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स्वावलंबन का सूरज

स्वावलंबन का सूरज

by सुनीता माहेश्वरी
in कहानी, फरवरी २०२४, सामाजिक, साहित्य
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उस दिन सुजाता के घर गांव से बहुत से मेहमान आए हुए थे। नाश्ते, भोजन आदि की व्यवस्था के साथ उसे मेहमानों को नाशिक दर्शन के लिए भी ले जाना था। पंचवटी, रामकुंड, काला राम, गोरा राम मंदिर, सीता गुफा आदि के दर्शन के पश्चात वह शाम छह बजे मेहमानों के साथ अपने घर पहुंची, फिर रात का खाना खिलाकर उसने मेहमानों को आठ बजे विदा किया। धरती सी धैर्यवती, मृदुभाषिणी, शांत स्वभाव की धनी श्रीराम की अनन्य भक्त सुजाता सारे दिन की भाग दौड़ में बहुत थक गई थी। सिर दर्द से पीड़ित वह बिस्तर पर आकर लेटी ही थी कि तभी सुजाता का पति विमल दफ्तर से आकर बोला, सुजाता उठो, एक कप चाय बनाओ।

अस्वस्थ होते हुए भी सुजाता शक्ति को संजोती हुई उठी। उसने चाय बनाकर विमल को दी और चुपचाप बैठ गई। उसका उतरा हुआ मुख देखकर विमल को कोई सहानुभूति न थी, बल्कि वह व्यंग्य में बोला, आदमी काम करके थका हारा आए, घर में मुंह लटकाए पत्नी मिले, तो क्या फायदा?

सुजाता ने शांत भाव से कहा, मैं भी दिनभर मेहमानों के साथ ही व्यस्त थी।

बीच में ही चिल्लाते हुए विमल बोला, मेहमानों के साथ तो तुम मजे कर रही थीं। सारे दिन पैसे उड़ाती रहीं। जब घर के लिए कुछ कमाओ तो पता चले।

विमल के पिता ज्ञानचंद, जो उस समय राम चरित मानस का पाठ कर रहे थे, वे विमल को डांटते हुए बोले, अरे विमल, तुम्हारा गुस्सा तो नाक पर ही रखा रहता है। इतनी विनम्र पत्नी मिली है, उसका सम्मान करना सीखो। वैसे तुम्हारे गुस्से के सामने कुछ कहना तो वैसे ही है जैसे –

क्रोधिहिं सम कामिहि हरि कथा।

ऊसर बीज बएं फल जथा॥

विमल के शब्द सुजाता के कानों में सूई से चुभ रहे थे। यह कोई एक दिन की बात नहीं थी, आए दिन ही ऐसी जली-कटी बातें  सुजाता को सुननी पड़ती थीं। इन बातों से उसके आत्मसम्मान पर जो चोट लगती, उनसे उसका अस्तित्व तार-तार हो जाता। उस दिन वह बहुत दुखी हो गई थी। विमल के ये वाक्य ‘सारे दिन पैसे उड़ाती रहती हो, जब घर के लिए कुछ कमाओ तो पता चले’ उसके कान में जहर घोल रहे थे। वह स्नानघर में एकांत में जाकर रोती रही, अपने आप से लड़ती रही, सोचती रही, सुबह से शाम तक काम करती हूं, पिताजी का, इनका ध्यान रखती हूं और बदले में बस उलाहना ही मिलती है। उसके आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उसे अपना जीवन विमल पर बोझ लगने लगा था। वह स्वयं भी तो पढ़ी लिखी है परंतु घर के सभी लोगों की भली-भांति देखभाल करने के लिए ही तो कोई काम नहीं कर रही। रोते-रोते उसकी आंखे सूज गई थीं।

