फिर तो इस शायर ने आखरों में ग़ुम होकर ऐसा लिखा कि बड़े-बड़े हस्ताक्षरों ने उनके बारे में बात जी, बड़े-बड़े गायकों ने उनकी ग़ज़लों को गाया,विश्वविद्यालयों में उनकी ग़ज़लों पर शोध हो रहे है। हस्ती जी के लिए मुनव्वर राणा ने कहा – ‘‘हस्तीमल हस्ती मुझे इसलिए पसंद हैं कि जब वे फुर्सत के लम्हों में पत्थर शब्दों को हीरा बनाकर महबूब के आंचल पर टांक देते हैं, तो ग़ज़ल नयी नवेली दुल्हन सी लगने लगती है। जब वे ज़िंदगी के तज़रूबात को उंगलियों से रेत पर लिखने की कोशिश करते हैं, तो अदब उनको सलाम करता हैं।
11 मार्च 1946 को राजस्थान के आमेर जिले के शहर राजसमंद में एक बच्चे का व्यावसायिक परिवार में जन्म हुआ ,किसे पता था ये बच्चा व्यापर में सोने का पारखी होने के साथ आखरों को भी परखेगा ,और गहनों की तरह शब्दों को भी गढ़ेगा! राजस्थान से मुंबई आकर यहां जमने का संघर्ष साथ ही एक ऐसी विद्या में पारंगत होना, जिसमे बाक़ायदा सीखना पड़ता है और इस कदर सीखना कि उस विद्या के वर्तमान के पन्ने, फिर भविष्य के पन्ने अधूरे रहेंगे, एक नाम के बगैर, वो नाम है, ‘हस्ती मल‘ हस्ती। हस्ती जी का पंचतत्व से बना शरीर 24 जून 2024 को पंचतत्व में विलीन हो गया ,एक शून्य सा पैदा हुआ ,लेकिन उनकी ग़ज़लें ,हमेशा उन्हें अमर रखेंगी।
महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी गजल के पर्याय बन चुके हस्तीमल हस्ती जी को अखिल भारतीय हिंदी सेवी सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके पूर्व इनके ग़ज़ल संग्रह ‘‘क्या कहें, कैसे कहें को’’ संत नामदेव सम्मान मिला। 70 के आसपास हस्ती जी स्वयं बहर का ककहरा सीख रहे थे, वे तब भी उतने ही सहज और सरल थे हमेशा एक प्यारी सी मुस्कान उनके अधर पर होती थी। जो उनकी, उनके साथ आखिरी मुलाकात तक मैंने देखी। जो इस बात का प्रमाण थी कि सरल और सहज व्यक्ति ही अच्छी और सार्थक शायरी कर सकता है, दिल से दिल की बात कर सकता है। उनके संग्रह नए परिंदे, प्यार का पहला खत, कुछ और तरह से भी ना बदल ना दरिया जाने, यादों के गुलाब आदि को पाठक हाथों हाथ लेता रहा। उन पर विशेषांक निकला तो बच्चों सहित सभी लोगों ने तुरंत खरीदा। जिस तरह दुष्यंत कुमार आसान हिंदी में बड़ी-बड़ी बातें कह देते थे,बिल्कुल वही बात हस्ती जी की गजलों में हमेशा मिलती रही और इसीलिए दुष्यंत कुमार की यह पंक्ति ‘कौन कहता है आकाश में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ उन पर बहुत सटीक बैठती है।
हस्ती जी व्यवसायिक परिवार से थे, सालों पहले भी उनके घर में अखबार आता था, जिसमें रविवार का ‘पन्ना साहित्य’ से लबालब रहता था। पिताजी (सोहनलाल जी) को भी पढ़ने का शौक था। वे शहर से भी साहित्य की किताबें लाते थे, हस्ती और उनके दोस्त गांव के पुस्कालय से भी पुस्तकें लाते, आपस में आदान-प्रदान करते और खूब पढ़ते। चंद्रकांता संतति भी तभी पढ़ी। तब वे लिखते नहीं थे। बच्चों के लिए भी सामग्री आती थी। अंतरमन में अलग रंग खिलते थे। बचपन से ही बहुत संवेदनशील थे।
1962 में चीन और भारत युद्ध हुआ। उनके मन में आक्रोश उपजता और वे मन में उठी भावनाओं को काग़ज़ पर उतार देते। तभी एक टांगे वाले पर एक कहानी भी (मनोगत) लिखी। कारूणिक दृश्य था टांगेवाले का। उनके हिंदी शिक्षक बच्चों को बहुत प्रेरित करते थे। उन्होंने यह कहानी दी तो पूरे स्कूल में बात बड़ी फैली कि इसने कहानी लिखी। तब उनकी उम्र थी, तकरीबन 16 साल। शिक्षक बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार गाँव में ही लेखन का अंकुर रोपा जा चुका था। फिर हस्ती जी मुंबई आ गए, मुंबई आने पर सबकी तरह उन्हें भी संघर्ष करना पड़ा। इस पर उनका ही शेर है –
रोटियां तो वक्त पे दे देगी मेरी बंबई।
खूब भटकाएं, लेकिन खोलियों के वास्ते।।
