डॉक्टर भीमराव रामजी आम्बेडकर यानि बाबा साहेब केवल किसी एक समुदाय या जाति विशेष में व्याप्त रूढ़ियों, कुरीतियों और बुराइयों हेतु ही चिंतित नहीं थे। बाबा साहेब, समूचे भारत के सभी वर्गों में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन हेतु प्रयासरत रहते थे। इस नाते ही वे मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कुरीतियों के प्रति भी अत्यधिक चिंतित रहते थे। इस्लामिक महिला समुदाय को लेकर भी बाबा साहेब का एक समुचित दृष्टिकोण व रोडमैप था। बाबासाहेब के इस रोडमैप में मुस्लिम महिलाओं के हावभाव, स्वभाव, मानसिकता, स्वास्थ्य, आचरण, शिक्षा, सार्वजनिक जीवन में भूमिका, राजनीति में भूमिका, परिवार में उसकी सत्ता जैसे सभी विषय बड़े स्पष्ट थे। ये सभी तत्त्व उनके लेखन से झलकते हैं। दुखद विषय यह रहा कि भारतीय मुस्लिम समुदाय ने कभी भी बाबासाहेब के विचारों को, इस्लाम की कुरीतियों के संदर्भ में गंभीरता से नहीं लिया। हां, भारतीय मुस्लिम नेताओं ने कुछ विभाजनकारी संगठनों के फेर में आकर “भीम-मीम” जैसे सुंदर शब्दों को विद्रूप शब्दों में बदला व विभाजनकारी के साथ-साथ देशद्रोही राजनीति भी अवश्य करने लगे! नारों-नारों में भारतीय मुस्लिम समुदाय के स्वार्थी व वोट बैंकर प्रकार के नेताओं ने बाबासाहेब के नाम का दुरुपयोग मुस्लिम समुदाय को शेष भारतीय समुदाय से काटने, दूर करने, वैमनस्यता बढ़ाने, परस्पर मतभेदों हेतु किया। भीम-मीम की राजनीति ने रचनात्मक भूमिका त्यागकर विध्वंसात्मक भूमिक अपनाई और मैग्निफ़ाइंग ग्लास से खोज-खोजकर समाज में असंतुष्टों व्यक्तियों व गुटों का निर्माण किया और विघ्नसंतोषी वातावरण निर्मित किया। मुस्लिम नेता व वोट बैंकर प्रकार के लोग जब-तब अपने हाथों में बाबासाहेब के नामवाला मैग्निफ़ाइंग ग्लास उठाते हैं व “भीम-मीम” जैसे पवित्र नाम पर समाजभंजन, विभाजन, मतभेद फैलाने का कार्य प्रारम्भ कर देते हैं। वस्तुतः डॉक्टर भीमराव जी के नाम का सर्वाधिक भद्दे अर्थों में दुरुपयोग वोट बैंकर्स ने ही “भीम-मीम” का नारा देकर किया है। बाबासाहेब की प्रतिष्ठा के लिए सर्वाधिक बुरे शब्द वर्तमान में “भीम-मीम” ही है। हमारे समाज को चाहिए की बाबासाहेब के नाम पर चलाए जा रहे इस प्रकार के विभाजनकारी एजेंडे को तत्काल प्रभाव से अपने वैचारिक प्रवाह में से बाहर निकाल फेंके। “भीम-मीम” के नारे का प्रयोग रचनात्मक अभियानों हेतु अवश्य की किया जाना चाहिए। बाबासाहेब ने कभी इस प्रकार की विभाजनकारी राजनीति का उपयोग नहीं किया था। बाबासाहेब ने जवाहरलाल नेहरू से अपमान सहा, प्रताड़ना झेली, राजनैतिक उपहास सहन किया किंतु उन्होंने कभी समझौता वादी राजनीति नहीं की थी। बाबासाहेब कभी देशविरोधी लोगों के साथ खड़े नहीं दिखे और न ही उन्होंने किसी भी रूप में स्वयं का दुरुपयोग देशविरोध में होने दिया।
“बाबासाहेब व मुस्लिम समुदाय” पर बहुत कुछ लिखा जाना अभी बाक़ी है, अभी यहां केवल मुस्लिम स्त्री विमर्श विषयक लेखन के संदर्भ में बाबासाहेब के विचार यहां समाहित किए जा रहे हैं। अब समय आ गया है, हम “भीम-मीम” के नारे के दुराशयपूर्ण अंतर्तत्व को समझें व “भीम बाबा” की इच्छा के अनुरूप भारतीय मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाएं। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों में वृद्धि, सामाजिक व पारिवारिक स्थिति में उनकी उच्चता के प्रयास, दुराचार पूर्ण मज़हबी रिवाजों पर प्रतिबंध जैसे उपाय, कुछ और नहीं बल्कि बाबासाहेब की मुस्लिम सम्बंधित कल्पना का ही एक भाग है। बड़ा आश्चर्य है कि भारतीय मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के विषय में बाबासाहेब के रोडमैप के ऊपर कोई बात ही नहीं करना चाहता है। इस्लामिक महिलाओं की तीन तलाक़, हलाला, हिजाब, बुर्का, अशिक्षा, मुताह आदि कुरीतियों के प्रति बाबासाहेब ने अपने विचार “भारत अथवा पाकिस्तान का विभाजन” में स्पष्ट लिखे हैं।