कुछ देर बाद उसने आंसू पोंछे और किचन में जाकर पानी पिया, फिर शांत मन से सोचती रही। उसे लग रहा था पिताजी ने तो कभी मां को ऐसा नहीं जताया कि वह भोजन के लिए भी उन पर आश्रित है पर तभी उसके मन में ख्याल आया कि समय के साथ समाज में भी बदलाव आ रहा है। पहले लोग यह चाहते थे कि उनकी पत्नी घर सम्भालें और आर्थिक सम्पन्नता के लिए वे स्वयं काम करें, पर आज यह विचार बदल रहा है। आज मंहगाई, भौतिक आकर्षण एवं बढ़ती आकांक्षाओं के कारण युवक यह सोचने लगे हैं कि पढ़ी-लिखी लड़कियां भी कंधे से कंधा मिलाकर धनार्जन में सहयोग दें। आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनें। शायद विमल भी ऐसा ही सोचता होगा।

उसने निर्णय किया कि वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनेगी। उसके मनोमस्तिष्क में संभावनाओं व योजनाओं की लहरें उठने लगी। उस रात वह सो न सकी। प्रातः चार बजे उठकर नहाकर पूजा करने बैठ गई। उसकी श्रीराम में गहन आस्था थी, उसे विश्वास था, सबका मंगल करने वाले श्रीराम ही उसे राह दिखाएंगे। प्रभु के समक्ष बैठ अपनी विशेषताओं, योग्यताओं का चिंतन मनन करके उसने निर्णय किया कि वह घर की जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए घर से ही काम करके धनार्जन करेगी। इसके लिए उसने कलात्मक आभूषण व अन्य मोतियों का सामान बनाने का काम चुना क्योंकि विवाह के पूर्व उसने ज्वेलरी डिजाइनिंग का कोर्स किया था। एक लक्ष्य निर्धारित हो जाने पर उसके मन में शांति व ऊर्जा का संचार होने लगा।

उसने अपने ससुर ज्ञानचंद को योजना बताते हुए कहा, पिताजी काम शुरू करने से पहले मैं आपका आशीर्वाद लेना चाहती हूं, जिससे मैं अपने उद्देश्य में सफल हो सकूं।

ज्ञानचंद ने कहा, बहू मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है। श्रीराम के प्रति आस्था मात्र से ऐस-ऐसे भक्तों के कार्य पूर्ण हो जाते हैं, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

बिनु पद चलइ, सुनइ बिनु काना।

कर बिनु करम करइ विधि नाना॥

फिर तुम तो गुणवती हो, शिक्षा सम्पन्न हो, तुम्हारी प्रभु श्रीराम में गहन आस्था है, तुम अवश्य सफल होगी। सुजाता ने ज्ञानचंद के चरण स्पर्श किए। ससुर से समर्थन एवं आशीर्वाद मिलने पर सुजाता में एक नई शक्ति का संचार हो गया था।

वह पूर्ण मनोयोग से अपने काम में लग गई थी। उसने अपने पुराने नोट्स, डिजाइन्स, नई फैशन पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का अध्ययन किया। गूगल पर सर्च किया। वह आर्ट ज्वेलरी बनाने वाले तथा विक्रेताओं से मिली। सभी तरह की सूचनाएं एकत्रित करके उसने बड़ी लगन से उपयोगी वस्तुओं की सूची तैयार की, फिर पता किया कि कौन सी वस्तु कहां उचित मूल्य पर मिलेगी। कुछ वस्तुओं का उसने ऑन लाइन भी ऑर्डर दिया, अन्य आवश्यक वस्तुओं को वह बाजार से खरीद लाई। अल्प समय में ही उसने आधुनिक कलात्मक आभूषण, बंदनवार, भगवान की मालाएं मुकुट आदि तैयार करके शहर की विभिन्न सुप्रसिद्ध दुकानों पर जाकर दिखाए। दुकानदारों ने उसके आभूषणों एवं अन्य वस्तुओं को अत्यधिक पसंद किया पर कुछ सुझाव भी दिए। सुजाता ने उनके सुझावों के अनुसार आभूषण तैयार कर उन्हें उचित मूल्य पर देना आरम्भ किया। धीरे-धीरे लोग उसकी कला के दीवाने होने लगे थे। उसने अमेजोन पर भी अपने आभूषण व अन्य सामान बेचना आरम्भ किया। उसकी लगन, कर्मनिष्ठा, कुशलता का यह परिणाम हुआ कि एक ही वर्ष में उसने अपनी एक पहचान बना ली। वह थोक विक्रेताओं को भी सामान सप्लाई करने लगी थी।

