ऊर्जावान भारतीय युवा

ज्ञान का एक सिद्धांत है- ऊर्जा कभी भी नष्ट नहींहोती, उसका केवल रूप परिवर्तित होता है। युवावस्था अर्थात ऊर्जा। अत: यह कहना गलत होगा कि आज के युवाओं की ऊर्जा नष्ट हो रही है। ऊर्जा नष्ट नहीं हो रही है बल्कि उसका परिवर्तन हो रहा है। पहले युवा अखाडों में कसरत करते नजर आते थे या मैदानों में खेलते नजर आते थे। यहां उनकी ऊर्जा का रूपांतरण शारीरिक और मानसिक तंदुरुस्ती में होता था। आज के युवा कंप्यूटर या मोबाइल पर कैण्डीक्रश सागा जैसे गेम खेलते नजर आते हैं। यहां ऊर्जा का रूपांतरण कहां होता है पता नहीं। रूपांतरण होता भी है या व्यर्थ उत्सर्जन होता है इसकी मीमांसा करना भी आवश्यक है। आज केवल ये गेम नहीं हैं जो युवाओं को भटका रहे हैं। अन्य कई लालच मुंह बाये खड़े रहते हैं जिनके प्रति युवा आकर्षित हो उठते हैं और अपने रास्ते से भटक जाते हैं। अत: आवश्यक है कि उनमें सही गलत की पहचान करने की समझ उत्पन्न की जाये।
सेना में भर्ती होनेवाले सैनिक भी युवा ही होते हैं और जिन लोगों का ‘ब्रेनवाश’ करके उन्हें आतंकवादी बनाया जाता है वे भी युवा ही होते हैं। दोनों ही दूसरे की जान लेने और अपनी जान देने के लिए तत्पर होते हैं। दोनों को ही अपने मिशन की और अपनी भूमिका की पूर्ण जानकारी होती है। उस मिशन के लिए वे मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार होते हैं परंतु फिर भी हम सैनिक की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हैं, उसे श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और किसी आतंकवादी की मौत पर खुशी व्यक्त करते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि एक का उद्देश्य सकारात्मक है और दूसरे का नकारात्मक। एक मानवता की रक्षा के लिए लड़ता है और दूसरा उसके हनन के लिए। सेना में जवानों को मातृभूमि के प्रति प्रेम और उसकी रक्षा के लिए प्रेरित किया जाता है जबकि आतंकवादी संगठन धर्म की आड़ लेकर युवाओं को भड़काते और उनके सामर्थ्य का गलत इस्तेमाल करते हैं। पाकिस्तान में हुई हाल ही की घटना इसका ताजा उदाहरण हैं जिसमें आतंकवादियों ने स्कूल में पढनेवाले मासूम बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। इन आतंकवादियों की उम्र भी २०-२२ साल के बीच है। इतनी कम उम्र में उनके अंदर कितना जहर भरा होगा कि उन्हें बच्चों की मासूमियत पर भी तरस नहीं आया। तात्पर्य यह है कि ऊर्जा के वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए उसे आवश्यक रूप में मोड़ना होता है।
भारत का युवा शारीरिक मेहनत से कतराने लगा है। वातानुकूलित कमरों में आरामदेह कुर्सी पर बैठकर कंप्यूटर पर काम करना इनका पसंदीदा क्षेत्र बन गया है। जिसे देखो वह या तो इंजीनियर बनना चाहता या डॉक्टर या फिर एम.बी.ए.। अब जैसी मांग वैसी आपूर्ति। देश में मेडिकल, इंजीनियरिंग और मेनेजमैंट के कॉलेज कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, जहां से किसी फैक्टरी के उत्पाद की तरह हर साल हजारों इंजीनियर, डॉक्टर निकलते हैं। अब इनमें से सफलता (अर्थात अच्छा पैसा और अच्छी कंपनी में नौकरी) का प्रतिशत देखा जाए तो शायद ५०% ही होगा। जो बाकी ५०% असफल बचते हैं वे दूसरों को देखकर निराश होते हैं और बढ़ने लगते हैं नकारात्मक प्रवृत्तियों और गलत रास्तों की ओर। फिर भी ‘सफलता’ के पैमाने नहीं बदलते। इन सब का क्रेज इतना बढ़ गया है कि एक किसान भी यही चाहता है कि संभव हो सका तो वह अपने बेटे को बड़ा साहब बनाएगा। किसान नहीं, क्यों? खेती करने में क्या बुराई है? हमारा देश कृषि प्रधान देश कहलाता है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में खेती और किसानों की खस्ता हालत और समाज के इन लोगों के प्रति बदलते दृष्टिकोण ने इनमें इतना न्यूनगंड विकसित कर दिया है कि कोई युवा नहीं चाहता कि वह किसान बने।
