हर क्षेत्र के अपने कुछ नियम-कानून, दांव-पेंच होते हैं। राजनीति में कूटनीति भी एक दांव है। पिछले 6 दशकों तक कांग्रेस ने इसका भरपूर उपयोग किया था और अब मोदी-शाह उनके नहले पर दहला मार रहे हैं, जो उनको हजम नहीं हो रहा है। 400 पार के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई राज्यों की स्थानीय पार्टियों की आवश्यकता होगी, यह वे अच्छी तरह से जानते थे और ये पार्टियां यदि कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लेती हैं तो उसकी हानि भाजपा को उठानी होगी, ये भी वे जानते थे।
कहते हैं ‘प्यार और जंग में सब कुछ जायज है’। अब समय आ गया है कि इस कहावत में थोड़ा और सुधार करके इसे ‘प्यार, जंग और चुनावों में सब जायज है, कर देना चाहिए। हाल ही में 18 वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए हैं। पत्रिका का यह अंक पाठकों तक पहुंचते-पहुंचते परिणाम भी आ चुके होंगे और विजयी गठबंधन सरकार बनाने की तैयारी कर रहा होगा। पांचवे चरण तक जिस तरह की हवा बह रही थी, उससे तो यह साफ दिखाई दे रहा था कि नरेंद्र मोदी तीसरी बार भारत के प्रधान मंत्री बनेंगे। 4 जून को केवल यह पता चल जाएगा कि जीत का आंकड़ा 400 पार हुआ या नहीं।
इसके विपरीत परिणाम आना कोई बहुत बड़ा चमत्कार ही कहा जाएगा, जिसकी राह तो विपक्ष बड़ी आशा से तक रहा था, परंतु उसके लिए प्रयत्न नहीं कर रहा था। विशेष बात तो यह रही कि राहुल गांधी के अलावा उनके पास ‘स्टार’ कहलाने लायक कोई प्रचारक ही नहीं था और राहुल गांधी के लिए तो हेमंत बिस्वा शर्मा ही काफी रहे। मोदी पर किया गया राहुल का हर वार बूमरैंग की तरह वापस आकर उनके गठबंधन को ही चोट पहुंचा जाता। देश में इतना कमजोर विपक्ष शायद ही कभी रहा हो। इस चुनाव के बाद के चिंतन में विपक्ष को इस बात पर विचार करना चाहिए कि देश में मोदी सरकार का आना लोकतंत्र को खतरा है या विपक्ष का इतना कमजोर होना।
अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के विरुद्ध लड़ने वाली आप, तृणमूल और समाजवादी पार्टी दूसरे राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाकर लड़ती दिखाई दी। जनता इससे और भ्रमित थी कि कौन कहां साथ है और कौन कहां विरुद्ध। इसके विपरीत राजग गठबंधन सभी राज्यों में समान रूप से लड़ा, लेकिन राजग में भाजपा ने कुछ ऐसी पार्टियों के साथ गठबंधन किया था, जिनके जमीनी कार्यकर्ता एक दूसरे के धुर विरोधी थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र रहा, जहां शिवसेना और राकांपा से हाथ मिलाने के कारण भाजपा को कई जगहों पर इन पार्टियों के ऐसे उम्मेदवार खड़े करने पड़े, जो पहले भाजपा के विरोधी थे और उसे नीचा दिखने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, परंतु गठबंधन के कारण मोदी को जिताने के लिए भाजपा समर्थकों को मन मानकर उन्हें वोट देना पड़ा।
गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, परिवारवाद, मुस्लिम तुष्टिकरण ये तो हमेशा से ही चुनावी मुद्दे रहे हैं और इस बार भी रहें। कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण की अपनी आदत को इस बार भी नहीं बदल सकी और परिवारवाद से तो कोई पार्टी अछूती नहीं रही, परंतु इस बार इन मुद्दों को राम मंदिर, भारत की वैश्विक स्तर पर बढ़ती साख और दृढ़ होती अर्थव्यवस्था ने किनारे कर दिया। राम मंदिर को लेकर कांग्रेस का जैसा रुख रहा और अपनी सरकार आने पर उस पर पुनर्विचार करने की जो बात कांग्रेस के बड़बोले नेता कररहे थे वह लोगों को रास नहीं आई।
इस चुनाव की कुछ विशेष बातें रहीं मतदान का प्रतिशत कम होना और महिलाओं की ओर विशेष ध्यान। चुनावों की तारीखों की घोषणा होने के बाद से 100 प्रतिशत मतदान के लिए काफी प्रयास किए गए थे, लेकिन मतदान का प्रतिशत अपेक्षानुरूप नहीं रहा। इसका असर वोट मार्जिन पर निश्चित रूप से दिखाई देगा। भीषण गर्मी, छुट्टियों में लोगों का घूमने चले जाने जैसे गैर जिम्मेदार कारणों के साथ ही एक कारण यह भी सुनने में आया कि ‘आएंगे तो मोदी ही तो मतदान क्यों करना?’ किसी भी प्रकार के लोभ, लालच, झांसे या अनुमान में फंसे बिना मतदान करने के अपने दायित्व को जनता पूरी तरह से नहीं निभा सकी, लेकिन जितना भी मतदान हुआ उसमें महिलाओं का प्रतिशत काफी अच्छा रहा। सभी पार्टियों ने इस बार अपने चुनावी घोषणा पत्रों में महिलाओं के लिए बहुत सारे काम करने की बात कही थी और सभी पार्टी के उम्मीदवारों का 10 प्रतिशत लगभग महिलाएं थी। अब इसे इन घोषणा पत्रों का असर कहें या महिलाओं में आई जागृति कि महिलाओं ने बड़ी संख्या में मतदान किया। मतदान प्रतिशत में जहां सारे देश में कमी थी, तो कश्मीर में वोट प्रतिशत पिछले चुनावों की अपेक्षा अधिक रहा और चुनाव भी शांतिपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुए। ये उन लोगों के लिए झटका है जो कहते थे कि धारा 370 हटने के बाद घाटी में जनजीवन सामान्य नहीं रह पाएगा।
हर क्षेत्र के अपने कुछ नियम-कानून, दांव-पेंच होते हैं। राजनीति में कूटनीति भी एक दांव है। पिछले 6 दशकों तक कांग्रेस ने इसका भरपूर उपयोग किया था और अब मोदी-शाह उनके नहले पर दहला मार रहे हैं, जो उनको हजम नहीं हो रहा है। 400 पार के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई राज्यों की स्थानीय पार्टियों की आवश्यकता होगी, यह वे अच्छी तरह से जानते थे और ये पार्टियां यदि कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लेती हैं तो उसकी हानि भाजपा को उठानी होगी, ये भी वे जानते थे। अत: बिहार हो या दक्षिण के राज्य या महाराष्ट्र में शिवसेना और राकांपा उन्होंने अपने जमीनी और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को रुष्ट करके गठबंधन किया। पंजाब में कांग्रेस के आधे से अधिक कार्यकर्ता भाजपा में आ गए और दिल्ली में आप अनाथ हो गई। हालांकि केजरीवाल को प्रचार करने के लिए जमानत मिल गई, लेकिन तब तक उनके इतने सारे कारनामे जनता के सामने आ चुके थे कि जनता सोचने पर विवश थी।
सारांश के रूप में यह कहा जा सकता है कि भाजपा या कहें राजग अव्वल आने के लिए परीक्षा दे रहा था और इंडी गठबंधन फेल होने से बचने की कोशिश कर रहा था। चूंकि दोनों ने ही अपेक्षित-अनपेक्षित हर तरह के पैतरें अपनाए थे, इसलिए ये कहा जा सकता है कि प्यार, जंग और चुनाव में सब जायज है।