एक दिन वह एक थोक विक्रेता से मिली जो मंदिरों आदि के लिए मालाएं, बंदनवार मुकुट आदि सप्लाई करते थे। वहीं उसे साधु रामानंद मिले। उसने उन्हें प्रणाम किया। थोक विक्रेता ने सुजाता के सामान की रामानंद से बहुत सराहना की। रामानंद ने उसके बनाए हुए सामान को देखा-परखा और अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए तरह-तरह के आभूषण, मुकुट, बंदनवार का बड़ा ऑर्डर उसे दिया। उस दिन उसकी प्रसन्नता उसे गगन की सैर करा रही थी। उसकी आंखों से खुशी के आंसू बरस रहे थे। उसने रामानंद के चरण स्पर्श किए और कृतज्ञता ज्ञापित की। उसे लग रहा था जैसे भगवान श्रीराम स्वयं आकर उसकी सहायता कर रहे हैं।

उसे इतना बड़ा ऑर्डर तो मिल गया था पर चुनौती थी कि निर्धारित समय में उसे पूरा करने की। सुजाता स्वयं मुंबई से सामान खरीद कर लाई। एक-एक सामान को बड़े ध्यान से उसने चुना था क्योंकि इस बार सामान सुंदरियों की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं था बल्कि उसके प्रभु श्रीराम के पावन मंदिर के लिए था। उसने कुछ श्रेष्ठ कारीगरों को नियुक्त किया। प्रत्येक सामान को बड़े ही कलात्मक ढंग से बनाया गया, देर रात तक जाग-जागकर उसने काम करवाया। उसकी उत्तम कला से उसका नाम प्रसिद्ध हो गया था। घर एवं व्यवसाय का ख्याल रखते हुए वह जिंदगी में बहुत आगे बढ़ गई थी। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उसके व्यक्तित्व में चार चांद लगा दिए थे। आत्मविश्वास की चमक उसके मुख-मण्डल की शोभा को द्विगुणित कर देती थी।

पत्नी के धनार्जन करने से विमल व सुजाता की गृहस्थी सुचारु रूप से चलने लगी थी। पति-पत्नी के बीच की कटुता प्रेम में बदल गई थी। विमल सुजाता की घर के काम में सहायता भी करने लगा था। गृहस्थी की गाड़ी के दोनों पहिए चलते रहें तो जिंदगी में आनंद ही आनंद होता है। सच ही कहा गया है – सब दिन होत न एक समान। कब जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर जाए कोई नहीं जानता। कब खुशियों को किसी की नजर लग जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक दिन विमल और उसके उच्च अधिकारी के बीच कहा-सुनी हो गई। बात इतनी बढ़ गई कि अधिकारी ने झूठे आरोप लगाकर विमल को नौकरी से निकाल दिया। इन झूठे आरोपों के अपयश से संतप्त विमल करोड़ों मृत्यु की पीड़ा को भोग रहा था। सच है अपयश की पीड़ा असहनीय होती है। दुखी विमल अनेक कांटों की चुभन महसूस कर रहा था। कई महीनों तक वह लगातार जॉब की तलाश करता रहा पर उस पर लगे झूठे आरोपों ने उसके सारे रास्ते बंद कर दिए थे। कभी-कभी क्रोध आदमी को ऊंचाई से सीधे गर्त में पहुंचा देता है। यही हाल विमल का भी हुआ था। वह झूठे आरोपों के पिंजरे में बंद हुआ तड़प रहा था। उसे अपने जीवन से वितृष्णा होती जा रही थी। सुजाता जितनी तरक्की कर रही थी, उतना ही वह पीछे छूटता जा रहा था। पत्नी से पीछे रहने के कारण उसका पुरुषत्व भाव उसे धिक्कारने लगा था। वह डिप्रेशन में आ गया था। सुजाता उसका ऐसा हाल देखकर बहुत दुखी थी। सुजाता अकसर विमल को समझाती, पर उसका अहंकार एवं बॉस के प्रति क्रोध उसे कुछ सुनने ही नहीं देता। क्रोध ज्ञान को समाप्त कर देता है। सुजाता के प्रति भी उसका व्यवहार फिर बदलने लगा था। वह सुजाता की सफलता को लेकर उस पर व्यंग्य बाण छोड़ता रहता। सुजाता कभी भी उसे गुस्से में प्रत्युत्तर नहीं देती थी।