यह उन्हीं संघर्ष के दिनों का शेर है। यहां साथी भी रूचि के मिलते गए और इनकी क़लम गद्य से पद्य की और मुड़ गई। छोटे-छोटे मुक्तक लिखने लगे। उन्हें यहां साहित्य के लिए बहुत ही अनुकूल माहौल मिला। यहां से ही धर्मयुग, रविवार सारिका, सब निकलती थीं। हालांकि इनमें वे छपे नहीं, चंदनमाल चांद जी थे, उन्हें दिखाया उन्होंने उसकी पुस्तक निकलवा दी। पर वे किसी को ज्यादा दिखाते नहीं थे, संकोच करते थे। पर बिरादरी में हां थोड़ी बहुत चर्चा शुरू हो गई, हस्ती जी की किताब आई है। इस तरह 1969 में उनके लेखन की शुरूआत हुई। मुंबई में छन्दरहित कविता का बड़ा चलन था, नवभारत टाइम्स वगैरह में छपने लगे। उन्हें अच्छा लगने लगा। उसी समय गुजराती ग़ज़ल की किताब ‘घटा’ हाथ लगी, फिर उन्हें लगा लिखना है तो बस अब तो ग़ज़ल लिखना है, ‘बाकी सब बेकार की बातें।’
बिना सीखे पहले 50-60 ग़ज़ल लिख भी लीं। किसी को सुनाते तो सब वाह-वाह कर देते। संयोग से मदन पाल मिले, उन्हें सुनाई, पहले तो उन्होंने भी सराहा, पर फिर कहा, बहर जिसे कहते हैं, ये उसमें है ही नहीं। इस पर उनका कच्चा कवि मन निराश हुआ। उसे पूछा बताओ कैसे लिखूं, कैसे सीखूं ? पहले उसने सोचा ये व्यापारी कहां ग़ज़ल सीख सकेगा? शोकिया लिख रहे हैं। फिर पीछे पड़ने पर उसने जो जानकारी दी, वो तो मैदान छोड़कर भागने वाली थी। उर्दू आती नहीं थी, कॉलेज का मुंह नहीं देखा, पर हस्ती जी नियति को मानते थे नियति को उन्हें ग़ज़लगो बनाना था, लोग मिलते गए। कभी छोड़ना चाहा तो फिर कोई मिल गया। अंतर्मन तो हमेशा ग़ज़ल लिखना चाहता ही था। कई गुरू मिले, पर सबसे बड़े मिले ताजदार ताज़। हस्ती जी कहते थे। सिर्फ बहर सीखने से काम नहीं होता और भी बारीकियां हैं। और कुछ तो लिख लेंगे आप, पर ग़ज़ल लिखने के लिए ग़ज़लमय होना पड़ता है। तब जाकर अलग-अलग रंग आते हैं। उस समय आप पूरी दूनिया से अलग होते हो। पता ही नहीं चलता आप कहां है?
फिर तो इस शायर ने आखरों में ग़ुम होकर ऐसा लिखा कि बड़े-बड़े हस्ताक्षरों ने उनके बारे में बात जी, बड़े-बड़े गायकों ने उनकी ग़ज़लों को गाया, विश्वविद्यालयों में उनकी ग़ज़लों पर शोध हो रहे है।
हस्ती जी के लिए मुनव्वर राणा ने कहा – ‘‘हस्तीमल हस्ती मुझे इसलिए पसंद हैं कि जब वे फुर्सत के लम्हों में पत्थर शब्दों को हीरा बनाकर महबूब के आंचल पर टांक देते हैं, तो ग़ज़ल नयी नवेली दुल्हन सी लगने लगती है। जब वे ज़िंदगी के तज़रूबात को उंगलियों से रेत पर लिखने की कोशिश करते हैं, तो अदब उनको सलाम करता हैं।
मोहब्बत सी मासूमियत है इस शेर में –
प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है।
नए परिन्दों को उड़ने में वक़्त तो लगता है।
ज़िंदगी पर जब लिखा – तो बह गए।
ज़िंदगी होम कर दी गुलों के लिए
और तरसते रहे खुशबुओं के लिए
राहत इन्दौरी ने उन्हें सलाम करते हुए लिखा – ‘हस्ती’ ने बज़ाहिर तो हिन्दी ग़ज़लें कहीं, लेकिन कई ग़ज़लों ने उर्दू के कीमती ख़ज़ाने को मालामाल करने में मदद की है।’’
गोपालदास नीरज ने कहा कि ‘‘ग़ज़ल की बहर तो हो ग़ज़ल, लहज़ा ना हो तो वह अच्छी तुकबंदी बन कर रह जाती है। इस कला में पूरी महारथ ‘हस्ती’ जी ने प्राप्त की है। उनकी ग़ज़ले तुरंत होठों पर बैठ जाती हैं। उनमें उत्सादाना रंग है।
हस्ती जी कहते थे ‘किसी भी लेखक को निरंतर पढ़ना चाहिए, दूसरों के रंग समझ आते हैं। घटनाएं जो देखते हैं वे भी अपने अंर्तमन में बैठ जाती हैं? लिखते वक्त बहर का ज्ञान है और आप गजलमय हो गए हैं, तो कैसे शेर बाहर निकलते हैं, पता हीं नहीं चलता। आमद होती रहती है। मीटर और ग़ज़ल सीखने के बारे में वे कहते थे कबीर या अमीर खुसरो पढ़े लिखे नहीं थे, पर उनकी ग़ज़ल का मीटर बहुत ही दुरूस्त है।
निदा फ़ाज़ली का सूफियाना अंदाज उन्हें बहुत पसंद था। हस्ती जी के स्वभाव में सृजन था। जिससे भीड़ में खुद को अलग करने की कला उन्होंने सीख ली इसलिए दुकान के वक्त दुकान, बाकी समय लेखक आपस में कभी नहीं टकराये, उनकी दुकान पर भी लेखक शायर इकट्ठे होते थे। स्वभाव में कभी यह था ही नहीं कि बहुत पैसा कमाना है, पर हस्ती जी साहित्य के इतिहास के पन्नों पर अपना नाम कमा गए हैं। हस्ती जी को श्रद्धांजलि इन शब्दों के साथ इनकी ग़ज़लों में है ‘बात ऐसी है कि हस्ती मिटेगी नहीं कभी भी…