युवाओं के दिशाहीन होने और अपने गंतव्य से भटकने के लिए कई परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। खाली समय में ये युवा अपना समय टीवी और इंटरनेट के संपर्क में आते हैं। इन सभी में दिखाई जानेवाली क्रूरता और अश्लीलता का परिणाम धीरे-धीरे उनके मन पर होने लगता है। संस्कारों के अभाव में मन में उठनेवाले प्रश्नों और आवेशों की अभिव्यक्ति के लिए ये युवा गलत मार्गों का अनुसरण करने लगते हैं। बलात्कार, अपहरण, हिंसा, मादक पदार्थों का सेवन इत्यादि सभी इसी के परिणाम हैं। टीवी और फिल्मों के कलाकारों का अंधानुकरण करने के कारण ये युवा अपने स्वास्थ्य के खिलवाड करते हैं, पैसों का अपव्यय करते हैं और अपना अनमोल समय भी बरबाद करते हैं।
युवाओं के मार्ग से भटकने का सीधा संबंध धन से है। जितने युवा आपराधिक कार्यों में लिप्त होते हैं उनमें से अधिकतर या तो धनाढ्य परिवारों से संबंधित होते है या फिर अत्यधिक गरीब परिवार से। एक के पैसा खर्च करने पर कोई रोक नहीं होती और दूसरा पैसा प्राप्त करने के लालच में ये काम करने लगता हैं। आतंकवादी संगठनों ने भी युवाओं की इसी नब्ज को पकड़ रखा है। इसी के आधार पर वे अधिकतर युवाओं से अपने सारे काम करवाते हैं। जिहाद, लव जिहाद आदि का आधार धर्म तो है ही साथ ही साथ धन भी है।
भारत के कृतिशील संत नरेन्द्रनाथ दत्त अर्थात स्वामी विवेकानंद ने आदर्श युवक के कुछ गुण समाज के सम्मुख रखे थे। या यों कहें कि वे जिस आदर्श युवक का स्वप्न देखते थे उसमें निम्न गुणों का समावेश चाहते थे-चेहरे पर तेज, शरीर में शक्ति, मन में उत्साह, बुद्धि में विवेक, हृदय में करुणा, मातृभूमि के प्रति प्रेम, इंद्रियों पर संयम, स्थिर मन, दृढ़ आत्मविश्वास, प्रबल इच्छाशक्ति, निर्भीकता, उच्च ध्येय, सत्य ही जिसका ईश्वर है, व्यसनों से मुक्त, अनुशासित जीवन, स्वभाव में सहज प्रेम, मानवता ही धर्म, गुरुजनों के प्रति आदर, पालकों के प्रति श्रद्धा, दीन-दुखियों का मित्र, सेवा के लिए तत्पर, ईश्वर में आस्था, नीतिमत्ता, शुद्ध चरित्र। आज के युवा में इन सभी गुणों की कल्पना करना शायद अतिशयक्ति होगी परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि अब युवाओं से अपेक्षा नहीं है। परिस्थिति चाहे जो हो युवाओं से अपेक्षा होती ही है, और आज हमारा देश जिस दौर से गुजर रहा है वहां तो युवा शक्ति का सामर्थ्यवान होना अधिक आवश्यक है।
आज लगभग आठ दशकों के बाद फिर एक नरेन्द्र अर्थात हमारे प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी युवाओं से ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं। वे अक्सर अपने भाषणों के दौरान युवाओं का उल्लेख करते हैं। वे युवाओं को देश की ताकत मानते हैं। वे विदेशों में जाकर सीना ठोंककर ये कहते हैं कि जिस देश को लोग सपेरों का देश कहते थे आज उस देश के युवाओं ने चूहे (अर्थात कंप्यूटर के माउस) की मदद से सारी दुनिया में अपनी पहचान बना ली है। यह बात हर मायने में सही है। भारत के युवा आज कई विदेशी साफ्टवेयर कंपनियों को अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। कुछ विदेशी कंपनियों में तो भारतीय युवा कर्मचारियों का प्रतिशत ६० से भी अधिक है। ये आंकड़े केवल साफ्टवेयर क्षेत्र से ही संबंधित नहीं हैं। इंजीनियरिंग, चिकित्सा इत्यादि क्षेत्र में भी युवाओं की भागीदारी अत्यधिक है।
इन क्षेत्रों में जो कमाल हमारे युवाओं ने किया है वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय है परंतु जैसा कि पहले भी उल्लेख किया है केवल इन्हीं क्षेत्रों में भविष्य तलाशना सही नहीं है। युवाओं को अपने और देश के भविष्य के संतुलन को ध्यान में रखकर अन्य क्षेत्रों में भी अपने कौशल्य का प्रयोग करना होगा।
