाता है या नहीं, क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षितों को रोजगार के लिए अपने राज्य में कुछ हद तक रोजगार तो मिल जाता है परन्तु अर्धशिक्षित और अशिक्षितों को पड़ोस के राज्यों में विस्थापित होना पड़ता है, फिर भी दक्षिणी राज्यों के लोग अपने राज्यों में उत्तर भारत के राज्यों से आए हुए लोगों को दोयम दर्जे का मानते हैं।

दक्षिणी राज्यों, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों को शामिल करते हुए, दक्षिण भारत एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का दावा करता है। अपने शास्त्रीय संगीत, भरतनाट्यम और कथकली जैसे नृत्य रूपों और कर्नाटक संगीत की कालातीत कला के लिए जाना जाने वाला यह क्षेत्र कलात्मक अभिव्यक्ति का खजाना तो है, इसमें शंका और समाधान की आवश्यकता भी नहीं है। दक्षिण और उत्तर में संगीत की दो विधाओं, कर्नाटका और हिन्दुस्तानी संगीत नाम से पहचाना जाता है। सुर, लय, ताल में थोड़ी सी भिन्नता तो देखी जा सकती है। इसी प्रकार कला और साहित्य में कई विविधता देखी जा सकती है परंतु मानव मात्र में स्वयं को श्रेष्ठ समझने की भावना के कारण ही तमिलनाडु के लोग आस पास के राज्यों के नागरिकों से भी एकाकार नहीं हो पाते। तमिलनाडु के वासी इसी श्रेष्ठतम बनें रहने की भावना के कारण ही अन्य राज्यों से आए रोजगार करने वालों को हीन दृष्टि से देखते हैं जबकि तमिलनाडु के लोग जब निकटवर्ती राज्यों में जाते हैं तो उनके साथ इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाता।

तमिलनाडु ही एक ऐसा राज्य है जहां क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के विरुद्ध हिन्दी को राज्य में जबरदस्ती थोपकर क्षेत्रीय भाषा तमिल को समूल नष्ट करने का षड्यंत्र बताया। हिन्दी के विरुद्ध इस तरह का वातावरण उत्पन्न किया गया कि 1967 से आज तक कांग्रेस को सरकार के गठन का अवसर ही नहीं मिला जबकि भारत के अन्य दक्षिणी राज्यों में चुनाव में हिन्दी भाषा कभी मुद्दा ही नहीं बनी। उन राज्यों में भ्रष्टाचार एक प्रमुख मुद्दा बना। यह एक ऐसी विडम्बना है कि महात्मा गांधी ने मद्रास में ही दक्षिणी हिन्दी प्रचार सभा की शुरुवात कराई थी, स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी महत्त्वपूर्ण माध्यम था। महात्मा गांधी द्वारा हिन्दी के प्रशिक्षण के लिए ही हिन्दी प्रचार सभा का गठन कराया गया था। उसका कारण था जब भी तमिलनाडु अन्य दक्षिणी राज्यों के लोग उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों में जाएंगे तो आपसी सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही बनेगी।

आज भी तमिलनाडु में राज्य में सत्ता हासिल करने के लिए न तो भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और न ही भुखमरी पर चुनाव लड़ा जाता है। तमिलनाडु की पार्टियां हिंदी विरोध को ही अपना प्रमुख मुद्दा बनाती रही हैं। यह देखा गया है कि दक्षिणी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में अंग्रेजी का उपयोग सम्वाद के लिए नहीं किया जाता है। वहां तमिल का ही उपयोग अधिक होता है। जैसे कि हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी और आंध्र प्रदेश में तेलुगू, कर्नाटका में कन्नड़ तथा केरल में मलयालम भाषाओं का उपयोग किया जाता है। तमिलनाडु के अतिरिक्त अन्य राज्यों में हिंदी का विरोध राजनीतिक लाभ के लिए उस स्तर पर नहीं किया जाता है। उन राज्यों के लोगों का आग्रह होता है कि उनके राज्य में रोजगार करने और उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोग स्थानीय भाषा को अपनाएं, कम से कम परस्पर सम्वाद में उसका उपयोग करें।

तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध हिन्दी भाषी पार्टी का आरोप लगाकर चुनाव में उतरती हैं, उन्हें मालूम है कि यदि वे हिन्दी को लेकर भाषाई आक्रमता बनाए रखेंगी तो उनके लिए सत्ता में पहुंचना आसान होगा। तमिलनाडु की राजनीति में लोकसभा और विधानसभा की चुनावों में अंतर होता है। लोकसभा के चुनावों से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और राज्य के विकास से सम्बंधित मुद्दों को पीछे धकेल दिया जाता है और हिंदी विरोध और तमिल भाषा की अस्मिता, अस्तित्व को बचाए रखने का मुद्दा प्रमुख कर दिया जाता है, जिससे राष्ट्रीय पार्टियां हाशिए पर चली जाएं और विधान सभा के चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों के बीच मुफ्त की रेवड़ी बांटने की होड़ लगी रहती है।

 

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