एक दिन उसके पिता ज्ञानचंद ने समझाते हुए कहा, विमल, स्त्री- पुरुष का एक दूसरे के प्रति मान-सम्मान होना अत्यंत आवश्यक है। परिवार की गाड़ी दोनों मिलकर चलाते हैं। दोनों का एक दूसरे के प्रति सहयोग होना आवश्यक है तभी परिवार सुखी हो सकता है। हीन भावना या स्वयं को श्रेष्ठ समझने के भाव का कीड़ा यदि व्यक्ति के दिमाग में लग जाता है तो वह जिंदगी को खोखला कर देता है। तुम ठंडे दिमाग से सोचो, तुम्हारी नौकरी जाने में सुजाता की क्या गलती है। वह तुम्हारा हमेशा भला चाहती है। उसे समझों। अपने बुरे व्यवहार के कारण कहीं तुम अपनी समझदार पत्नी को मत खो देना। विमल ने पिता की बात को ध्यान से सुना और गुना भी। वह अपने ईर्ष्या-भाव को छोड़कर सुजाता के प्रति विनम्र रहने का प्रयास करने लगा।

एक दिन सुजाता ने पास बैठकर विमल को प्यार से समझाते हुए कहा, विमल कभी-कभी जब समय खराब होता है तब कुछ बातों पर हमारा बस नहीं चलता। मुझे पूरा विश्वास है कि समय के बदलते ही तुम्हें पहले से भी अच्छा जॉब मिलेगा। बस अपने ऊपर विश्वास रखो। तुम चिंता मत करो। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। जिन्होंने बुरा किया है उन्हें भी मुंह की खानी पड़ेगी क्योंकि झूठ के पैर ज्यादा दिन नहीं टिक पाते। हम मिलकर अपना सच दुनिया के सामने अवश्य लेकर आएंगे। विमल दुखी मत हो। मैं और पिताजी हमेशा तुम्हारे साथ हैं।

विमल ने कहा – ठीक है।

सुजाता ने बड़े आग्रह से विमल से पुनः कहा,

विमल, आज मेरा मन है कि हम कुछ भूखे लोगों को भोजन कराएं। परोपकार से मन को शांति मिलेगी। बाबूजी अकसर यह चौपाई बोलते हैं न-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

हम किसी का बुरा नहीं करेंगे तो अच्छे कर्मों का फल अच्छा ही मिलेगा।

नौकरी न रहने की कठिन परिस्थिति में आर्थिक रूप से सम्पन्न पत्नी से इतना प्यार, सम्मान, हौसला पाकर विमल का मन भी आत्मविश्वास से भर उठा था। सुजाता के धैर्य, समझदारी, परिवार व निज व्यवसाय के प्रति कर्तव्य निष्ठा को देखकर विमल के मन में पत्नी के प्रति प्रेम, सम्मान और श्रद्धा के भाव जागने लगे थे। विमल ने बड़े प्रेम से सुजाता का हाथ पकड़कर कहा, ‘सुजाता स्वावलंबन के सूरज से दमकते तुम्हारे व्यक्तित्व में वह जादू है, जिसने मेरे दुख के घोर अंधकार को पल में नष्ट कर दिया। मुझे क्षमा करना, मैं तुम्हारी शक्ति को समझ न सका’।

 

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