वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व के लिए चिंता और चर्चा का विषय बना हुआ है, लेकिन इस संदर्भ में इतनी संवेदनशीलता भारतीय राजनेताओं में दिखाई नहीं देती। यहां तक की भारतीय राजनीति में यह कोई मुद्दा भी नहीं है। भावी पीढ़ी की रक्षा हेतु यह स्थिति बदलनी होगी।
सम्पूर्ण विश्व की मानव जाति के सम्मुख अगली चुनौती जलवायु और पर्यावरण परिवर्तन है। यह दशक क्या वैश्विक संकट का मुख्य केंद्र होगा? क्या हम इसके लिए तैयार हैं? इस प्रश्न का उत्तर यही होगा कि हम तैयार नहीं हैं, क्योंकि पर्यावरण सम्बंधी सुधार कार्य करने में जो गति आवश्यक है वो रफ्तार हम नहीं ले पा रहे हैं, इस कारण आनेवाले भविष्य में इसके गम्भीर दुष्प्रभाव होने की सम्भावना है। इन सम्भावनाओं के चिन्ह हम भारत और विदेशों में हो रही पर्यावरणीय घटनाओं से पहचान सकते हैं। इस वर्ष भीषण रिकॉर्ड तोड़ गर्मी के कारण मानव जाति का जीवन बेहाल हो रहा है। उत्तराखंड के जंगलों में फैली अग्नि ने लगभग 1200 हेक्टेयर जंगलों की वन सम्पदा और वन्य जीवों को नुकसान पहुंचाया है। फ्लोरिडा में हुई असमय बारिश और तूफान ने भयानक विध्वंस मचाया है। सूखे के कारण जल संकट का मामला तो भारतीयों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनते जा रहा है। आज जलवायु परिवर्तन का असर सम्पूर्ण दुनिया में महसूस होने लगा है।
2015 के पेरिस सम्मेलन में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य निश्चित किया गया था। सम्मेलन में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर किए जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रभावी कार्रवाई की जानी चाहिए, यह प्रस्ताव पारित किया गया था। पेरिस जलवायु समझौते को 8 साल बीत चुके हैं। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य यही इस संकट से निकलने का रास्ता है और दुर्भाग्य से सम्पूर्ण विश्व में यह कार्य तेज गति से नहीं हो रहा है।
इस साल संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 सालों में भारी बारिश के कारण 20 लाख लोगों की मौत हो चुकी है। 4.3 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ है। 2010 से अब तक के मानव इतिहास में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सबसे अधिक वृद्धि देखी गई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार तीन प्रमुख संकट है, जिनमें जैव विविधता हानि, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण शामिल हैं। यह तीनों संकट आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। 2024 की अब तक के सबसे गर्म वर्ष का रिकॉर्ड तोड़ने की सम्भावना है। यदि 2 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान बढ़ने की लटकती तलवार गिर जाए, तो पृथ्वी पर जीवन समाप्त हो जाएगा, ऐसी आशंका जताई जा रही है। ऐसी स्थिति में छठवीं वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश और पाकिस्तान के बाद भारत तीसरा सबसे प्रदूषित देश है।
पर्यावरण से जुड़ी इन रिपोर्टों का उपयोग सबसे बड़े वैश्विक प्रभाव वाले संकटों की पहचान करने और किस क्षेत्रों को कारवाई के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए, यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है। पर्यावरण सम्बंधी यह रिपोर्ट दुनिया के सामने मौजूद चुनौतियों पर प्रकाश डालती है। अपेक्षा यह होती है कि दुनिया इससे सबक ले और अधिक स्थिर एवं सुरक्षित दिशा में आगे बढ़े। पर्यावरण परिवर्तन से जुड़ी यह चुनौतियां सम्पूर्ण विश्व के मानव जाति के लिए एक आह्वान है। विश्व की सम्पूर्ण मानव जाति में भारत देश भी आता है? मैं यह प्रश्न इसलिए उठा रहा हूं कि मानव जाति पर मंडरा रहा यह पर्यावरणीय संकट हमारी चुनावी सरगर्मी में कहीं महसूस नहीं हो रहा है।
