पूरे देश में अनुकूल वातावरण होने के बाद भी भाजपा को अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं मिले, यह अब भी चर्चा का विषय बना हुआ है। इंडी गठबंधन की ऐसी कौन सी रणनीति और कूटनीति कारगर सिद्ध हुई, जिसने भाजपा के बहुमत तक पहुंचने में बाधा उत्पन्न की, इन बिंदुओं पर इस लेख में प्रकाश डाला गया है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने पूर्ण बहुमत लेकर सत्ता सम्भाल ली है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सरकार बिना किसी बाधा के अपना लक्ष्य और कार्यकाल पूरा करेगी, फिर भी इस चुनाव परिणाम से कुछ प्रश्न उभरे हैं। अनुकूल वातावरण होने के बाद भी भाजपा को क्षति कैसे हुई, इन विषयों पर विचार करना आवश्यक है।
देश की अठारहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम साधारण नहीं हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने लगातार तीसरी बार सरकार बनाई है। यह अपने आप में कीर्तिमान है। 1962 के बाद किसी भी प्रधान मंत्री को यह अवसर नहीं मिला जो नरेंद्र मोदी को मिला है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से 32 सीटें पीछे रह गई है। भाजपा ने यह कमी अपने गठबंधन के साथियों से पूरी की है। भाजपा के नेतृत्व में यह गठबंधन चुनाव के बहुत पहले बन गया था। इसलिए सरकार बनाने में कठिनाई नहीं हुई। मत्रिमंडल के स्वरूप और मंत्रियों केे विभाग वितरण से भी यह बात स्पष्ट हो गई है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर किसी का कोई दबाव नहीं है। इसलिए मोदी द्वारा घोषित राष्ट्रहित की प्राथमिकताओं पर तेजी से क्रियान्वयन होगा और सुखद परिणाम भी सामने आएंगे।
ये चुनाव परिणाम भाजपा के लिए सुखद संदेश भी लाए हैं और दक्षिण भारत में भविष्य की राहें खुली हैं। लगभग सभी दक्षिणी प्रांतों में भाजपा का प्रभाव बढ़ा है। उड़ीसा में भाजपा की सरकार बनी है। केरल में खाता खुला और तमिलनाडु में मत प्रतिशत बढ़ा है। देश के छ: प्रांतों में भाजपा ने स्वीप किया, लगभग सारी सीटें जीती, लेकिन यह भी विचारणीय है कि पांच प्रांतों में भाजपा की सीटें और मत प्रतिशत दोनों घटे हैं। ये प्रांत उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल हैं। इनमें जो गड्ढा हुआ उसमें दक्षिणी प्रांतों की उपलब्धि समा गई। फिर भी पिछली बार की तुलना में 62 सीटों की कमी पूरी न हो सकी। इस पर भाजपा को स्वयं विचार करना है कि आखिर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और राजस्थान में चूक क्यों हुई?
दूसरा प्रश्न उन राजनैतिक दलों के लिए है जिन्हें पिछली बार की तुलना में सफलता तो मिली पर उसका आधार क्या है? तीसरा सबसे बड़ा बिंदु उन कुछ चेहरों का है जो इस बार संसद में देखे जाएंगे। इस पर भारतीय समाज को भी विचार करना है कि वोट देने के लिए उनकी प्राथमिकता क्या रहनी चाहिए और भविष्य के भारत की रचना में उसकी पसंद क्या है?