कर्नाटक हिजाब के न्यायालयीन प्रकरण में निर्णय देते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय की पीठ ने एक सौ उनतीस पृष्ठीय विस्तृत निर्णय दिया था। इस निर्णय में बहुत सी पुस्तकों, विचारकों, दृष्टांतों व कथानकों को आधार बनाया गया था। हिजाब पर गठित इस न्यायिक पीठ ने लिखा है कि इस संदर्भ में डॉ. बी. आर. आम्बेडकर के विचार भी इसी तरह के हैं। बाबासाहब ने वर्ष 1945 अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया” के दसवें अध्याय में पहले भाग को लिखते समय सोशल स्टैगनेशन शीर्षक के अंतर्गत लिखा है – “एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटे, भाई, पिता, चाचा ताऊ और शौहर को देख सकती है या फिर अपने वैसे रिश्तेदारों को जिन पर विश्वास किया जा सकता है। वो मस्जिद में नमाज अदा करने भी नहीं जा सकती। बिना बुर्का पहने वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती। तभी तो भारत के गली कूचों सड़कों पर आती जाती बुर्कानशीं मुस्लिम औरतों का दिखना आम बात है। मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह और कई जगह तो उनसे भी ज्यादा सामाजिक बुराइयां हैं। अनिवार्य पर्दा प्रथा भी उनमें से ही एक है। उनका मानना है कि उससे उनका शरीर पूरी तरह ढंका होता है। लिहाजा शरीर और सौंदर्य के प्रति सोचने के बजाय वो पारिवारिक झंझटों और रिश्तों की उलझनें सुलझाने में ही उलझी रहती हैं क्योंकि उनका बाहरी दुनिया से संपर्क कटा रहता है। वो बाहरी सामाजिक कार्यकलाप में हिस्सा नहीं लेती लिहाजा उनकी गुलामों जैसी मानसिकता हो जाती है। वो हीन भावना से ग्रस्त कुंठित और लाचार किस्म की हो जाती हैं। कोई भी भारत में मुस्लिम औरतों में पर्दा प्रथा से उपजी समस्या के गंभीर असर और परिणामों के बारे में जान सकता है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय की इस पीठ ने अपने निर्णय में लिखा है – हमारे संविधान निर्माताओं में प्रमुख डॉक्टर आम्बेडकर ने तो पचास वर्ष पूर्व ही पर्दा प्रथा की दोष व हानियां बताई थी। बाबासाहेब के ये विचार हिजाब, घूंघट और नकाब पर भी बराबर तौर से लागू होते हैं। ये परदा प्रथा किसी भी समाज और धर्म की आड़ में हो, हमारे संविधान के आधारभूत समता और सबको समान अवसर मिलने के सिद्धांत के सर्वथा खिलाफ है। स्कूलों के ड्रेसकोड से अलग हिजाब, भगवा पटके, हेडगियर या अंगवस्त्र सहित धार्मिक प्रतीक चिह्न पहनना कतई उचित नहीं है. ये अनुशासन के भी खिलाफ है।
मुस्लिम समाज के कथित नेता बाबासाहेब का नाम सृजनात्मक संदर्भों में लेते ही नहीं हैं। “भीम- मीम” का नारा नींद में भी उछालने वाले कुछ समाजतोड़क, देशतोड़क, विघ्नसंतोषी, कथित बुद्धिजीवी और अर्बन नक्सलाइट प्रकार के लोग भी इस संदर्भ में चुप्पी ही साधे रहते हैं। ये कथित लोग बाबासाहेब की, भीम-मीम की बातें रात दिन रटेंगे किंतु केवल समाज विभाजन के कुटिल दुराशय के साथ। जब समाज निर्माण, समाज सुधार, रीति-नीति संशोधन, परंपरा परिष्करण, की बात आती है तो इस कथिक समाज तोड़क, विभाजनकारी वर्ग को बाबासाहेब के विचार स्मरण में ही नहीं आते हैं। वस्तुतः इस पेटमरोड़ू वर्ग का लक्ष्य भारतीय मुस्लिम समाज के विकास का नहीं बल्कि मात्र “यूज एंड थ्रो” तक ही सीमित होता है। आज की दृष्टि से देखें तो “भीम-मीम” के नारे को तीन तलाक़ की बुराई के उन्मूलन के माध्यम से भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जीवंत और जागृत कर दिया है। नरेंद्र मोदी मुस्लिम स्त्रियों के संदर्भ में बाबासाहेब के लेखन व चिन्तन को अपने कार्यों व कृतित्व से साकार कर रहे हैं।