कई बार समाज की यह धारणा होती है कि आजकल युवाओं को केवल अपनी जिंदगी की ही परवाह होती है। वे समाज से बेखबर होते हैं, परंतु यह सौ फीसदी सच नहीं हैं। सामाजिक स्तर पर भी यह युवा जागरूक हैं। समय-समय पर हमने युवाओं को एक होकर अपने हक के लिए खड़े होते, आंदोलन करते देखा है। दिल्ली में घटी निर्भया घटना के बाद किया गया आंदोलन हो या भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ अण्णा हजारे द्वारा किया गया आंदोलन हो, दोनों में ही युवाओं की भागीदारी जबरजस्त थी। इन दोनों के द्वारा युवाओं ने समाज की गलतफहमी को दूर कर दिया है।
भारतीय युवा आज भी उत्साह, स्फूर्ति और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। आवश्यकता है तो बस सही मार्गदर्शन की। समाज को उनसे जो अपेक्षाएं हैं उसे समय-समय पर युवाओं के मन पर अंकित करने की। उन्हें अपने कर्तव्यों का बोध कराने की।
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर अपने भाषणों में एक ऐसे गरीब युवक का किस्सा सुनाते हैं जो पोलियो से ग्रसित था। पोलियो के कारण उसके कमर के नीचे का हिस्सा निष्क्रिय था। परंतु उसने अपना आत्मसम्मान न खोते हुए लोगों के जूते-चप्पल पालिश करने का काम शुरू किया। जब वह पालिश करता तो उस व्यक्ति को अखबार पढ़ने के लिए दे देता। जितनी देर में उसकी पालिश होती उतनी देर में वह व्यक्ति अखबार की लगभग सभी मुख्य खबरें पढ चुका होता था। उससे जब इस बारे में पूछा गया तो बोला कि वह सुबह ढाई या तीन रुपये में अखबार खरीदता है। वही अखबार दिनभर लोगों को पढ़ने के लिए देता है। उसे तो केवल एक ही बार निवेश करना होता है परंतु लोगों को यह लगता है कि वे अगर उसे पालिश के १० रुपये दे रहे हैं

तो तीन रुपये का अखबार भी पढ़ रहे हैं। वे उस युवक को पैसों के साथ-साथ उसके काम के लिए शुभकामनाएं भी देते थे। शारीरिक दुर्बलता होने के बावजूद अपने दम पर खड़े होने की भावना एक मिसाल है जो इस युवक ने पेश की। हमारे देश के सभी युवाओं के लिए यह एक प्रेरणा है। खासकर उन युवाओं के लिए जो सभी सुविधाएं मिलने का बाद भी गलत रास्तों की ओर कदम बढ़ा लेते हैं।
दुनिया के समस्त देशों की तुलना में भारत की आबादी अधिक है। इसे हम बहुत बड़ा नाकारात्मक बिंदु मानते हैं। परंतु हम यह सोचें कि आबादी अधिक होने के कारण हमारे यहां युवाओं और बच्चों की संख्या अधिक हैं। जब दुनिया के देशों में कम आबादी के कारण युवाशक्ति की कमी होगी ऐसे समय में भारत एक ऐसे सशक्त देश के रूप में खडा होगा जिसके पास युवाशक्ति का भंडार होगा। हमें इस शक्ति का उपयोग करने के लिए उसका भी संसाधनों की तरह ही जतन करना होगा। उनके विकास के लिए आवश्यक सुविधाएं मुहैया करानी होंगी। उद्योगों और व्यापार को बढ़ावा देना होगा जिससे वे दूसरे देशों में जाकर अपनी सेवाएं खर्च करने की बजाय अपने देश में ही अपनी ऊर्जा का उपयोग करें। इससे उन्हें भी लाभ होगा और देश भी सशक्त बनेगा। ‘युवाओं की ऊर्जा नष्ट हो रही है’ का राग आलापने की जगह उनके कारणों को ढूंढ़ कर उन्हें सन्मार्ग पर लाने के प्रयास करने होंगे।
यहां यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि ये प्रयास अत्यंत प्रभावी और तर्कशुद्ध होने चाहिए, क्योंकि आज की युवा पीढी तर्क के आधार पर की गई बातों को सरलता से अपनाती है। अगर युवा पीढ़ी को उनके सभी प्रश्नों के उत्तर मिले, उन्हें अपेक्षित आर्थिक व भावनात्मक सहयोग मिले और प्रभावी दिशा निर्देश मिले तो निश्चित रूप से वह एक ऐसी शक्ति बनकर उभरेगी जिसका स्वप्न स्वामी विवेकानंद ने देखा था।

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