विपक्ष की रणनीति और कूटनीति-
लोकसभा के इस चुनाव में विपक्ष ने रणनीति ही नहीं बनाई अपितु अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए कूटनीति से भी काम किया और कहीं-कहीं तो राजनैतिक षडयंत्र का संदेह भी होता है। विपक्षी गठबंधन में आकार लेने के साथ सहयोगी दलों में मतभेद रहे, लेकिन मतभेद होने के बाद भी उन्होंने भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरुद्ध वोटों का विभाजन नहीं होने दिया और वह एक उम्मीदवार के पक्ष में केंद्रित करने सफल रहे। विपक्ष ने पूरी शक्ति नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए लगा रखी थी। यह काम पहले दिन से हुआ। मतदाता को अपनी ओर आकर्षित करने का कोई बिंदु नहीं छोड़ा गया।
यह विपक्ष की कूटनीति ही थी कि अधिकांश सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा गया, लेकिन जहां आवश्यक हुआ वहां एक दूसरे की खुलकर आलोचना भी की गई ताकि जहां सहयोगी दलों विशेषकर कांग्रेस के विरुद्ध नाराजगी हो वहां मतों का विभाजन न हो और भाजपा विरोधी मतदाता एकजुट रहें। इसके साथ विपक्ष ने जातिगत मुद्दों को भी हवा दी। यह कूटनीति की सीमा के अंदर ही आता है।
मोदी को रोकने का विपक्षी चक्रव्यूह-
भाजपा ने वर्षों परिश्रम करके भावनात्मक एकत्व का वातावरण बनाया था। अयोध्या में रामलला के विराजमान होने के बाद तो मानो पूरे देश में भावनात्मक एकत्व का ज्वार फूट पड़ा था। इसमें सेंध लगाने के लिए जातिगत जनगणना और जाति आधारित आरक्षण के मुद्दों को हवा दी गई। टिकिट वितरण में भी यह नीति स्पष्ट देखी गई। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा ही नहीं पूरे देश में इस नीति के क्रियान्वयन की झलक मिलती है।
फैजाबाद में भाजपा की हार और समाजवादी पार्टी उम्मीदवार की जीत से इस गणित को आसानी से समझा जा सकता है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के मिल जाने से उत्तर प्रदेश में इस बार फिर यादव-मुस्लिम मतदाता में समन्वय बना। इसे और बढ़ाने के लिए फैजाबाद में दलित वर्ग का उम्मीदवार उतारा गया। इस प्रकार फैजाबाद में यादव मुस्लिम के साथ दलित वोट भी जुड़ा और समाजवादी पार्टी ने सीट जीत ली।
उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को उन क्षेत्रों में अधिक नुकसान हुआ जहां प्रभावशाली विपक्षी नेता भाजपा में आए थे। अकेले उत्तर प्रदेश में ऐसी लोकसभा सीटों की संख्या 22 है। जहां भारी संख्या में बाहरी नेता भाजपा में तो आएं पर भाजपा का जनाधार घटा। इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ली थी। इनमें पूर्व सांसद, पूर्व विधायक, पूर्व मंत्री और प्रांतीय स्तर के पदाधिकारी थे। इनके आने से भाजपा को लाभ होना चाहिए था, पर उल्टा नुकसान ही हुआ, तो क्या ये सब किसी विशेष प्रयोजन लेकर भाजपा में आएं थे? क्या भाजपा में आकर इन्होंने प्रचार की दिशा बदली और वो भटक गए और सपा को जीत मिली। इस बिंदु पर स्वयं भाजपा को विचार करना होगा।
भाजपा की चूक और विचारणीय बिंदु-
भाजपा और एनडीए गठबंधन ने यह चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम और साख पर लड़ा। इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी की छवि का ग्राफ सबसे ऊपर हैं। उनके नाम का लाभ पूरे एनडीए गठबंधन को मिला। इसकी स्वीकारोक्ति आंध्र के चंद्रबाबू नायडू और बिहार के चिराग पासवान ने मीडिया के सामने भी की। यह मोदी के नाम का चमत्कार ही है कि आंध्र में टीडीपी को पिछली बार की तुलना में कुछ प्रतिशत वोट कम मिले, फिर भी विधानसभा में बहुमत मिल गया। इसके