वर्तमान में भारत के लगभग एक अरब मतदाता चुनाव में जाने के लिए तैयार हो रहे हैं, आलेख लिखते समय कई राज्यों, शहरों में पांचवें चरण तक मतदान हो गया होगा। क्या अपने भविष्य को सुरक्षित करने हेतु मतदान करते समय भारत के मतदाता और राजनीतिक मान्यवर पर्यावरण के संदर्भ में जागृत हैं? यह साफ होता जा रहा है कि मौजूदा सभी राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व के पास पर्यावरणीय जैसे गम्भीर समस्या का न तो कोई समाधान है और न ही समाधान ढूंढने की कोई इच्छाशक्ति उनमें दिखाई देती है। अधिकांश राजनीतिक पार्टिंयों के चुनावी घोषणापत्रों में पर्यावरण से सम्बंधित काम चलाऊ उल्लेख होता है। कारण, अधिकांश राजनीतिक पार्टियां इस बात को अच्छी तरह समझती हैं कि प्रदूषण, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन कोई वोट दिलाने वाले मुद्दे नहीं हैं। इसी सोच के कारण अधिकांश पार्टियां इस अत्यंत गम्भीर मुद्दों की अनदेखी करती हैं। पर्यावरणीय मुद्दा वोट दिलाने वाला मुद्दा नहीं है, ऐसा राजनीतिक नेताओं को लगता है, तो इसमें राजनीति करने वाले नेताओं के साथ-साथ यहां की अज्ञानी जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है। सभी की अनदेखी के कारण पर्यावरण सम्बंधी विषय सत्ताधारी और विरोधी पार्टिंयों के बीच राजनीतिक प्रतियोगिता का मुद्दा भी नहीं बन पाता है।
इस चुप्पी को तोड़ने का एक ही राजनीतिक तरीका है। हमें जमीनी स्तर पर कार्रवाई के लिए सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों की आवश्यकता है। इतिहास बताता है कि बड़े सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक जन आंदोलन आवश्यक होता है। देश में प्रदूषण और पर्यावरण जैसे मुद्दे पर एक बड़े बदलाव के लिए वातावरण तो तैयार है, पर इस वातावरण को भांपने वाली ऐसी राजनीतिक पार्टियों का जन्म होना आवश्यक है, जिससे राजनीति में पर्यावरण से जुड़े नए मुद्दे उभरे, राजनीतिक प्रतियोगिता बढ़े और उसके कारण राजनीति पर्यावरण की ओर रूख मुड़े।
52 साल पहले 1972 में लोकसभा ने पहला पर्यावरण बिल पास किया था। संयोग से उसी समय स्वतंत्रता के 25 साल पूरे हुए थे। लोकसभा ने वन्यजीव (संरक्षण) विधेयक, 1972 पारित किया, जो स्वतंत्र भारत का पहला पर्यावरण कानून था। इसके अलावा 1972 में ही पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना हुई थी। 1972 में ही स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने इस विषय पर अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था। ‘गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक है’ उनका यह सम्बोधन पर्यावरणविदों की एक पीढ़ी का मूलमंत्र बन गया था। वर्तमान में जब हम आजादी का अमृत महोत्सवी वर्ष पूरा कर चुके हैं तो यह देखना महत्वपूर्ण है कि आज हम कहां है और किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। हमने पर्यावरण के महत्वपूर्ण मोर्चे पर जन जागरण की कुछ हद तक प्रगति की है, लेकिन हम काफी मुद्दों पर असफल भी रहे हैं। आज हम पर्यावरण की रक्षा और जलवायु संकट को हल करने की आवश्यकता पर सहमत है, लेकिन हमारे कानूनों और उनके कार्यान्वयन में व्यापक अंतर है। आज देश में पर्यावरणीय कानूनों को आसानी से तोड़ा जाता है। इसका मुख्य कारण खराब तरीके से बनाए गए कानून और कमजोर संस्थान हैं।
संक्षेप में कहें तो पिछले पांच दशकों का अनुभव हमें आधे-अधूरे प्रयासों और टुकड़ों-टुकड़ों के समाधान से बचना सिखाता है। यह आज और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारी चुनौतियां कहीं अधिक जटिल होती जा रही हैं।
पहली बार मतदान करने वाले भारत के युवाओं के जलवायु सम्बंधी ज्ञान को जांचने के लिए पर्यावरण हित में कार्य करने वाली संस्था की ओर से एक सर्वे किया गया था। महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल सहित देश के सात शहरों में 18 से 22 वर्ष के कुल 1600 फर्स्ट टाइम वोटर्स का सर्वेक्षण किया गया। सर्वे क्षण में जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के संदर्भ में वर्तमान युवाओं की सजकता पर लक्ष्य केंद्रित किया गया है। जिसके आधार पर वे राजनीतिक दलों एवं उसके उम्मीदवारों का चयन करेंगे। सर्वेक्षण में शामिल 52.2 प्रतिशत युवाओं ने कहा है कि जलवायु संकट को लेकर सरकार को लोगों को शिक्षित और जागरूक करने की जरूरत है। भारतीय युवक पर्यावरण के हितों को ध्यान में लेकर अपना राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ट कर रहा है। ऐसे समय में राजनीतिक दृष्टिकोण अंधकार में क्यों है?भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इस साल राष्ट्रीय चुनाव चल रहे हैं। आलेख लिखते समय चुनाव के पांचवे चरण तक हम पहुंचे हैं और चुनाव के निर्णय की तिथि नजदीक है। इन राष्ट्रीय चुनावों के संदर्भ में एक विचार मन में आता है कि क्या इन चुनावों में पर्यावरण के संदर्भ में जो चुनौतियां हमारे सामने मौजूद हैं, उनमें सकारात्मक परिवर्तन लाने की क्षमता है? यह चुनाव अगले पांच वर्षों तक नीतियां और कानून बनाने के लिए 543 सांसदों का चुनाव करेगी, पर इनमें से कितने सांसद पर्यावरण के विषय में जागृत हैं? यह देश के समक्ष उपस्थित गम्भीर मुद्दों के साथ पर्यावरण से जुड़े विषयों से निपटने के लिए आवश्यक परिवर्तन के संदर्भ में एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
विश्व की जनसंख्या की तुलना में भारत की जनसंख्या यद्यपि 17 प्रतिशत है, कार्बन उत्सर्जन विश्व का अधिकतम पांच प्रतिशत है, फिर भी प्रधान मंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र से वादा किया है कि भारत 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। भारत ने पहले ही दिखा दिया है कि कार्रवाई के माध्यम से एक निश्चित लक्ष्य पहले ही प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि भारत ने निर्धारित समय से 9 साल पहले ही गैर-जीवाश्म ईंधन से 40 प्रतिशत बिजली उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। पिछले पांच वर्षों में भारत की पवन और सौर ऊर्जा क्षमता दोगुनी हो गई है। जलविद्युत सहित, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन 135 गीगावॉट तक पहुंच गया है, जो कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता का 42 प्रतिशत है। मोदी के नेतृत्व में पर्यावरण के लिए सक्रियता जारी रहेगी। हाल ही में पेश अंतरिम बजट में सौर और पवन बुनियादी ढांचे के विस्तार, हरित हाइड्रोजन और इलेक्ट्रिक वाहनों में निवेश बढ़ाने की घोषणा की गई है। इसमें 10 मिलियन घरों को सौर छत से लैस करना भी शामिल है, लेकिन पर्यावरण के भयानक संकट को देखते हुए यह उपाय उतने कारगर सिद्ध नहीं हो सकते। जन-जन में पर्यावरण के संदर्भ में जागृति, संसद में बैठने वाले सांसदों का पर्यावरण के संदर्भ में सजग होना अत्यंत आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन यह राजनीति का सबसे गर्म मुद्दा होना अत्यंत आवश्यक है, जो वर्तमान समय में नहीं के बराबर है।
भारत की सिलिकॉन वैली और कृत्रिम बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण बेंगलुरु इस समय प्यास से बेहाल है। यहां की कृत्रिम बुद्धिमत्ता भी इस प्यास को नहीं बुझा सकती। मुंबई, दिल्ली, नोएडा जैसे कई शहरों के प्रदूषण का स्वास्थ्य पर गम्भीर असर पड़ रहा है। पर्वतीय क्षेत्र में तेजी से पिघलते हिमखंड के कारण आस-पास बसी मानव जाति का अस्तित्व संकट में है।
मतदाता यह जान ले कि उनकी आने वाली पीढ़ियां यानी उनके बच्चों, उनके पोते-पोतियों पर पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं का प्रभाव बहुत गम्भीर होने वाला है। पर्यावरण समस्या एक वैश्विक समस्या है और आज यह हमारे घर की चौखट तक पहुंच चुकी है। यह एक गंभीर भारतीय मुद्दा भी है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारतीय राजनीति के नायकों को नए कौशल दृष्टि से इस गम्भीर मुद्दे को भारतीय राजनीति में, चुनाव अभियानों में सक्रिय रूप से शामिल करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है। इसलिए युवाओं और जन-जन में इस संकट के समाधान के लिए सक्रीय समझ निर्माण करने में राजनीतिक योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
ऐसे में हमें अपने राजनीतिक मुद्दे और बहस पर्यावरण से जुड़े विषयों पर केंद्रित करना अत्यंत आवश्यक है। यही सही समय है, क्योंकि यहां अत्यधिक टेक्नोलॉजी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता उपयोग में नहीं आने वाली है, तो हमारी सजगता और प्रामाणिक नीतियां ही उपयोग में आने वाली है। वर्तमान में भारत के पास समस्याओं को अवसर मानने का नेतृत्व उपलब्ध है और वैश्विक स्तर पर भारत ने इसका प्रमाण भी दिया है। यह सकारात्मक उपलब्धि है। पर्यावरणीय विकास विकल्प में समय की आवश्यकता अनुसार राजनीतिक सहयोग बढ़ाने और उनमें निरंतरता बनाए रखना आवश्यक है। यदि ऐसा होता है तो भारत विश्व के लिए अनुकरणीय राष्ट्र बन सकता है।