कारण ही चंद्रबाबू नायडू ने मंत्रिमंडल में न भागीदारी की संख्या पर जोर दिया और न विभाग वितरण में। मोदी की छवि का लाभ अकेले चंद्रबाबू नायडू, नितीश कुमार या चिराग पासवान को ही नहीं बल्कि सभी एनडीए सहयोगियों को भी हुआ, लेकिन अपने गठबंधन के साथियों को लाभ पहुंचा कर भी भाजपा घाटे में रही। यह कल्पना किसी को नहीं थी कि भारतीय जनता पार्टी को पिछली बार की तुलना में 62 सीटों का नुकसान होगा। चुनाव पूर्व के अधिकांश सर्वेक्षण और ज्योतिष आकलन भारतीय जनता पार्टी में वृद्धि का संकेत दे रहे थे, फिर भी नुकसान ही हुआ, सबसे अधिक नुकसान तो उत्तर प्रदेश में हुआ।
इसके अलावा मोदी की जीत का अंतर भी कम हुआ। भाजपा को यह नुकसान जितना विपक्षी गठबंधन की रणनीति से हुआ, उतना ही स्वयं अपनी चूक से भी। विपक्ष पार्टियों ने भाजपा और मोदी का रास्ता रोकने के लिए जो जाल तैयार किया था, भाजपा उसमें उलझती चली गई। भाजपा की सबसे बड़ी चूक उसके अति आत्मविश्वास के अतिरेक में रही। भाजपा की पहली चूक विपक्षी सदस्यों को भाजपा में लाने का अभियान रहा। भाजपा ने यह विचार तक नहीं किया कि जिन्हें पार्टी से जोड़ा जा रहा है उनकी छवि भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं में कैसी है और भाजपा समर्थक मतदाता में उनकी छवि कैसी है?
विपक्ष ने सनातन समाज में आए एकत्व भाव में सेंध लगाने के लिए जातिगत जनगणना और आरक्षण का मुद्दा उठाया और यह प्रचारित किया कि भाजपा संविधान बदल देगी। भाजपा इस प्रचार का कोई प्रभावशाली समाधान नहीं खोज सकी बल्कि भाजपा के कुछ नेताओं के वक्तव्य ऐसे आए जिससे विपक्ष को अपने प्रचार में सहायता मिली। इस चुनाव प्रचार में भाजपा के स्थानीय नेतृत्व और स्थानीय कार्यकर्ता के बीच एक विशेष प्रकार की असहजता भी देखी गई। भाजपा में अन्य दलों से जो नेता और कार्यकर्ता आए उनका भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय नहीं बन पाया और न स्थानीय नेतृत्व ने इस ओर कोई ध्यान दिया। यह असहजता पूरे चुनाव पर हावी रही और कार्यकर्ता की सक्रियता में अंतर आया।
दूसरी ओर एक परिवर्तन भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी देखा गया। हर बार भाजपा कार्यकर्ता मतदाताओं के घर-घर जाकर सम्पर्क करता है, लेकिन इस बार व्यक्तिगत सम्पर्क में कमी रही। इसके स्थान पर वाट्सअप संदेश का जोर रहा। पोस्टर चिपकाने, आम सभा के प्रबंध और प्रचार का काम कार्यकर्ता पर कम रहा और एजेंसियों का प्रभाव बढ़ा। इससे उन कार्यकर्ताओं में कुछ असहजता बढ़ी जो किसी पद प्रतिष्ठा की आकांक्षा किए बिना केवल विचार और संगठन के लिए काम करते हैं।
निसंदेह राजनीति में कोई स्थाई शत्रु या मित्र नहीं होता, लेकिन वैचारिक धाराओं पर तो कुछ नामों पर विचार करके भाजपा सदस्यता दी जानी थी। चुनाव प्रचार के अंत में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रताप नड्डा के उस वक्तव्य से भी निचले स्तर के कार्यकर्ता में असहजता उत्पन्न की, जिसमें कहा गया था कि भाजपा सक्षम हो गई है, अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निर्भर नहीं है, यद्यपि मीडिया में नड्डा का यह वक्तव्य अधूरा आया जिसे तोड़ मरोड़कर पेश किया गया। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता मीडिया में प्रकाशित ऐसी सामग्री से परिचित होते हैं, फिर भी इस वक्तव्य के बाद इससे उत्पन्न चर्चाओं पर समाधान होना था जो न हो पाया और भाजपा से सबसे बड़ी चूक मुद्दों को बदलने से हुई। अत: भाजपा को आत्मविश्वास के अतिरेक में नहीं ठोस धरातल पर रणनीति बनानी होगी।